पिछले 60 साल से गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है. गणतंत्र दिवस का कार्यक्रम कभी भी कुछ ऐसा कहता-सुनता-समझता नजर नहीं आता जो पहले न कहा गया हो. इस दिन का जलसा देखकर लगता है कि भारत में कभी कोई तकलीफ थी ही नहीं. सबसे पहले गणतंत्र दिवस समारोह पर भी लोग नाचते-गाते, कदम से कदम मिलाते, एक-दूसरे से गले मिलते नजर आए थे. आज भी बदस्तूर वही सिलसिला जारी है. हां 1950 के समारोह में लोगों को यह तसल्ली जरूर थी कि एक दिन हमारा गणराज्य इस समारोह में दिखाई गई खुशहाली जरूर हासिल कर लेगा. मगर 2010 तक आते-आते वह उम्मीद भी केवल सवाल बनकर रह गई है. आखिर कब गणतंत्र दिवस पर दिखाए गए आमजन की सुरक्षा, तरक्की व आपसी भाईचारे के विज्ञापन हकीकत का जामा पहनेंगे? सलामी लेने वाले राष्ट्रपति बदलते रहते हैं पर गणराज्य की तकदीर और तसवीर नहीं.
हर बार की तरह इस बार मन प्रशासन की सजाई झांकियों में झलकते झूठे नजारे नहीं देखना चाहता था. सो विजय चौक से इंडिया गेट का सफर तय करती झूठ की झांकियों पर सच के नजारों ने कब्जा कर लिया. झूठ के अपहरण के बाद गणतंत्र समारोह का नजारा कुछ ऐसा रहा.
निश्चिंत मन से पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के लिए राष्ट्रपति तैयार हैं, कदम से कदम मिलाते सेना के जवानों से सलामी लेने के लिए. पर यह क्या? जवान राष्ट्रपति को सलामी देने की बजाय लड़कियों-औरतों के कपड़े फाड़ने में व्यस्त हैं. अगली बारी बैंड-बाजे के साथ पुलिस बल की है. पुलिस के सिपाही राष्ट्रपति को सलामी देने की बजाय केपीएस गिल जिंदाबाद, एसपीएस राठौर जिंदाबाद! ये हमारे आदर्श हैं! की पट्टी गले में टांगे गिल और राठौर के चरणों में बैठे हैं. दोनों अफसरानों के होंठ तनी हुई मूछों के बीच से झांकते हुए जी भर-भर मुस्करा रहे हैं. कुछ पुलिस वाले सलाखों के भीतर एक औरत की साड़ी खींचने में व्यस्त हैं. रूपन देओल बजाज रुचिका की तसवीर थामे एक कोने में सिकुड़ी बैठी हैं.
आशा के विपरीत नजारा देख राष्ट्रपति हैरान हैं. तभी एक और झांकी करीब आती है जिसमें बड़े से चबूतरे पर कम उम्र के एक विवाहित जोड़े को चारों ओर से भीड़ ने घेरा हुआ है. कुछ लोग पेड़ से बंधी रस्सियां जबर्दस्ती उनके गले में डाल रहे हैं. दोनों मासूम जिंदगी की भीख मांग रहे हैं. चारों तरफ से आवाजें आ रही हैं लटका दो इन्हें फांसी पर. ये हमारी जात-बिरादरी के गुनहगार हैं. मारो-मारो की आवाजें बुलंद करती हुई जैसे ही यह झांकी गुजरी कि तभी कुछ जल्दबाजी मचाती हुई एक और झांकी सामने आई. झांकी में त्रिशूल-तलवार थामे कुछ लोग ‘हिंदू धर्म, हिंदू राष्ट्र जिंदाबाद बाकी बचों का सत्यानाश!’ नारा लगाते हुए अंधाधुंध कत्लेआम कर रहे हैं. औरतों के बाल खींचते हुए उनके गुप्तांगों को तलवारों से काट रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं. बेबसी की चीख, रहम की भीख मांगता यह काफिला गुजरा तो आने वाली झांकी में कुछ अंधनंगे लोगों को जबरन झोपड़ी से निकालते सूटबूटधारी नजर आए. एक ने कहा, ‘साहब रोटी मांगता है!’ दूसरे ने कहा, ‘अच्छा, साला नक्सली, माओवादी बनता है! उड़ा दो गोली से! इसकी औरत को बंगले पर भेज दो!’
नंगधड़ंग पिटते लोगों के बाद जो झांकी आई उसपर लिखा है ‘नरेगा’. कुर्सी पर बैठा अधिकारी जमीन पर बैठे मजदूर से कह रहा है, ‘एक हजार अंगूठे लगाने के 100 रुपए, समझे? हाथ से लगा, चाहे पैर से, बस लगा!’ तभी एक व्यक्ति चिल्लाता हुआ आया, ‘तुम्हारी यह धांधली मैं सबको बताऊंगा.’ कुर्सी पर बैठे व्यक्ति ने इत्मीनान से उसकी तरफ एक बार देखा. धांय की आवाज… आदमी जमीन पर.
अगली झांकी में एक औरत अस्पताल के बाहर छाती पीटती रोती हुई आती है. ‘हाय मेरा एक ही बच्चा था. कितनी दूर से गिरते-पड़ते आई थी. महीनों फुटपाथ पर रही. किसी ने अस्पताल में घुसने तक नहीं दिया. मर गया मेरा लाल, मर गया!’ इस झांकी को धकियाते हुए जो झांकी आई उसमें मैडम हुक्मरान सवार हैं. अर्दली कह रहा है, ‘मैडम, खेलों की तैयारी के लिए जगह खाली करवा ली गई है. सारे तंबू तुड़वा दिए. पर मैडम 200 लोग ठंड से मर गए.’ मैडम ने बेरुखी से जवाब दिया, ‘जाने दो, पता नहीं कहां-कहां से आ जाते हैं. यहां भीड़ बढ़ाने.’ ‘मैडम राज्य को सुंदर बनाने की हमारी मुहिम तो जोरों पर है. पर देश की नाक बचाने वाले अच्छे खिलाड़ी भी तो चाहिए.’ मैडम- ‘यह तैयारी हमारे लिए है, देश के लिए नहीं. आगे से ऐसी मूर्खता की बात मत करना.’ अगली झांकी में कुछ कोमल-कोमल गोरे चिट्टे नौजवान लड़के-लड़कियां हैं. लड़कियों ने खादी की महंगी साड़ी और लड़कों ने सफेद कुरता-पायजामा पहना है. सभी पहनावे से परेशान और ऊबे हुए हैं. साड़ी संभालते हुए एक लड़की ने कहा, ‘इस देश के लोगों को कुएं में पड़े रहने देने के लिए हमें यह ढोंग करने जरूरी है. वरना सब हमारी बगल में आकर बैठ जाएंगे.’
सच की पिटारी में अभी और बहुत कुछ बाकी था जो गणतंत्र दिवस की विकास अदालत में पेश होना था. पर राष्ट्रपति इतने ही से घबरा गईं और बगैर दुआ-सलाम वापस लौट गईं.