बिहार : कितनी जीत, कितनी हार

‘नीतीश कुमार ने मेरी तरफ देखा और बोले कि उन्होंने बिहार के लोगों से कुछ नहीं कहा है बल्कि खुद से एक वादा किया है कि वे बिहार को बदल देंगे. नीतीश कुमार ने दूसरी बार भी मेरे दिल को छू लिया था. मुझे लगा कि इस आदमी में हिम्मत है.’ पटना स्थित राज्य सचिवालय तक पहुंचते-पहुंचते उमर हेजाजीन उस घड़ी को कोसने लगे थे जब उन्होंने बिहार वापस लौटने की सोची थी. खाड़ी के इस कारोबारी को कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हुई मुलाकात याद आ रही थी. नीतीश बिहारी मूल के ऐसे लोगों की तलाश में थे जो बिहार को उसकी बदहाल स्थिति से उबारने में उनकी मदद कर सकें. उमर को याद है कि उस मुलाकात के दौरान मुख्यमंत्री कितने अच्छे मूड में थे. उनका आग्रह था कि उमर आज के बिहार पर एक नजर डालकर तो देखें. इस बैठक में उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी भी मौजूद थे. उमर को लगा कि एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है. इसलिए उन्होंने हामी भर दी और उस साल की अपनी 122वीं फ्लाइट पकड़कर दुबई से पटना के लिए रवाना हो गए.

पटना पहुंचते ही उन्हें अपने फैसले पर शक होने लगा.सदियों तक लोगों के विचार और उनके विकास को आकार देते रहनेवाले इस शहर का अपना आकार ही बिगड़ा पड़ा था. हर तरफ बेहिसाब भीड़, धक्का-मुक्की, शोर-शराबा, झुकी कमर के साथ वजन खींचते रिक्शेवाले और माहौल में बसी सीली गंध. ‘या अल्लाह, कुछ भी नहीं बदला,’ उमर ने सोचा. वे 22 साल बाद पटना आए थे और शहर अब भी पहले की तरह बदहाल था.चमचमाते कपड़े पहने वे सचिवालय में दाखिल हुए तो सबसे पहले उन्हें रोककर उनसे आने की वजह पूछी गई. जैसा कि उमर बताते हैं, ‘मैंने सोचा, भई क्या बात है, मेरे लिए यह प्रोफेशनलिज्म का पहला संकेत था. मैंने चारों तरफ देखा. कोई भी सफेद या खादी के कपड़े पहने नजर नहीं आया.’ औपचारिकताओं से निबटकर उमर मुख्यमंत्री के चेंबर में दाखिल हुए. मुलाकात को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘मैंने उनसे कह दिया कि मुझे बिहार में कोई बदलाव नहीं दिखा. नीतीश कुमार ने मेरी तरफ देखा और बोले कि उन्होंने बिहार के लोगों से कुछ नहीं कहा है बल्कि खुद से एक वादा किया है कि वे बिहार को बदल देंगे. नीतीश कुमार ने दूसरी बार भी मेरे दिल को छू लिया था. मुझे लगा कि इस आदमी में हिम्मत है.’

नीतीश ने उमर से पूछा कि वे बिहार के लिए क्या कर सकते हैं. मुख्यमंत्री का कहना था कि खाड़ी में हजारों बिहारी मजदूर हैं और उमर इस बारे में कुछ सोचें. जैसा कि उमर याद करते हैं, ‘मुख्यमंत्री ने कहा कि मैं कोई एक क्षेत्र चुन लूं और उसमें निवेश करूं.’ एक दिन बाद ही उमर के पास योजना तैयार थी. खाड़ी देशों में अकुशल श्रमिक के तौर पर काम करनेवाले करीब 10,000 बिहारी हैं. उमर ने सोचा कि क्यों न इन लोगों को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर तकनीकी शिक्षा में डिग्री दी जाए ताकि वे ज्यादा कमा सकें और बेहतर जिंदगी गुजार सकें.

