हिरानी के अपने जीवन की पटकथा में ‘3 इडियट्स’ की सफलता वाला दृश्य कोई मायने नहीं रखता. उनके लिए सफलता के मायने अपने जीवन के अधिक व्यक्तिगत और दिल को हौले से छू लेने वाले क्षणों में छिपे हैं. जैसे वह क्षण जब उन्होंने पहली बार अपने पिता से कहा था कि वे एकाउंटेंट न बनकर फिल्में बनाना चाहते हैंसफलता पर आम से अलग रुख रखना हमेशा से ही मुश्किल काम रहा है. बाजार के इस दौर में तो यह और भी मुश्किल है. आज सफलता के मायने हैं शोहरत और पैसा. चलन कहता है कि इसके अलावा सफलता की कोई और माप हो ही नहीं सकती. एक ऐसे व्यक्ति के लिए तो बिलकुल भी नहीं जो पैसे और परंपराओं को बहुत महत्व देने वाले सिंधी समुदाय से आता हो. मगर जब हम बॉलीवुड की अब तक की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म बनाने वाले राजू हिरानी से पूछते हैं कि उनके लिए सफलता के मायने क्या हैं तो 44 साल के इस शख्स की असाधारणता की परतें एक-एक कर खुलने लगती हैं. उनकी नई फिल्म ‘3 इडियट्स’ पहले 20 दिनों में ही 350 करोड़ रुपयों से ज्यादा कमा चुकी थी जो इससे पहले के रिकॉर्ड वाली फिल्म गजनी के मुकाबले दुगुनी रकम है. आंकड़ों को छोड़िए, इस फिल्म ने समाज में सोई हुई एक भावना को जगा दिया है और ‘ऑल इज वेल’ पिछले महीने का राष्ट्रीय नारा बना रहा.
फिर भी अविश्वसनीय ढंग से तहलका के दफ्तर के नीचे एक कॉफ़ी शॉप में बैठे, अपनत्व और नरमी से भरे हिरानी इस विराट सफलता से बेअसर लगते हैं. अपने स्टारडम के बावजूद मेरी सुविधा के लिए वे शहर भर के ट्रैफिक से गुजरकर खुशी से यहां तक चले आए हैं. आम तौर पर इंटरव्यू लेने वाले को ही स्टार के पास जाना पड़ता है. 20 साल से भी पहले हिरानी ने एफ़टीआईआई (फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे) के अपने कमरे के एकांत में उत्तेजना से कांपती हुई उंगलियों से अपनी ऑटोग्राफ बुक में हस्ताक्षर किए थे: राजू हिरानी: एडिटर, निर्देशक, निर्माता, 1988. उस क्षण सारा संसार मानो उनके आगे सर झुकाकर खडा़ था और उन्हें पूरा भरोसा था कि उन्हें उसे जीतने से कोई नहीं रोक सकेगा. उनका खुद पर जताया वह भरोसा आज सही साबित हो चुका है.
लेकिन हिरानी के अपने जीवन की पटकथा में ‘3 इडियट्स’ की सफलता वाला दृश्य कोई मायने नहीं रखता. उनके लिए सफलता के मायने अपने जीवन के अधिक व्यक्तिगत और दिल को हौले से छू लेने वाले क्षणों में छिपे हैं. जैसे वह क्षण जब उन्होंने पहली बार अपने पिता से कहा था कि वे एकाउंटेंट न बनकर फिल्में बनाना चाहते हैं. वह क्षण जब उन्हें एफ़टीआईआई में चुन लिए जाने का टेलीग्राम मिला था या जब उन्होंने चेखव की कहानी ‘द बेट’ पर 5 मिनट की अपनी पहली फिल्म बनाई थी. पलायन, पहचान और कुछ अनोखा ही पा जाने के क्षण जो उनकी फिल्मों को दृढ निश्चय और भोगे गए तनाव के सच्चे-से रंगों से भर देते हैं.
