दुर्लभ बात यह नजर आती है कि दिल्ली या अन्य राज्यों के उलट यहां आम जनता तो धूप से बचाने वाले तंबू के नीचे है मगर राज्य का मुख्यमंत्री ऐसी सड़ी गर्मी में भी चिलचिलाती धूप में बैठा हुआ है. सभी को कुछ न कुछ कहना है. तकरीबन डेढ़ घंटे के बाद उमर की बारी आती है. वे हिंदी में बोलते हैं, ‘अक्सर हमारे बीच की बातचीत एकतरफा हो जाती है. हमें इसे सही करना है. जम्मू और कश्मीर से जुड़ा सबसे बड़ा मसला हमारे हाथ में नहीं है. ये नई दिल्ली और इस्लामाबाद के हाथों में है.’
कश्मीरियों के लिए गले लगना उनकी एक जरूरत सरीखा है. वे अपने स्नेह को खुलकर जताने के लिए जाने जाते हैं. मगर उमर ऐसा करने के प्रति सहज ही नहीं हो पाते
‘हर बार जब हम कश्मीर के मुद्दे के हल के करीब पहुंचते हैं तो कुछ ऐसा हो जाता है कि हम फिर वहीं पहुंच जाते हैं. आज हालत यह हो गई है कि दो देशों के विदेश मंत्री एक-दूसरे पर प्रेस कॉन्फ्रेंसों में आरोप लगा रहे हैं. मैं अल्लाह से दुआ करता हूं कि वह नेताओं को हमें करीब लाने की हिम्मत दे.’ अब वे उस बात पर आ जाते हैं जो उनकी नजर में आज सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है. ‘हम एक के बाद एक हड़तालों से कश्मीर समस्या हल नहीं कर सकते. इससे हम अनपढ़ों वाला राज्य बन जाएंगे. हमारे बच्चे कुछ नहीं कर सकेंगे. हम केवल भीख मांगने लायक रह जाएंगे. क्या हम यही चाहते हैं? सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हमें पैसा देते हैं. हम उनके शुक्रगुजार हैं. आपकी मदद के लिए धन्यवाद. मगर यदि वे यह सोचते हैं कि पैसों से यह मुद्दा हल हो सकता है तो यह सही नहीं है. यह एक राजनीतिक समस्या है जो 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के साथ शुरू हुई थी.’
मगर श्रीनगर की सड़कों, जहां पिछले कुछ सप्ताहों से पत्थर और आंसू गैस के गोले उड़ रहे हैं, पर कोई उन्हें सुनने को तैयार ही नहीं. आजकल यहां के एक आम दिन की शुरुआत बेहद शांत-सी होती है. दुकानें नहीं खुलतीं, औरतें ज्यादातर घरों में ही रहती हैं. धीरे-धीरे युवा इकट्ठे होने लगते हैं और आधा दिन होते-होते शांति कोलाहल में तब्दील होने लगती है. शुक्रवार की एक दोपहर को श्रीनगर के रामबाग इलाके में करीब 500 लोगों की भीड़ इकट्ठा है. यह पत्थर फेंकने वालों की भीड़ है. प्रशासन ने हाल ही में एक स्थानीय समाचार चैनल को उकसाऊ खबरों के लिए प्रतिबंधित कर दिया है और भीड़ को इसके पीछे उसे खबरों से दूर करने की साजिश की बू आ रही है. कुछ लोगों के सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाने की खबरें हवा में हैं.
इसी भीड़ में एक बेहद दुबला-पतला सा 12वीं कक्षा का छात्र अशरफ भी शामिल है. चीखने-चिल्लाने-नारेबाजी से उसका गला बैठा हुआ है. ‘वे (सुरक्षा बल) हमें स्कूल नहीं जाने देते, दूध नहीं खरीदने देते. सुबह-सुबह उन्होंने दूध के पैकेट लेकर घर लौट रहे एक आदमी को गोली मार दी. हम उन्हें राज नहीं करने देंगे. उन्हें वापस जाना ही होगा. हमें आजादी चाहिए,’ अशरफ बिना रुके बोलता जाता है. पत्थर फेंकने वालों ने अब एक मोर्चे जैसा रूप ले लिया है और वे खतरनाक तरीके से करीब आधा किमी दूर खड़े कुछ पुलिसवालों की ओर बढ़ चले हैं. इनमें से कइयों के चेहरे ढके हुए हैं. अचानक वे गालियों और पत्थरों की बौछार करते हुए भागने लगते हैं.