मगर बिहार में सिर्फ योजना का होना कोई खास मायने नहीं रखता. योजना को जमीन पर उतारने के लिए जमीन भी चाहिए. और इसी जमीन को पाने की कहानी बिहार में खासी मुश्किलों से भरी है. इसे समझने के लिए हमें बात 1786 से शुरू करनी पड़ेगी. 1786 वह साल था जब लॉर्ड कॉर्नवालिस को भारत का गवर्नर जनरल और बंगाल का कमांडर इन चीफ बनाया गया था. कमान संभालने के बाद कॉर्नवालिस ने राजस्व व्यवस्था का ढर्रा बदलने की ठानी. यह काम बिहार से शुरू हुआ, जो तब पूर्वी भारत के बंगाल प्रांत का हिस्सा था. उसने स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था लागू की. इसके तहत जमीन को सार्वजनिक की बजाय व्यक्तिगत संपत्तियों में तब्दील कर दिया. रियासतों को गांव के गांव मुफ्त में दे दिए गए. बस उनका जिम्मा यह था कि वे उनमें रहनेवाली आबादी से टैक्स वसूल करें और जैसे भी हो सके एक तय रकम नियमित तौर पर ईस्ट इंडिया कंपनी के खजाने में पहुंचाएं. यहीं से जमींदारी प्रथा की नींव पड़ी. अब किसान अपनी जमीन के मालिक न होकर बंटाईदार थे और जमींदारों और उनके कारिंदों की मौज थी. पीढ़ी दर पीढ़ी इस जमीन का उत्तराधिकारियों में बंटवारा होता रहा. वक्त के साथ राज तो बदला मगर राज ने समाज की इस व्यवस्था में कभी दखल नहीं दिया. यह सिलसिला अब तक जारी है. यही वजह है कि बिहार में सरकार निजी निवेशकों के लिए जमीन का अधिग्रहण नहीं करती.

वापस उमर की कहानी पर आते हैं. उमर को तकनीकी शिक्षा के लिए संस्थान खोलना था और उसके लिए जमीन की जरूरत थी. मगर आप समझ ही चुके हैं कि इस मामले में सरकार क्यों कुछ नहीं कर सकती थी. उमर बताते हैं, ‘नीतीश कुमार ने  सुझाव दिया कि मैं एक आईटीआई (औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान) का अधिग्रहण कर लूं और इसे फायदे में चलाने की कोशिश करूं. हम दरभंगा गए. पता चला कि वहां तो शिक्षकों को महीनों से तनख्वाह ही नहीं मिली है. महंगी मशीनें बेकार हो चुकी थीं. साफ लग रहा था कि किसी भी आईटीआई को चलाने में बहुत मुश्किलें आएंगी. हमने सोचा कि क्यों न हम खुद ही एक इंस्टिट्यूट खोल लें. हमने एक फैमिली ट्रस्ट बनाया और दरभंगा में जमीन खरीदनी शुरू कर दी.’

यह है नया बिहार, जहां मुख्यमंत्री कारोबारियों से खुद बात करता है और चीजें बदलने लगती हैं. नीतीश कुमार जो सुधार ला रहे हैं उनमें से एक यह भी है कि प्रस्ताव अब कहीं जल्दी मंजूर हो जाते हैं

बिहार के इस हिस्से में जोतें बहुत बड़ी नहीं हैं, इसलिए अगर कोई काफी जमीन खरीदना चाहे तो उसे कई लोगों से बात करनी पड़ती है. इस प्रकार यह प्रक्रिया बड़ी जटिल हो जाती है, जिसमें थोड़ी-सी भी लापरवाही हुई नहीं कि मामला फंसा. उमर बताते हैं, ‘एक किसान अचानक तीन लाख रुपए और मांगने लगा. उसका कहना था कि उसे अपनी बेटी का दहेज चुकाना है. तब तक हम उसे उसकी जमीन के लिए तय हुई रकम भी दे चुके थे. आखिर में हमने उसे पैसे दे दिए.’
उमर के ट्रस्ट ने 15 लाख रु. प्रति एकड़ की दर से 32 एकड़ जमीन खरीदी. मगर इससे उनके लिए और मुश्किलें पैदा हो गईं. जैसा कि उमर कहते हैं, ‘छोटे कस्बों में हर चीज का हौवा बन जाता है. हमारे जमीन खरीदने के दो नतीजे हुए. पहला, लोगों को लगने लगा कि मेरे पास पैसे का पेड़ है. मेरे माता-पिता ने आगाह किया कि अब मैं अपहरण के लिए सबसे बढ़िया टारगेट हूं. हमने स्थानीय सिक्योरिटी गार्ड्स रख लिए. मगर इससे मुझे असुविधा होने लगी. मैंने अफ्रीका और श्रीलंका में लोगों को बंदूकधारी गार्डों के साथ चलते हुए देखा है और मुझे यह कभी भी अच्छा नहीं लगा. मेरी हर बातचीत गार्डों को भी पता होती थी. मैंने उन्हें हटा दिया और निजी बंदूक के लाइसेंस के लिए आवेदन कर दिया. दूसरा असर यह हुआ कि जमीनों के दाम बढ़ गए.’