‘आप सोच नहीं सकतीं कि नागपुर के एक सिंधी लड़के को कैसा लगा होगा जब उसके पिता ने उसे आजाद कर दिया. मैं बहुत डरा हुआ था और बाद में उतना ही निश्चिंत भी. मैं तुरंत छत पर गया और पतंग उड़ाता रहा’, हिरानी कहते हैं. इस घटना का असर उन पर इतना गहरा है कि उनकी फिल्मों में भी डर और आजादी का यह भावनात्मक द्वंद्व बार-बार दिखाई देता है. चुना गया रास्ता और छोड़ा गया रास्ता और उन दोनों के नतीजे. फिर वह चाहे 3 इडियट्स में वायरस के बेटे की आत्महत्या हो या फरहान का अपने पिता से यह कहना कि वह इंजीनियर नहीं, फोटोग्राफर बनना चाहता है. हंगरी से फरहान के लिए आई बुलावे की चिट्ठी हो या लद्दाख में अपना हाई स्कूल चलाने वाले रैंचो की खुशी. उनका उस चमत्कार में अडिग विश्वास आज उनके काम में हर जगह झलकता है, जिसने उन्हें फिल्में बनाने की आजादी और पढाई में कम नंबरों वाली उधार की जिंदगी से मुक्ति दी. इसीलिए वे आपको अपने दिल की बात सुनने वाले पुराने संदेश पर नया-नकोर विश्वास दिला पाते हैं.
उनकी सभी फिल्मों में अनिवार्य रूप से मौजूद शिक्षा देने वाले तत्व शायद इस तथ्य से भी उपजे हैं कि अपने काम को लेकर तो वे भाग्यशाली रहे मगर अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में वे उस रास्ते के छूटने के दर्द को भी जानते रहे जिसपर लाख चाहने के बावजूद वे नहीं चल पाए. जीवन के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर – जिसके बारे में वे ज्यादा लोगों को बताना नहीं चाहते – उन्होंने दिल की बजाय दिमाग को तरजीह दी. उस फैसले से जुड़ा अकेलापन और दर्द आज भी उनका पीछा नहीं छोड़ता. इसी याद से जुड़ी पीड़ा ‘3 इडियट्स’ बनाने को और भी जरूरी बनाती है.
हिरानी के साथ फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने वाले अभिजात जोशी उन्हें दूसरे ग्रह से आया प्राणी बताते हैं क्योंकि धरती पर इतना आशावाद और बचपना कहीं और मिलना बेहद मुश्किल है. उनकी फिल्मों में बार-बार दिखने वाली मानवीय स्वभाव की अच्छाई के कारण आमिर उनकी तुलना निर्देशक फ्रैंक कापरा से करते हैं. उनकी छोटी बहन अंजू और निर्देशक श्रीराम राघवन, जिनके घर में वे मुंबई में आते ही ठहरे थे, उन्हें पक्का शरारती बताते हैं. विधु विनोद चोपड़ा उनकी ईमानदारी का गुणगान करते नहीं थकते.
आप उनकी फिल्मों के बारे में फिर से सोचें तो मुख्य कहानी के साथ आपको दर्जनों छोटी-छोटी कहानियां दिखाई देंगी- लालच, माता-पिता के प्रति असंवेदनशीलता, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, परंपराओं से गुलामों की तरह बंधे रहना, माता पिता के दबाव. हिंदी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और शरद जोशी उनकी प्रेरणा हैं
एक कॉफ़ी पीते-पीते ही वे अपने विख्यात हास्यबोध की झलक आपको दिखा देते हैं. हम फिल्म से जु़ड़े कई विवादों की बात कर रहे हैं. पहले चेतन भगत ने आरोप लगाए कि उनके उपन्यास से प्रेरणा लेने के बावजूद उन्हें पर्याप्त श्रेय नहीं दिया गया. फिर महाराष्ट्र के एक कॉलेज में रैगिंग का मामला उछला जिसके बारे में खबरें आईं कि यह थ्री इडियट्स से प्रेरित था और सरकार इसकी जांच करने की योजना बना रही है. हिरानी हँसते हुए कहते हैं, ‘कुछ दिनों बाद सबके पादने के लिए भी मुझे जिम्मेदार ठहराया जाएगा’ (इशारा शायद थ्री ईडियट में चतुर नाम के एक पात्र की तरफ है जो अपनी इस आदत की वजह से बदनाम है).