‘वे (सुरक्षा बल) हमें स्कूल नहीं जाने देते, दूध नहीं खरीदने देते. सुबह-सुबह उन्होंने दूध के पैकेट लेकर घर लौट रहे एक आदमी को गोली मार दी. हम उन्हें राज नहीं करने देंगे. उन्हें वापस जाना ही होगा. हमें आजादी चाहिए,’
पुलिसवालों के हाथों में लाठियां, बांस की बनी ढालें और कुछ के सर पर हेलमेट हैं. वे बड़े बेचारे-से लगते हैं जिन्हें ऐसी परिस्थितियों से निपटने का कोई प्रशिक्षण और अनुभव नहीं है. पुलिसवाले बचने और इसके लिए छुपने का प्रयास करते हैं. रेडियो पर सहायता की गुहार लगाई जाती है और थोड़ी ही देर में बख्तरबंद गाड़ियों का एक काफिला वहां पहुंच जाता है. आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं. चारों ओर और फेफड़ों में बस धुंआं ही धुआं. सड़कों पर ईंट-पत्थरों का ढेर लग जाता है. पत्थरबाज गलियों की ओर रुख कर लेते हैं. अब बारी पुलिस कांस्टेबलों की है. वे पत्थर फेंकने लगते हैं. शाम तक कई बार इस चक्र को दोहराया जाता है. पिछले कुछ समय से कश्मीर का आम दिन कुछ-कुछ ऐसा होता रहा है.
बमुश्किल 18 महीने पहले उमर को कश्मीर में एक बड़ी उम्मीद के बतौर देखा गया था. मगर अपनी दूसरी सभा के लिए
हेलिकॉप्टर में बैठकर जाते उमर आज खुद ही उस उम्मीद के प्रति आश्वस्त नजर नहीं आते. जैसे ही हम उड़ान भरते हैं, उमर अपने आईपैड में खो जाते हैं. वे संगीत सुनते हुए अंग्रेजी की किताब पढ़ रहे हैं. हम बीच-बीच में उनसे बातें करते जाते हैं. वे बताते हैं कि वे इंटरनेट पर किताबें और फिल्में किराए पर लेते हैं, यानी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के प्रति उनका लगाव अब फिर से लौट आया है. जब वे मुख्यमंत्री बने ही थे तो असेंबली में किसी मुद्दे पर बहस के दौरान अपने ब्लैकबेरी फोन से उलझे हुए थे. इस पर हुए विवाद के बाद उन्होंने ब्लैकबेरी फोन से तौबा कर ली थी. मगर आज वे और उनके निजी सचिव ही दो ऐसे व्यक्ति हैं जो जम्मू और कश्मीर में आईपैड इस्तेमाल करते हैं.
उमर आज जैसे हैं उन्हें वैसा बनाने में उनके बोर्डिंग स्कूल – लॉरेंस स्कूल सनावर – का भी बहुत बड़ा योगदान है. वे आज भी अपने में ही रहने वाले व्यक्ति हैं. वे बहुत सख्त कॉर्पोरेट अनुशासन को पसंद करते हैं जिस वजह से परिणाम उनके लिए बहुत महत्व रखता है. इसके उलट उनके पिता फारुख अब्दुल्ला बेहद खुले मिजाज के व्यक्ति थे. उमर को देखकर उनमें भावनाओं की कमी होने का सा एहसास होता है जो उनके लोगों से जुड़ने की राह की सबसे बड़ी बाधा है. हालांकि अच्छे प्रशासकों को भावनाओं को बहुत ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए मगर कश्मीर इस मामले में अपवाद है. जहां हर चीज एक प्रकार से भावनाओं से ही संचालित होती हो वहां उमर के जैसा होना चीजों को थोड़ा और उलझा देता है.
कश्मीरियों के लिए गले लगना उनकी एक जरूरत सरीखा है. वे अपने स्नेह को खुलकर जताने के लिए जाने जाते हैं. मगर उमर ऐसा करने के प्रति सहज ही नहीं हो पाते. अकसर उनके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं होता जिसकी वजह से लोग उन्हें समझ नहीं पाते और थोड़ा सशंकित रहते हैं. अपने इस व्यवहार की वजह से वे आज युवाओं, प्रौढ़ों, महिलाओं, बुिद्धजीवियों, विपक्षी पार्टियों सभी के निशाने पर हैं.