दरभंगा जैसे शहर से उमर ज्यादा कुछ पाने की उम्मीद नहीं कर सकते थे, क्योंकि वह तो खुद ही अपने बोझ तले चरमरा रहा था. प्रस्तावित तकनीकी शिक्षा संस्थान तक पहुंचने के लिए सड़क की भी जरूरत थी. पिछले 22 साल से विदेश में रहते हुए उमर ने फिल्मों, टीवी और रेडियो के लिए निर्माण कार्य किया था. दरभंगा में वे एक नए तरह के निर्माण कार्य से जुड़े. जैसा कि उमर बताते हैं, ‘दरभंगा में सड़कों की हालत बहुत खराब है इसलिए हमने एक कंपनी खोली और सड़कें और इमारतें बनाने का काम शुरू कर दिया.’ ओकपेट कंस्ट्रक्शन एंड सर्विसेज नाम की यह कंपनी दरभंगा के उस हिस्से में 21 किमी सड़क बना रही है, जहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल है. इसमें उमर के 12 करोड़ रु. खर्च हो रहे हैं और उन्हें इस सड़क से दो करोड़ रुपए के मुनाफे की उम्मीद है.

हालांकि दरभंगा के अलग-अलग हिस्सों में इन दिनों जो हलचल हो रही है, उसका लेना-देना सिर्फ उमर की कंपनी से ही नहीं है. राज्य सरकार भी शहर में पुल और सड़कें बना रही है. इसके अलावा केंद्र भी राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में जुटा है. यानी गरीबों के लिए आज यहां जगह-जगह पर कुछ न कुछ काम उपलब्ध है. आखिरकार ऐसा लग रहा है कि जैसे बिहार का एक हिस्सा जागकर चलने लगा है. अब उमर यहां इतने सहज हो गए हैं कि वे फूड प्रोसेसिंग यानी खाद्य प्रसंस्करण का काम भी शुरू कर रहे हैं. उनकी इस सहजता के इस दायरे में चाय-पानी और बच्चों की मिठाई जैसे भारतीय दफ्तरों में इस्तेमाल होने वाले शब्द तक आ गए हैं. जैसा कि उमर बताते हैं, ‘मेरे कुल खर्च का सवा फीसदी हिस्सा इसी में जाता है. अगर इससे काम आसान हो जाता है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं. यूएई में मुझे सड़कों के लिए भारी-भरकम टेस्टिंग फीस चुकानी पड़ती है. यहां टेस्टिंग करने के लिए इंजीनियर रात में भी आ जाता है. ऐसे में यह जायज ही है कि उसे कुछ मिल जाए.’ उमर के मुताबिक पिछले तीन साल में उन्होंने 32 करोड़ निवेश किए हैं और उन्हें उम्मीद है कि वक्त के साथ ये वसूल हो जाएंगे.