उनकी यही खुशमिजाजी उनकी सब फिल्मों को जीवन के प्रति गहरी आस्था से भर देती है. लेकिन उनकी तीनों फिल्मों के खलनायक बोमन ईरानी अचंभित-से होते हुए कहते हैं, ‘मुझे तीनों फिल्में पसंद आईं और उनकी इतनी सफलता देखकर मैं रोमांचित हूं, परन्तु यदि आप मुझसे पूछें कि हमें भगवान की जगह क्यों बैठाया जा रहा है तो मेरे पास उसका कोई उत्तर नहीं होगा.’ यह दुविधा भी अपनी जगह जायज ही है. हिरानी की फिल्में किसी भी मायने में धारा से अलग नहीं हैं. हिरानी खुद अपने सिनेमा को फीलगुड सिनेमा कहते हैं. छोटे घावों के लिए उनके पास छोटे-छोटे मरहम हैं और फिल्म के शुरू होने से पहले ही आप जान जाते हैं कि आखिर में जीत अच्छाई की ही होगी. इसीलिए ऊपरी तौर पर उनकी फिल्मों की इस चमत्कारिक सफलता का कोई कारण नहीं दिखता. न तो उनमें बड़े चुटकुले हैं और न ही गिरने-पड़ने वाला हास्य. न ही यह मुन्नाभाई और उसके वफादार प्यारे साथी सर्किट का असर है और न ही बुद्धिमान और नटखट रैंचो का. ये सब यदि अलग-अलग होते तो बॉलीवुड की वैसी ही कॉमेडी बनकर रह जाते जिन्हें आसानी से भुलाया जा सकता है. दरअसल, उनकी फिल्मों की अंदरूनी परत में असामान्य नैतिक क्रोध छिपा है, इसीलिए आप उन्हें देर तक अपने साथ चलते देखते हैं.
आप उनकी फिल्मों के बारे में फिर से सोचें तो मुख्य कहानी के साथ आपको दर्जनों छोटी-छोटी कहानियां दिखाई देंगी- लालच, माता-पिता के प्रति असंवेदनशीलता, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, परंपराओं से गुलामों की तरह बंधे रहना, माता पिता के दबाव. हिंदी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई और शरद जोशी उनकी प्रेरणा हैं. हिरानी मानते हैं कि आजकल के दशर्क नंगी सच्चाइयों को सीधा नहीं देखना चाहते. इसीलिए अपने आक्रोश को चुटकुलों और रोशनी से भरी इस फील गुड पटकथा में बदलने के लिए उन्हें और अमेरिका में रहने वाले जोशी को तीन साल लगे. इस प्रक्रिया में वे मध्यमवर्ग की भ्रष्टता को आईना दिखाते हैं और मध्यमवर्ग अनजाने में ही प्रेरणा पाकर खुद को हल्का-सा बदल भी लेता है.
यह भी मजेदार है कि उनकी फिल्मों में घटने वाली बहुत-सी घटनाएं उनकी अपनी जिंदगी से आई हैं. उनकी पायलट पत्नी मंजीत एक दफा बहुत बीमार थी. एक नामी अस्पताल का डॉक्टर उनसे बहुत बेरुखी से पेश आ रहा था. उन्हें डॉक्टरी हिदायतें देते हुए ही वह लगातार फोन पर बातें किए जा रहा था. हिरानी याद करते हैं, ‘मुझे इतना गुस्सा आया कि मैंने उसका फोन छीनकर उसकी मेज पर पटक दिया.’
ऐसे ही कई हृदयहीन डॉक्टरों से होते हुए ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ निकली. लेकिन जब इसकी पहली कहानी उन्होंने अपने दोस्तों को सुनाई तो सबका यही कहना था कि इसे कोई नहीं देखेगा. उन्होंने फिर से लिखना शुरू किया और जब तीन साल बाद यह फिर से तैयार थी तब गुस्से की कुनैन के ऊपर गुड़ की मिठास थी और वह दवा न रहकर जादू की झप्पी बन गई थी. किसी व्यंग्यकार को मीठा बताना उसे अपना अपमान लग सकता है, किंतु यह तो कहा ही जाना चाहिए कि हिरानी अपनी चिंता को ऐसा मीठा स्वरूप देने में कामयाब हुए हैं जो बेफिक्र शहरी युवाओं को बिना बोर किए नैतिक शिक्षा के पाठ पढ़ा सकती है.
