‘इस बार मुझे अपना गांव बेगाना सा लगा’

मेरा गांव बिहार के वैशाली जिले में आता है, गांव का नाम है बान्थु. इसका सामाजिक ताना-बाना कुछ ऐसा है कि यहां भूमिहारों का बोलबाला है. बिहार की सवर्ण जातियों में इस जाति का प्रभुत्व कितना है यह किसी को बताने की जरूरत नहीं.

अभी कुछ दिन पहले ही अपने गांव से लौटा हूं मैं. गांव में प्रवास करीब बीस दिनों का था इसलिए इस बार मेरे पास समय थोड़ा ज्यादा था, अपने उस गांव को देखने-समझने और पहचानने का जहां से मेरी जड़ें जुड़ी हुई हैं. इसी गांव में मैं पैदा हुआ, जवान हुआ. पहले मुझे अपना गांव अच्छा लगता था, वहां के लोग और उनकी बातें सुहाती थीं. वे जैसे भी थे पर बहुत अच्छे लगते थे.

इन लोगों को गांव में हर साल एक-सवा लाख रुपए की लागत से रामभजन करवाकर पुण्य कमाने की भूख रहती है, पेटू साधुओं को पालने की फिक्र रहती है, लेकिन अपने गांव के किसी बेहद गरीब के लिए एक कंबल जुटाना बहुत भारी पड़ जाता है.

अबकी बार वे सभी लोग मुझे अच्छे नहीं लगे.

इसकी वजहें भी बहुत टीस देने वाली हैं. जमाना कितना ही बदल गया हो मगर आज भी मेरे गांव का भूमिहार चाहता है कि चमार, डोम, मुसहर उसे कमर के नीचे तक झुक कर सलाम ठोके, गाली सुनकर भी उसे (भूमिहारों को) अपना मालिक और अन्नदाता कहे, भूखा रहकर भी उनकी बेगारी करता रहे. चुपचाप, कोई शिकायत न करे.

मेरे गांव के चाचा, बाबा और भाई, सभी लोग प्रदेश सरकार से दुखी हैं. उनकी सोच नाक की सीध में जाती है, दाएं-बाएं सोचने की न फुर्सत है, न कुव्वत. सबका एकमत से विचार है कि बिहार की मौजूदा सरकार ने इन छोटी जातियों का मन बढ़ा दिया है. सब लोग दिन-रात पानी पी-पी कर सरकार को गरियाते हैं. उनका मानना है कि घोर कलजुग आ गया है और ऐसे ही चलता रहा तो हर कोई एक ही घाट से पानी पीने लगेगा.

मुझे इस बार लगा कि गांव का सवर्ण वर्ग सबसे ज्यादा भ्रष्ट है, कामचोर है, पाखंड से घिरा हुआ है.

इन लोगों को गांव में हर साल एक-सवा लाख रुपए की लागत से रामभजन करवाकर पुण्य कमाने की भूख रहती है, पेटू साधुओं को पालने की फिक्र रहती है, लेकिन अपने गांव के किसी बेहद गरीब के लिए एक कंबल जुटाना बहुत भारी पड़ जाता है. ये ऐसे लोग हैं जिन्हें यह जरूर मालूम है कि रामचरितमानस में कितनी चौपाइयां और कितने दोहे हैं, लेकिन इनको इसकी जानकारी नहीं होती कि गांव को मुख्य सड़क से जोड़ने वाली रोड की ढलाई का ठेका किसने लिया था और काम बीच में ही क्यों रुका हुआ है. जानकारी हो भी तो इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.

बड़ी विचित्र स्थिति है. अपने समाज के दोगलेपन पर मुझे हैरत भी होती है और गुस्सा भी आता है. मगर क्या किया जाए. तथाकथित ऊंची जातियों के ये लोग बाहर से बेहद धार्मिक टाइप दिखने वाले ऐसे प्राणी हैं जो मांसाहार और मदिरापान भी दिन देखकर करते हैं.

मैंने अपने गांव में ऐसे लोगों को भी देखा है जो झोपड़ीनुमा घर में रहने वालों से ब्याज वसूलने के किए किसी भी हद तक जा सकते हैं लेकिन यज्ञ के नाम पर एक हजार का चंदा सीना फैलाकर देते हैं और फिर सारे गांव में घूम-घूमकर इस बात का जिक्र करते हैं कि उन्होंने इतना चंदा दिया, फलां से इतनी ज्यादा रकम दी.
इन लोगों को इस बात का बहुत दुख सताता है कि उनके गांव के किनारे झोपड़ी में जिंदगी बिताने वाले लोग कैसे पक्के मकान बनाते जा रहे हैं. इन्हें चिंता होती है कि सब तरक्की करने लग गए तो इनका क्या होगा. इनके महत्व का क्या होगा. ये चाहते हैं कि स्थितियां जैसी आज तक रही हैं आगे भी वैसे ही रहें. उनमें कोई बदलाव न आए. दरअसल, ये अमीर और खाते-पीते लोग हैं जो चाहते हैं कि इनके गांव के गरीब हमेशा गरीब ही रहें. अनपढ़ हमेशा अनपढ़ ही रहें ताकि वे आगे भी इनकी चाकरी करते रहें. ऐसा होगा तभी तो उनकी सामाजिक हैसियत ऊंची बनी रहेगी. 

इन सारी वजहों से मुझे इस बार अपने लोग अपने नहीं लगे, अच्छे नहीं लगे. अपना गांव अच्छा नहीं लगा.