यह है नया बिहार, जहां मुख्यमंत्री कारोबारियों से खुद बात करता है और चीजें बदलने लगती हैं. नीतीश कुमार जो सुधार ला रहे हैं उनमें से एक यह भी है कि प्रस्ताव अब कहीं जल्दी मंजूर हो जाते हैं. दूसरा बड़ा बदलाव हुआ है कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर. अब पटना में सड़कें और बाजार सर्दी के दिनों में भी रात के साढ़े आठ बजे तक गुलजार रहने लगे हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले दिन ढलते ही सड़कें सूनी हो जाती थीं. सूरज छिपने के बाद घर से बाहर रहने का मतलब था कि आपने खुद ही लूट, झपटमारी या फिर अपने अपहरण को न्योता दे दिया है. लोगों के मुताबिक पहले ट्रेन या बस से पटना लौटनेवाले यदि रात दस बजे के बाद शहर पहुंचते थे तो वे पूरी रात स्टेशन पर ही बिताकर सुबह घर जाते थे.

अब माहौल में राहत घुल गई है. इतनी कि कुछ लोग तो फिल्म का नाइट शो भी देख आते हैं और वह भी अपने पूरे परिवार के साथ. बिहार में सबसे बढ़िया कहे जाने वाले मोना सिनेमा में अब कामकाजी दिनों में भी रात के शो में खासी भीड़ रहने लगी है. फिल्मी दुनिया इससे खुश है. जाने-माने निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा यहां बड़ा निवेश कर रहे हैं. वे कहते हैं कि पटना के दिल यानी पाटलिपुत्र इंडस्ट्रियल एस्टेट में बननेवाला उनका पीएंडएम मॉल बिहार का पहला मल्टीप्लेक्स मॉल होगा. पांच मंजिलों वाली इस इमारत में 59 दुकानें और चार फिल्म थिएटर होंगे. इस जगह पर पहले बीमार औद्योगिक इकाइयां थीं. उम्मीद की जा रही है कि मार्च में जब झा की नई और चर्चित फिल्म ‘राजनीति’ आएगी तो यह मॉल भी बनकर तैयार होगा. तब यह देखने को मिल सकता है कि पटना में 1,200 लोग आधी रात को एकसाथ फिल्म देख कर घर लौट रहे हों. ज्यादा पुरानी बात नहीं जब ऐसा सोचना भी दूर की बात थी.झा कहते हैं, ‘कई सालों तक उल्टे गियर में चलती रही गाड़ी को आगे की तरफ दौड़ाने में साढ़े चार लगे हैं. अब हमें निवेश के लिए बेहतर माहौल मिल रहा है. मगर निजी क्षेत्र एक रात में ही पैदा नहीं होगा, वह भी तब जब महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु में अवसर बेहतर हों. नजरिया बदलना होगा. बिहारी ही अगर बिहार में नहीं रहेंगे तो दूसरे ऐसा क्यों करेंगे. जाति और वर्ग की समस्या से सिर्फ एक ही चीज निपट सकती है और वह है पूंजी का उत्पादन. मैं अपने हिस्से का काम कर रहा हूं. मॉल के अलावा मैंने बिहार का पहला स्थानीय न्यूज चैनल मौर्य टीवी शुरू किया है, जिसका सारा काम-काज पटना में ही हो रहा है.’

राज्य के पश्चिमी चंपारण जिले के मुख्यालय बेतिया के मूल निवासी झा, नीतीश से खुश हैं. भोजपुरी फिल्मों के सितारे रवि किशन और मनोज तिवारी भी मुख्यमंत्री की तारीफ करते हैं. 100 से ऊपर फिल्मों में काम कर चुके रवि किशन भोजपुरी में देवदास बनाने की तैयारी में हैं जिसकी पृष्ठभूमि पटना की होगी. वे पटना के पास ही एक फिल्म सिटी बनाने की भी वकालत कर रहे हैं. रवि किशन कहते हैं, ‘पहले हम शूटिंग के सिलसिले में रात में यात्रा नहीं कर पाते थे. लोग डरते थे. अब लंबे समय तक घुटन में जीता रहा यह राज्य सांस लेने लगा है. अगर हमें फिल्म सिटी मिल जाए तो मैं भरोसा दे सकता हूं कि यहां हर साल सौ भोजपुरी फिल्में बनने लगेंगी.’ अभिनेता और गायक मनोज तिवारी कहते हैं कि पहले बिहार में सरकार कलाकारों की इज्जत नहीं करती थी. वे बताते हैं, ‘पिछली सरकारों के दौर में परफॉर्मेंस के लिए मुझे मंत्रियों के फोन आते थे. वे हमें डराते थे. डर के मारे मैं उनके लिए परफॉर्म किया करता था. अब अगर सचिवालय से फोन आता है तो वे हमसे हमारी फीस और सुविधाओं के बारे में पूछते हैं. शूटिंग के लिए लोकेशन देने का काम प्राथमिकता से होता है और पुलिस सुरक्षा भी देती है.’