कई मायनों में हिरानी के पिता उनके काम और जिंदगी की केंद्रीय प्रेरणा हैं. वे ही वह नैतिक पैमाना हैं जिससे हिरानी अपना उत्थान और पतन नापते रहे हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा ज्यादातर सिनेमा उनके स्वभाव से ही उपजा है.’ सुरेश हिरानी विभाजन के बाद भारत में शरणार्थी के रूप में आए. उनकी उम्र चौदह साल थी, उनके पिता की मृत्यु हो चुकी थी, आठ भाई-बहन थे और मां अनपढ़. परिवार की जिम्मेदारी संभालने के लिए सुरेश ने फिरोजाबाद में चूड़ियों की एक फैक्टरी में मजदूरी की, साइकिल पर आइसक्रीम बेची और आखिर में नागपुर के एक जनरल स्टोर में सामान पहुंचाने का काम करने लगे. धीरे-धीरे उन्होंने कुछ पैसे बचाकर दो टाइपराइटर खरीदे और एक टाइपिंग इंस्टिट्यूट खोला. फिर उन्होंने स्पेयर पार्ट्स का काम भी शुरू कर दिया. अपने संयुक्त परिवार को संभालने के लिए सुरेश दिन में काम करते थे और शाम की कक्षाओं में पढ़ाई. इसी तरह उन्होंने एलएलबी तक की पढ़ाई पूरी की. यह पूछने पर कि कुछ बड़ा करते रहने की यह प्रेरणा उन्हें कहां से मिलती थी, वे जवाब देते हैं, ‘मेरी कल्पनाशक्ति ही मेरी प्रेरणा थी. मैंने फिल्मों से बहुत-कुछ सीखा. खासकर देव आनंद की फिल्मों से. शायद मैं भी फिल्मों में चला गया होता, मगर मेरे सामने पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी.’
परिवार के लिए अपनी इस इच्छा की बलि देने के कारण ही शायद उन्होंने अपने बेटे को पूरी स्वतंत्रता दी. वे कहते हैं, ‘मेरी पत्नी हमेशा मुझे बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कहती थी, लेकिन मैं हमेशा उनकी रुचियों का खयाल रखता था.’ जब राजू ने उनसे कहा कि वह एकाउंटेंसी की जगह सिनेमा सीखना चाहते हैं तो उन्होंने तय कर लिया था कि वे उसे आजाद छोड़ देंगे. हिरानी कहते हैं, ‘मेरे पिता ने ही मुझे एफ़टीआईआई जाने को कहा. अस्सी के दशक में नागपुर का एक सिंधी आदमी उस इंस्टिट्यूट के बारे में जानता था, यह मुझे आज भी बहुत बड़ी चीज लगती है. रिश्तेदार पूछा करते थे कि फिल्म एडिटिंग का क्या मतलब है तो वह कभी जवाब नहीं दे पाते थे. मगर उन्होंने मुझे कभी नहीं रोका.’
सुरेश के आम लोगों से अलग होने का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने टाइपिंग इंस्टिट्यूट में नियमित रूप से आने वाली अध्यापिका शीला को इसलिए अपनी जीवनसाथी के रूप में चुना क्योंकि वे अपनी आगे की पीढ़ियों का मानसिक स्तर बदलना चाहते थे. मुंबई में अपने बेटे के घर में बैठे हुए वे फोन पर कहते हैं, ‘अगर आप सिंधी हैं तो आपके आस-पास के सब लोग केवल पैसे की बातें ही करते हैं. अभी कुछ देर पहले ही मेरे एक दोस्त ने मुझे फोन किया और वह सिर्फ यही बात करता रहा कि उसने अपनी बेटी के लिए अरबपति ढूंढ़ लिया है.’ हिरानी कहते हैं, ‘मेरे पिता एक सच्चे बुद्धिजीवी हैं. वे तर्क का साथ देते हैं और प्रगतिशील हैं. मुझे यह सब उन्हीं से मिला है.’ लेकिन उनका मुख्य गुण, जो हिरानी के सिनेमा में बार-बार दिखता है, ईमानदारी है. ‘वे अन्याय या भ्रष्टाचार बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकते. अगर उन्हें लगेगा कि थोड़ा-बहुत भी ऐसा हो रहा है तो वे धड़धड़ाते हुए पुलिस कमिश्नर के दफ्तर में पहुंच जाएंगे, रिश्तेदारों को डांटने लगेंगे और समाज के बड़ों से झगड़ बैठेंगे.’
