पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में जो कुछ भी चल के फिलहाल खत्म-सा हो चुका है यदि उसपर ठहरकर विचार करेंगे तो यह हमारी कम-से-कम ‘घ’ वीं गलती होगी: हमने एक चुकी हुई सी राजनीतिक पार्टी को अपना मान, उसके नेता की बेकार की नाराजगी को सर माथे ले कई दिनों तक पूरी मुंबई को सर पर उठाए रखा, बिना यह सोचे कि इस दौरान, देशभक्ति के नाम पर जिस जगह – मुंबई में – हम यह सब कर रहे थे, वहां की सारी व्यवस्था ऊपर वाले के हवाले हो गई थी; हमने अनगिनत बहसों में हिस्सा लिया और बेहद गंभीरता के साथ कुतर्क करने वालों को उससे भी ज्यादा गंभीरता से उनका कर्तव्य याद दिलाने, उनके कामों की निरर्थकता समझाने की कोशिश की; हमारी खुशी का ठिकाना न रहा जब हमने एक ‘साफ-सुथरे’ नौजवान राजनेता को भारी चुनौती के बावजूद मुंबई पहुंचकर एनएसजी की अभेद्य सुरक्षा में ‘खुलेआम’ घूमने की हिम्मत दिखाते और घृणा की राजनीति के पैरोकारों को नाकों चने चबवाते देखा; हम दुखी हुए कि नाकों चने वाली बात केवल हमारी खुशफहमी थी और कहीं से कुछ भी तो नहीं बदला था; हमने अपने देश के कई वरिष्ठ-कनिष्ठ राजनेताओं को राजनीति छोड़कर राजनीति करते हुए देश के सामने खड़ी एक ‘कड़ी चुनौती’ का सामना करने और ऐसा करने के लिए एक फिल्म विशेष देखने की सलाह देते सुना, और हममें से कइयों ने इसे माना भी…
हो सकता है कि 60 साल किसी देश के इतिहास का सिर्फ एक पन्ना भर हों किंतु लोकतंत्र की स्थापित मान्यताओं और परंपराओं की स्थापना के लिए यह इतना कम समय भी नहीं. और अगर यह इतना कम ही है तो क्यों हमें यह याद नहीं रहता कि जो कांग्रेस आज बाल ठाकरे की कारगुजारियों पर सख्त एतराज जता रही है, उसी के वसंतराव नाइक ने 60 और 70 के दशक में वामदलों के वर्चस्व वाली मुंबई की ट्रेड यूनियनों और वाम दलों को कमजोर करने के लिए शिवसेना को जमकर प्रोत्साहन दिया था. जब शिवसेना की महत्वाकांक्षाएं मुंबई और थाणे से बाहर का रुख करने लगीं तो कांग्रेस को उसमें अपना सबसे बड़ा दुश्मन दिखाई देने लगा. काफी बाद में उसने शिवसेना के मुकाबले राज ठाकरे की मनसे खड़ी करवा दी. कुछ दिनों पहले तक वह भी उत्तर भारतीयों को भगाने के नाम पर उत्पात मचा रही थी मगर शिव सेना के वोट काटने की गरज से वह कांग्रेस को प्यारी रही. क्यों हमें यह याद नहीं रहता कि मराठी मानुस की भलाई के नाम पर बनी शिवसेना ने हाल तक भाजपाई हिंदुत्व की सोहबत में इससे किनारा किया हुआ था, मगर जैसे ही उसे मनसे का डर सताया वह फिर से मराठी अस्मिता की दुहाई देने लगी है. और अभी शिवसेना से प्रतिस्पर्धारत मनसे का जवाब आना तो बाकी है. जल्दी ही वह भी कुछ ऐसा ही करेगी और हम हर बार की अपनी गलतियों को भूलकर उन्हें दोहराने में तनिक भी संकोच नहीं करने वाले.
किसी लोकतंत्र और समाज के लिए दो सबसे जरूरी शक्तियों में से एक है जयजयकार की शक्ति और दूसरी है धिक्कार की. पहली हमें अच्छाई को प्रोत्साहित करने के लिए इस्तेमाल करनी होती है और दूसरी बुराई को हतोत्साहित करने के लिए. अफसोस! दोनों के ही लगातार दुरुपयोग या उपयोग न करने ने हमें लोकतंत्र की संजीवनी, इन दोनों शक्तियों से हीन कर दिया है.
संजय दुबे