नीतीश हवा का रुख समझ रहे हैं और यह उनकी चाल-ढाल में भी दिख रहा है. अब वे बिहार के हीरो हैं. वे गंगा में तैरते एक जहाज में कैबिनेट मीटिंग बुलाते हैं और मीडिया उन्हें हाथों-हाथ लेता है. वे राज्य के अलग-अलग हिस्सों में डेरा डालते हैं, उसी जगह पर कैबिनेट की बैठक भी कर डालते हैं और हर कोई उनकी तारीफ करता है. उन्हें विश्वास हो चुका है कि वे भारत में पुनर्निर्माण की सबसे बड़ी इबारत लिख रहे हैं. वे यह भी मानते हैं कि वे जो भी कर रहे हैं सही कर रहे हैं. कभी लालू भी ऐसा ही सोचते थे मगर यही सोच उन्हें ऐसी दिशा में ले गई कि बिहार अंधेरे की तरफ बढ़कर उसमें खोने-सा लगा था.

लेकिन ऐसा नहीं कि उनके राज में सब-कुछ हरा ही हरा हो. वास्तविकता यह है कि ज्यादातर चहल-पहल पटना के 30 किमी के दायरे में ही सिमटी हुई है.

बिहार की खासियत है कि यहां हर बात पर हर किसी का एक नजरिया होता है. और यह इतना मजबूत होता है कि उसे डिगा पाना आसान नहीं होता. यह खासियत ही इसे राजनीतिक रूप से देश का सबसे जागरूक राज्य बनाती है. लेकिन जब सत्ता की बात आती है तो लोग राज्य के मुखिया पर ऐसे मोहित हो जाते हैं कि वही मुखिया फिर खुद को सबसे ऊपर समझने लगता है. एक समय लालू राजा थे. अब वह जगह नीतीश ने संभाल ली है. लालू जनता के आदमी थे. वे लोगों से जुड़ सकते थे, सहज बुद्धि से शासन करते थे, हाव-भाव का महत्व जानते थे. नीतीश उनसे अलग हैं. वे नौकरशाहों के चहेते हैं. वे काम कर सकते हैं. वे तर्कबुद्धि से शासन करते हैं. वे वादों को पूरा करने का महत्व समझते हैं.

लेकिन ऐसा नहीं कि उनके राज में सब-कुछ हरा ही हरा हो. वास्तविकता यह है कि ज्यादातर चहल-पहल पटना के 30 किमी के दायरे में ही सिमटी हुई है.
गया में रहने वाले निरंजन पासवान भाकपा माले (लिबरेशन) के जिला सचिव हैं. यह पटना के बाद राज्य का दूसरा सबसे बड़ा जिला है. गया में एक हवाई अड्डा भी है जो यहां आने वाले पर्यटकों की सुविधा के लिए बनाया गया है. पासवान जिस इलाके में काम करते हैं वह बिहार के सबसे बदहाल इलाकों में से है. ऐसी जगह में गरीबों के बीच काम करते हुए उन्हें बिहार में कोई खास बदलाव नहीं दिखता. वे कहते हैं, ‘हमारे लिए यह हमेशा से ऐसा ही है. हम भूख से मर रहे लोगों के बारे में सुनते हैं, वहां जाते हैं, इसपर आवाज उठाते हैं. लेकिन प्रशासन कह देता है कि मौत बीमारी से हुई है. हमें बताइए कि क्या बदला है?’