चूंकि वे सार्वजनिक रूप से कम ही दिखाई देते हैं और यदि ऐसा होता भी है तो वे ज्यादा सहज नजर नहीं आते इसलिए ऐसा आभास होता है कि जैसे सब-कुछ उनके नियंत्रण में नहीं है. इसीलिए उनके विरोधी यह आरोप लगाते हैं कि राज्य का प्रशासन राज्यपाल एनएन वोहरा देखते हैं और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी गृहमंत्री चिदंबरम संभालते हैं. उमर को इन चुनौतियों का एहसास है. वे एक सुबह हमसे थोड़ा खुलकर बात करते हैं, ‘मुझे कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है. हमारा पड़ोसी हमेशा कश्मीर समस्या को सुर्खियों में बनाए रखना चाहता है. भारत सरकार राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया को जारी नहीं रख पा रही है. मुझे लोगों के अंदर घर करते जा रहे इस एहसास से भी निपटना है कि शांति प्रक्रिया में कोई प्रगति नहीं हो रही है, न तो बाहरी स्तर पर न ही अंदरूनी स्तर पर. सूबा भीषण बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहा है. विपक्ष की भूमिका पूरी तरह नकारात्मक हो चुकी है. वे इस नीति पर चल रहे हैं कि यदि वे शासन नहीं कर सकते तो किसी को करने भी नहीं देंगे. मुझे हर तरह के उन निहित स्वार्थों का सामना करना पड़ रहा है जो जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थितियां बहाल होते नहीं देखना चाहते. मेरी उम्र भी मेरे लिए एक चुनौती ही है. मैं अभी महज 40 साल का ही हूं. वे चाहते हैं कि मैं शुरुआत में ही असफल हो जाऊं ताकि उन्हें आज से 30 साल बाद मेरे लिए चिंता नहीं करनी पड़े.’
सब-कुछ बुरी तरह उलझा हुआ है. एक तरफ भारत है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान, पत्थरबाज हैं, धड़ों में बंटी हुई हुर्रियत पार्टी है, आतंकवादी हैं, सशस्त्र बल हैं और इनके अलावा अमेरिका व अफगानिस्तान भी इससे जुड़े हैं. राज्य में इस समय आक्रोश अपने चरम पर है. और इसका कोई एक कारण नहीं है. तमाम घटनाओं की एक मिली-जुली प्रतिक्रिया है जो गुस्से के रूप में उमर और सुरक्षा बलों के खिलाफ देखने को मिल रही है. हर लिहाज से उमर इस वक्त देश की सबसे संवेदनशील जिम्मेदारियों में से एक संभाल रहे हैं. वे ऐसा ठीक से कर पाएं इसके लिए उन्हें अपनी कॉर्पोरेट शैली में काम करने की आदत का तालमेल गर्मजोशी और अपनेपन से बैठाना होगा.
इस समय कश्मीर के लोगों की उग्र प्रतिक्रियाओं के मूल में विद्रोह की बजाय प्रतिरोध ज्यादा दिख रहा है. यही वजह है कि काफी विचार-विमर्श के बाद उमर और उनकी पार्टी इससे निपटने की एक रणनीति पर पहुंच चुके हैं. रणनीति यह है कि प्रदर्शनकारियों को थका दिया जाए. इसका मतलब है कि उमर विवाद के राजनीतिक पक्ष की बात करते हुए कानून और व्यवस्था को बहाल करने पर जोर देंगे. वे कहते हैं, ‘मैं लोगों को बातचीत के लिए तैयार करने की कोशिश करूंगा. हो सकता है कि यह खुले में होने की बजाय चुपचाप हो. मुझे पता है कि भारत सरकार ने भी इस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश की थी लेकिन जमीन पर कुछ हो उससे पहले ही ऐसे हालात पैदा हो गए कि यह बंद हो गई. यदि ज्यादा कुछ नहीं भी होता है तब भी उस बातचीत में शामिल कुछ पक्षों को भारत सरकार के साथ मतभेदों को कम करने के लिए एक लंबे दौर की सार्थक बातचीत की शुरुआत करते देख कर मुझे खुशी होगी.’ उमर आगे कहते हैं,’ एक दिक्कत यह है कि जो लोग इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहते हैं उनकी शर्त होती है कि भारत सरकार बिना शर्त बातचीत करे जबकि वे अपने साथ शर्तों की पूरी सूची लेकर बात करना चाहते हैं. आप सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाना चाहते हैं, राज्य से सेना हटाने की बात कहते हैं कैदियों को राहत देने की बात की जाती है. इन सारे मसलों पर फैसला बातचीत के बाद ही हो सकता है. बातचीत के पहले ही इन पर एकराय बन जाए, यह मुमकिन नहीं है.’
