शब्दों की एक बेतकल्लुफ दुनिया

फर्गुसन गर्मजोशी से आपको एक किनारे ले आते हैं. अब आपके सामने मुद्रा के इतिहास, कूटनीति, युद्ध और वैश्वीकरण का एक विशेषज्ञ खड़ा है, जिसके पास आपके सवालों का जवाब देने के लिए समय की कोई कमी नहीं है 

आप किसी स्टॉल पर एसेंट ऑफ मनीया रात पश्मीने कीके पन्ने पलट रहे हों और अपने पीछे गुजरनेवाले किसी आदमी पर यों ही आपकी नजर जाए. चौड़ीसी मुस्कान बिखेरते नील फर्गुसन या कोई नज्म गुनगुनाते गुलजार. आप अवाक हैं. आप उन्हें पकड़ते हैं और पूछते हैं कि किताब के अमुक पन्ने पर जो आपने यह बात लिखी है, उसका क्या मतलब है. फर्गुसन गर्मजोशी से आपको एक किनारे ले आते हैं. अब आपके सामने मुद्रा के इतिहास, कूटनीति, युद्ध और वैश्वीकरण का एक विशेषज्ञ खड़ा है, जिसके पास आपके सवालों का जवाब देने के लिए समय की कोई कमी नहीं है. इस धरती पर कहीं आपके साथ ऐसी घटना घटे तो समझ लीजिए, आप जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हैं.

जाती हुई सर्दियों की गुलाबी धूप के बीच 1860 में बने शानदार दिग्गी पैलेस के लॉन में चर्चित हिंदी कवि अशोक वाजपेयी को चौथी क्लास के बच्चे आकर घेर लेते हैं. उन्हें ऑटोग्राफ देते हुए वाजपेयी अपने बचपन के दिन याद करते हैं, जब उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी के ऑटोग्राफ लिए थे. वे इस आयोजन में युवाओं और बच्चों की भागीदारी से चकित हैं. वे कहते हैं, ‘यह तो अद्भुत है. इतने शानदार और सुव्यवस्थित आयोजन की कल्पना करना मुश्किल है.’

वाजपेयी सही हैं. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल कई मायनों में अनोखे अनुभवों से भर देता है. इसके जरिए हजारों साहित्य प्रेमी देश और दुनिया से आए दर्जनों मशहूर लेखकों से रूबरू हुए हैं. पांच दिनों तक हर घंटे चार परिचर्चाओं में वोले शोयंका, हनीफ कुरैशी, नील फर्गुसन, लुईस बर्नियर्स, मार्क टुली, अमिताभ कुमार, विक्रम चंद्रा, स्टीव कोल और क्रिस्टोफ जफरलो आदि ने अपनी किताबों के उद्धरण सुनाए. लोगों ने उनसे सवाल भी किए. इनमें कृष्ण बलदेव वैद, गुलजार, ओम प्रकाश वाल्मीकि, अशोक वाजपेयी, अजय नावरिया और शीन काफ निजाम जैसी हिंदीउर्दू की जानीमानी हस्तियां भी शामिल थीं. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल एक ही साथ दुनिया के अधिकतर स्थापित और नए लेकिन महत्वपूर्ण लेखकों से सीधे संवाद का मौका देता है. अंतरराष्ट्रीय साहित्य के इस भव्य उत्सव में दुनिया के सर्वाधिक चर्चित लेखकों की मौजूदगी के बावजूद कोई औपचारिकता नहीं है. पूरे आयोजन स्थल में कहीं भी किसी भी लेखक से मिला जा सकता है और उससे बात की जा सकती है. कार्यक्रम के निदेशक और प्रख्यात अंग्रेजी लेखक विलियम डेलरिंपल कहते हैं, ‘यहां सब एक समान माने जाते हैं. किसी के साथ कोई अलग व्यवहार नहीं होता.’ अपनेपन के इसी भाव के कारण इस साल के आयोजन में लगभग 27 हजार लोगों ने शिरकत की. यह संख्या पिछले साल के 12 हजार के आंकड़े से दोगुनी से भी अधिक है.

लेकिन उत्सव का स्वरूप जितना अनौपचारिक है, इसके दौरान किए गए विचारविमर्श उतने ही गंभीर. पांच दिनों में हुई 80 से अधिक परिचर्चाओं में जिन विषयों पर विचार किया गया, उनका दायरा बहुत व्यापक है. इन परिचर्चाओं में भाषा, साहित्य, जातिपरंपरा, लेखन, भारतपाक संबंध, राजनीति, अर्थशास्त्र, धार्मिक कट्टरपंथ, नक्सलवाद और प्रतिरोध आदि से जुड़ी बहसों का फलक बहुत बड़ा था. सबसे दिलचस्प रहा वह सत्र जिसमें डचसोमालियाई राजनीतिक कार्यकर्ता अयान हिरसी अली ने धर्मों की कट्टरता और रूढ़ियों पर प्रहार किए. हिरसी हाल के दिनों में विवादों में घिरी रही हैं और सुरक्षा कारणों से उनके कार्यक्रम की पहले से घोषणा नहीं की गई थी. इन बहसों ने न सिर्फ भारतीय और विदेशी लेखकोंपत्रकारों की चिंताओं और सरोकारों को पेश किया, बल्कि इस दौरान जिस तरह से साहित्य प्रेमियों और पाठकों ने उनसे सवाल किए, उसने भविष्य के एक सचेत और बौद्धिक भारतीय समाज के लिए भी काफी हद तक आश्वस्त किया.

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लेखन पर इस आयोजन में खास तौर से ध्यान दिया गया था. हिंदी के अनेक जानेमाने नाम इस आयोजन में शामिल तो थे ही, पी. सिवकामी, लक्ष्मण गायकवाड़, कांचा इलैया और जैफरलो जैसे दूसरी भाषाओं के भी बड़े लेखकविचारक मौजूद थे. जाहिर है, इनकी वजह से पूरे फेस्टिवल के दौरान दलित लेखन और आंदोलन से जुड़ी बहसें सबसे अधिक जीवंत रहीं, जहां दलित लेखन और जीवन से जुड़े अनेक कड़वे और विचारोत्तेजक अनुभव सामने आए.

लेकिन दिमाग को झकझोर कर रख देनेवाली इन चर्चाओंपरिचर्चाओं के बीच संगीत, गायन और कविता पाठ के कार्यक्रम भी हुए. गुलजार और प्रसून जोशी ने अपनी रचनाएं सुनाईं और जावेद अख्तर ने मशहूर शायर फैज अहमद फैज से पहली बार मिलने का अपना रोचक वाकया. पाकिस्तान से आईं फैज की बेटी सलीमा हाशमी ने अपने पिता को याद करते हुए श्रोताओं को भावुकता से भर दिया और पाकिस्तानी उपन्यासकार अली सेठी ने उनकी नज्मों को बेहद खूबसूरती से गाया.

आयोजन का यह पांचवां साल था. आगे ज्यादा से ज्यादा हिंदी तथा दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकोंविचारकों के आने से आयोजन अधिक व्यापक हो सकेगा. इसे ऐसा होना भी चाहिए. आखिरकार दुनिया में कम ऐसी जगहें हैं जहां आप क्रिस्टोफ जफरलो और कांचा इलैया के साथ एक कतार में बैठकर वोले शोयंका को सुन सकते हों.