गया के डोभी प्रखंड का गाजीचक गांव पटना की तुलना में कम से कम एक सदी पीछे लगता है. रविवार की दोपहर है. हमें एक लड़का नजर आता है जो मरी हुई बकरी की खाल का कोई हिस्सा लिए हुए है. पास जाने पर नजर आता है कि यह टांगों का हिस्सा है. लड़का सावधानी से इसमें सूखी हुई घास भर रहा है. कुछ और बच्चे भी जमा हो गए हैं. पासवान कहते हैं, ‘अब वे इसे पकाएंगे.’ अंदर भरी घास में लगी आग मांस को भीतर से पकाएगी और बाहर का हिस्सा आग से सीधा ही पक जाएगा. यह उनके आज के दिन का खाना है. यहां से बाहर की दुनिया के लिए खाल एक बेकार की चीज है जो फेंक दी जाती है, लेकिन यहां यही स्वादिष्ट व्यंजन है.

इसी गांव में रहती हैं कुंवा देवी. उनके चार बच्चे हैं, तीन बेटियां और एक बेटा. वे अपनी उम्र 35 साल बताती हैं. मई, 2009 में भूख से मरने से पहले उनके पति खेतों में काम करते थे. कुंवा देवी बताती हैं कि उनके पति को बुखार था और स्थानीय झोला छाप डॉक्टर ने उसे मलेरिया बताया था. उनके पास दवा खरीदने लायक पैसा नहीं था. गांव वालों ने आपस में पैसे जमा किए और आखिरकार उन्हें दवा नसीब हुई. लेकिन कुंवा देवी के घर में खाने की चीजों की बेहद कमी थी क्योंकि उनके पति बीमारी की वजह से काम ही नहीं कर पा रहे थे. वे बताती हैं कि पति ने खाना बंद कर दिया था ताकि बच्चे खा सकें. उनके शब्दों में, ‘हम जंगल से घास लाकर उन्हें खिलाते थे. लेकिन इससे क्या होता है.’

पासवान बताते हैं कि कुंवा देवी के पति भूख से मर गए. लेकिन प्रशासन ने कहा कि मौत बीमारी से हुई. कुंवा का परिवार झोंपड़ीनुमा तीन कोठरियों में रहता है, कुल जमा संपत्ति है कुछ बरतन और एक छोटे थैले में भरे मोटे चावल. ये चावल उन्हें खेत पर काम करने के बदले मिले हैं. मजदूरी के रूप में उन्हें पैसा नहीं मिलता. जैसे-तैसे वे अपने बच्चों के लिए मांड़-भात का ही जुगाड़ कर पाती हैं. एक टहनी चुभने के बाद उनकी बाईं आंख की रोशनी भी जाती रही. उनके परिवार में कोई चप्पल नहीं पहनता. बच्चे कई दिनों से नहाए नहीं हैं और चीकट बाल लिए घूम रहे हैं.

पासवान की पार्टी के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य हमें पटना के वीरचंद पटेल मार्ग स्थित अपने कार्यालय में मिलते हैं. अधिकतर पार्टियों के मुख्यालय इसी सड़क पर हैं. भाकपा माले के पड़ोस में भाजपा का कार्यालय है. दीपंकर के आने से पहले तेज बूंदाबांदी हुई है, इसलिए कार्यालय में आग जल रही है. उनकी पत्नी और बेटी लंदन में रहती हैं और वे यहां बिहार के बेहद गरीब लोगों की बेहतरी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनकी पार्टी के विधानसभा में पांच विधायक हैं. वे कहते हैं, ‘यह कहना गलत होगा कि पिछले पांच वर्षों में कोई बदलाव नहीं हुआ है. लालू का 15 वर्षों का कार्यकाल ठहराव का पर्याय बन गया था. अब बड़े अपराधों में कमी आई है. अपराधों का कुछ-कुछ राष्ट्रीयकरण हुआ है. बड़े अपराधी ट्रांसपोर्ट के जरिए कमा रहे हैं. अगर आपके लिए सरकार का खजाना खुला हुआ हो तो आप लूट-पाट और अपहरण क्यों करेंगे? इस दौरान विमर्श के विषय भी बदले हैं. अब सामाजिक न्याय और सम्मान की जगह सुशासन और विकास ने ले ली है…लेकिन एक बड़ी समस्या है. बिहार में सामंतवाद अब भी मजबूत है. सरकार भूमि सुधार लागू करने का दिखावा भर करेगी मगर असलियत में ऐसा नहीं होगा. सामाजिक रूप से भी बहुत थोड़ी ही प्रगति हुई है. बदलाव यों ही नहीं आता. उसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. छोटे बदलाव के लिए भी बड़ा संघर्ष जरूरी होता है.’