सुरेश हँसते हुए सहमत होते हैं, ‘मैं बहुत लड़ाकू था. मैं बहुत बुरा-भला कह देता था और कभी-कभी तो मारपीट तक की नौबत आ जाती थी. मैं कुछ-कुछ मुन्नाभाई जैसा था.’ मुन्नाभाई एमबीबीएस का शुरु आती दृश्य, जिसमें मुन्ना के पिता की जेब एक जेबकतरा काट लेता है, हिरानी के पिता के साथ घटी एक सच्ची घटना है. हिरानी याद करते हैं, ‘मुझे लगता है जैसे यह कल की ही बात है.’ रायपुर के एक ठग ने कोई झूठा बहाना बनाकर उनके पिता से 2000 रूपए ऐंठ लिए थे. जब सुरेश हिरानी को इसका पता चला तो वे चुप नहीं बैठे. ‘वे सुबह पांच बजे उठ गए और तब तक शहर भर के होटल छानते रहे जब तक उसे खोज नहीं लिया. फिर वे उसे सिंधी पंचायत में ले गए ताकि उसे उचित सजा दी जा सके. वहां कोई बुजुर्ग उसे मारने लगे तो मेरे पिता ने उन्हें तुरंत रोक दिया. उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों को फटकार लगाई और कहा कि वे सब के सब चोर हैं. कोई इनकम टैक्स की चोरी करता है और कोई क़ानून तोड़ता है. उन्होंने कहा कि उस ठग और उनमें इतना ही फर्क है कि वह ठग बेवकूफ है और वे सब चालाक हैं. फिर उन्होंने उस चोर के लिए टिकट खरीदा और उसे रायपुर की ट्रेन में बिठा दिया.’
राजू के पिता की आत्मा उनकी फिल्मों में कहीं गहरे बैठी हुई है. उनकी फिल्मों में किसी को बिलकुल अकेला नहीं छोड़ा जाता और न ही किसी अपरिचित से नफरत ही की जाती है. यहां तक कि उनके तीनों खलनायक – डॉक्टर अस्थाना, सरदार लकी सिंह और प्रोफेसर वायरस – बहुत प्यार करने वाली बेटियों से घिरे हुए हैं. ‘3 इडियट्स में हिरानी थोड़े अधिक उपदेशात्मक हो गए हैं. इसका नायक रैंचो एक बिलकुल श्वेत चरित्न है (हालांकि आमिर ने उसे खूबसूरती से निभाया है) जो कोई गलती नहीं कर सकता. शराब पीकर भी वह शिक्षण व्यवस्था की कमियों और अपने दिल की बात मानने की बात ही करता है. उसका शरारती होना ही उसे थोड़ा सामान्य बनाता है. मगर जो भी हो, जो पिता नहीं कर पाए, उसे बेटे ने कर दिखाया है. अपनी नैतिकता की कीमत चुकाने से बचने के लिए उसने हंसी का कवच पहनना सीख लिया है. मैं राजू से फिर से पूछती हूं कि सफलता का उनके लिए क्या अर्थ है और वे अपनी चमत्कारिक सादगी से कहते हैं, ‘मुझे डर लगता है कि इसके बाद लोग मुझे सच नहीं बताएंगे, मुझे सच्ची प्रतिक्रियाएं नहीं मिलेंगी और मुझे केवल इसीलिए महत्व दिया जाएगा क्योंकि मैंने तीन हिट फिल्में दी हैं. ऐसा न हो, इसके लिए मुझे कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.’
इस मेहनत की शुरुआत करने के लिए राजू और जोशी अपने आसपास की चकाचौंध से दूर असली भारत को देखने जा रहे हैं. वे कहते हैं, ‘हम लोगों से बातें करेंगे, सच्चे अनुभव सुनेंगे. हम अपने आप को दोहराने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते.’ यद्यपि वे ऐसा न होने देने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, फिर भी उनका सबसे बड़ा डर यही है. उदाहरण के लिए, उनके सामने ‘मुन्नाभाई चले अमेरिका’ बनाने का विकल्प है. जब उन्होंने पहला सीक्वल बनाया था तो वह सबकी उम्मीदों से परे था. अब यह देखना है कि वे फिर से ऐसा कर पाते हैं या नहीं. 44 की उम्र में, जब उनके सबसे अच्छे साल अभी आने बाकी हैं, यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि हिरानी किस तरह की फिल्में बनाएंगे. लेकिन आप फिर भी अनुमान लगाना चाहें तो सोचने की शुरुआत यहां से की जा सकती है कि वे फिल्में जैसी भी होंगी, उनकी आत्मा पिता और पुत्न के नैतिक दृष्टिकोण के आसपास या बीच में ही कहीं होगी.’