कश्मीर मसले पर सरकार की गुपचुप बातचीत की रणनीति का असर पिछले दिनों देखने को भी मिला. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने पांच अगस्त को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करके रेलवे स्टेशन जलाने की घटना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि वे ऐसा नहीं चाहते. उन्होंने लोगों से गांधीवादी तरीके से प्रदर्शन करने की भी अपील की. उस दिन श्रीनगर में कड़ाई से कर्फ्यू लागू किया गया था और वहां सड़कों पर सन्नाटा छाया हुआ था. इस पर लोगों का कहना था कि उमर ने ही गिलानी को प्रेस कॉन्फ्रेंस आयाेजित करने के लिए तैयार किया था ताकि राज्य के सभी इलाकों में अमन बहाली का संदेश दिया जा सके.
वैसे इस घटना का महत्व हालात पर तात्कालिक रूप से काबू पाने की कोशिश के सिवा और कुछ नहीं है. जहां तक कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की बात है तो इस पर किसी नई सोच के प्रमाण कश्मीर में जरा भी नहीं मिलते. इस बात से उमर भी इत्तेफाक रखते हैं, ‘शायद इस मसले पर नए सिरे से कोई सोचना ही नहीं चाहता. मुझे पता है कि प्रदर्शन के दौरान लोगों के मरने में अलगाववादियों के छिपे हुए स्वार्थ हैं. जैसे ही कोई युवा मारा जाता है, इन लोगों को अपना आंदोलन एक और हफ्ते चलाने का मौका मिल जाता है’, वे आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता कि पीडीपी का इससे क्या फायदा है. अलगाववादियों का आंदोलन जितना ज्यादा बढ़ेगा, पीडीपी को उतना ही ज्यादा राजनीतिक नुकसान उठाना होगा. मैं जब आम लोगों से मिलने के लिए कंगन, हंदवाड़ा और दूसरी जगहों पर घूम रहा था तब पीडीपी को एक ही काम करना मुफीद लग रहा था- सचिवालय में तालाबंदी करना. उनके विधान सभा में 21 विधायक हैं. मैं यह नहीं कहता कि वे व्यापक स्तर पर जनसंपर्क की कोशिश करें. लेकिन जो हो रहा है इसके खिलाफ कुछ तो बोल ही सकते थे. मुझे उनकी तरफ से एक भी सकारात्मक आवाज सुनाई नहीं दी.’
उमर एक ऐसा कदम उठाने का प्रयास भी कर रहे हैं जो सड़कों पर एक बड़े बदलाव का कारण बन सकता है. वे कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस के हाथों में देने की कोशिशों में लगे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘यह जरूरी है कि हमारे कुछ सुरक्षा बलों को कानून और व्यवस्था की बहाली के लिए अलग तरह का प्रशिक्षण दिया जाए. यहां इंडियन रिजर्व पुलिस की पांच बटालियनें हैं जिन्हें एक विशेष कमांडो ट्रेनिंग के लिए भेजा जाना था ताकि उन्हें आतंकवाद विरोधी अभियान में इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन हमें अब एहसास हो रहा है कि हमारी प्राथमिकता कानून व्यवस्था की बहाली है. हमने फैसला किया है कि इन बटालियनों को कानून व्यवस्था से निपटने के लिए रैपिड एक्शन फोर्स की तर्ज पर प्रशिक्षित किया जाए, भीड़ को नियंत्रित करने के लिए उन्हें ऐसे हथियार दिए जाएं जिनसे किसी की जान जाने का जोखिम न हो. हमें कुछ इस तरह की चीजें करनी होंगी.’
कश्मीर का आधुनिक राजनीतिक इतिहास बताता है कि राज्य में इस तरह के संकट नए नहीं हैं. हां, उमर के लिए यह एक नई शुरुआत जरूर है. वे भारत के सबसे कम उम्र के और सबसे संवेदनशील राज्य के मुख्यमंत्री हैं. हो सकता है कि आने वाले दिनों में उनसे कुछ और गलतियां हों, और जो इस पद पर रहते हुए किसी से भी हो सकती हैं. लेकिन ताजा संकट के अनिश्चित समाधान के बावजूद एक तयशुदा बात यह है कि उन्हें नायक या जलते कश्मीर का नीरो बनते देखना भारत में हालिया दिनों की सबसे दिलचस्प राजनीतिक घटना बनने वाला है.