जानकार और इस क्षेत्र पर नजर रखनेवाले भी बिहार की वृद्धि दर के ताजा आंकड़ों से हैरत में पड़ गए हैं. पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एनके चौधरी विश्वविद्यालय शिक्षकों की हड़ताल का हवाला देते हैं. वे पूछते हैं कि अगर सब-कुछ इतना ही अच्छा है तो क्या आप ऐसी किसी हड़ताल की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें विश्वविद्यालय के शिक्षकों की एकमात्र मांग यह हो कि उन्हें समय पर वेतन मिल जाए? बिहार के दूसरे अनेक लोगों की तरह चौधरी भी केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ), नई दिल्ली द्वारा जारी किए गए बिहार के 11.3 प्रतिशत वृद्धि दर वाले आंकड़े पर चकित हैं. इस आंकड़े ने भारी हलचल पैदा कर दी है. यह आंकड़ा आने के बाद लोगों ने बिहार को एक नए नजरिए से देखना शुरू किया है. लोग अब बिहार की तुलना गुजरात से करने लगे हैं.

लेकिन चौधरी को यह कोरी कल्पना ही लगती है. वे कहते हैं, ‘हकीकत में इतनी वृद्धि नहीं हो सकती क्योंकि बिहार जादुई अर्थव्यवस्था नहीं है. सांख्यिकी विभाग के मुखिया प्रणव सेन के यह कहने के बाद कि ये आंकड़े सीएसओ के नहीं हैं, इनका आधार कमजोर हो गया है. नीतीश द्वारा किया गया प्रचार औंधे मुंह गिर गया है. इतने अच्छे आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है. यह तो ऐसा हुआ जैसे आपने किसी भिखारी को अचानक यह कह दिया कि तुम अमीर बन गए हो. अगर आप बहुत नीचे से शुरू कर रहे हों तो आगे की ओर एक छोटा कदम भी बड़ी बात होती है.’

दरअसल, बिहार पिछले साठ साल से लगभग जमा हुआ था. कम से कम पिछली तीन पीढ़ियों से वहां काम-धंधों का कोई इतिहास नहीं. कोई नवजागरण नहीं, कोई उद्योग नहीं.

चौधरी कहते हैं कि बिहार कुछ के लिए चमकदार हो सकता है लेकिन बाकियों के लिए यह अब भी काफी पिछड़ा है. उनके हिसाब से स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था और सड़कों के क्षेत्र में कुछ सुधार हुआ है. लेकिन जिन क्षेत्रों में कोई सुधार नहीं हुआ है उनकी सूची कहीं लंबी है. वे बताते हैं कि यहां नौकरशाही को अपार ताकत मिली हुई है, कानून का कोई शासन नहीं है, भूमि सुधार नहीं है, जल संसाधन प्रबंधन नहीं है उच्च शिक्षा की समुचित सुविधा नहीं है. इसके उलट सरकारी धन के अधिक प्रवाह के कारण भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और सरकार रिश्वत लेनेवाले नौकरशाहों पर लगाम नहीं लगा पा रही है. इसके साथ ही पलायन भी बढता जा रहा है.

दरअसल, बिहार पिछले साठ साल से लगभग जमा हुआ था. कम से कम पिछली तीन पीढ़ियों से वहां काम-धंधों का कोई इतिहास नहीं. कोई नवजागरण नहीं, कोई उद्योग नहीं. असमानता यहां हद दर्जे तक है. लेकिन इसके बावजूद लोगों की आंखों में एक उम्मीद दिखती है. यही वह बात है, जिससे यह संभावना जगती है कि बिहार इस बार शायद एक लंबी दौड़ के लिए खुद को तैयार कर रहा है.

एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) के सदस्य सचिव शैवाल गुप्ता का मानना है कि हालिया घटनाओं का महत्व है. ‘नीतीश कुमार इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं? वे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने बिहार में शासन के अभाव को गंभीरता से लिया. उन्होंने शासन का ढांचा खड़ा करने में थोड़ी सफलता पाई है. वे पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने प्रशासनिक सुधार आयोग, भूमि सुधार आयोग आदि बनाए. वे ऐसा माहौल बना रहे हैं जिसमें प्रकाश झा जैसी शख्सियतें काम कर सकें. अब यह शर्मीले समाज के बजाय सक्षम समाज के रूप में आगे बढ़ रहा है.’

बिहार फाउंडेशन के जरिए भी बिहार चर्चा में आ रहा है. राज्य सरकार के तहत काम कर रही इस फाउंडेशन का काम है ‘बॉंडिंग और ब्रांडिग’ यानी लोगों को जोड़ना और राज्य की छवि निखारना. देश-विदेश में इसकी शाखाएं हैं. देश में मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरु में तो देश के बाहर दुबई, दोहा और दक्षिण कोरिया में. ये शाखाएं अपनी जड़ों की पहचान करने और बिहार के लिए कुछ करने में प्रवासी बिहारियों की मदद करती हैं.

अपनी जड़ों से जुड़ाव एक ऐसी चीज है जो बड़ों-बड़ों की संवेदना छू लेती है. जैसे भारत में मॉरीशस के उच्चायुक्त मुखेसुर चूनी बिहार का जिक्र छिड़ने पर भावुक हो जाते हैं. वे मॉरीशस को बिहार का एक विस्तारित हिस्सा ही मानते हैं. बिहार की प्रगति पर गर्वित होते हुए चूनी कहते हैं, ‘लोग अकसर मुझसे पूछते हैं कि क्या आप बिहार के उच्चायुक्त हैं. मॉरीशस के प्रधानमंत्री का संबंध बिहार से है और बिहार तथा उत्तर प्रदेश के लोग मॉरीशस को चला रहे हैं.’ मॉरीशस के सार्वजनिक संरचना, भूपरिवहन और जहाजरानी मंत्री अनिल कुमार बच्चू भी बिहार के बारे में भावुक होकर बात करते हैं. वे कहते हैं, ‘1970 के दशक में जब मैं दिल्ली में पढ़ रहा था, मेरे सीनियर मुझसे कहते थे कि बिहारियों से संपर्क मत रखो क्योंकि वे पिछड़े हैं और कभी कामयाब नहीं हो सकते. अभी कुछ हफ्ते पहले मेरे प्रधानमंत्री ने मुझसे कुछ बिहारियों को बुलाने के लिए कहा. हमने मॉरीशस में वे सब चीजें संजो कर रखी हैं जो उन्होंने बिहार में खो दी हैं. मॉरीशस छोटा बिहार है. हमारे रिश्ते इतने गहरे हैं कि उन्हें बिहार में सर्दी लगती है तो हमें यहां छींक आती है. हमें अपनी जड़ों से प्यार है. बिहार सभ्यता का स्रोत था और यही भविष्य के भारत का नेतृत्व करेगा.’

लेकिन ऐसा हो इसके लिए अभी बहुत-सी कोशिशों की दरकार है. हालांकि उम्मीद की छोटी-छोटी किरणों कई हैं जो यह बताती हैं कि ईमानदारी और कड़ी मेहनत से बिहार बदल सकता है. राकेश शर्मा को ही लीजिए जो एक व्यवसायी हैं और पटना में शादियों के लिए सामुदायिक भवन किराए पर देते हैं. उनकी रसोई गैस की एजेंसी भी है. वे बताते हैं कि बिजली कटौती के कारण पिछले साल नवंबर-दिसंबर में उनके जेनरेटर में मात्र 20 लीटर डीजल की खपत हुई जबकि 2008 में यह आंकड़ा 200 लीटर था.

यही छोटी-छोटी कहानियां बड़े स्तर पर दोहराकर नीतीश एक नया बिहार बनाना चाहते हैं. लंबे समय से बदहाल यह राज्य आज हर मामले में पेंदी पर है. और नीतीश इतिहास लिखने की राह पर. अगर वे इस पेंदी से राज्य को जरा भी और ऊपर उठा सके तो.