दांव पर विश्वसनीयता

कुछ जजों का कहना है कि अदालत द्वारा खुद अपने लिए अपने यहां अपील करने में कुछ गलत नहीं है, क्योंकि नियमों के अनुसार और कोई दूसरा मंच नहीं है जहां अपील की जा सके. इसके बावजूद सवाल यह है कि क्या केंद्रीय सूचना आयोग, उच्च न्यायालय की एक सदस्यीय खंडपीठ और फिर पूरी खंडपीठ के एक जैसे फैसलों के खिलाफ तीसरी अपील जरूरी है?मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता वाली दिल्ली हाई कोर्ट की पूर्ण खंडपीठ के हालिया फैसले ने जनता के जानने के अधिकार को तो मजबूती दी ही है, न्यायपालिका की जवाबदेही पर भी जोर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा संपत्ति की घोषणा के संबंध में दिया गया यह फैसला सूचना के अधिकार की जरूरत को यह संकेत करते हुए थोड़े में ही समझ देता है कि लोकतंत्र में जनता ही असली मालिक होती है और चूंकि सारे जनसेवक उसी की ओर से कार्य करते हैं, इसलिए उसे यह जानने का हक है कि उसके प्रतिनिधि और अधिकारी क्या कर रहे हैं.

यह अधिकार समानता (अनुच्छेद 14), अभिव्यक्ति (अनुच्छेद 19) और जीवन तथा स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 21) से भी जुड़ा हुआ है. अदालत का कहना था कि न्यायपालिका भी जनता के प्रति समान रूप से जवाबदेह है और जनता को यह जानने का हक है कि मुख्य न्यायाधीश सहित तमाम जज किस प्रकार अपनी शक्तियों का उपयोग कर रहे हैं, साथ ही उसे जजों की नियुक्ति और उनके खिलाफ आई शिकायतों के निबटारे की प्रक्रिया के बारे में भी जानने का हक है. इस विवाद की जड़ में यह बहस थी कि क्या सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा अपने ही स्तर पर तय की गई आचार संहिता के तहत मुख्य न्यायाधीश के समक्ष घोषित संपत्ति की सूचना सूचना के अधिकार यानी आरटीआई के तहत मांगी जा सकती है? शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने इसपर रोक लगाने की मांग की थी. उसका कहना था कि यह सूचना मुख्य न्यायाधीश के सामने किसी अधिनियम के तहत नहीं पेश की गई है बल्कि जजों द्वारा ही तय की गई एक आचार संहिता के तहत दी गई है, और चूंकि यह सूचना गोपनीय रूप से दी गई है, इसलिए इसे सबकी जानकारी के दायरे में नहीं लाया जा सकता. आगे यह दलील भी दी गई कि मुख्य न्यायाधीश को ऐसी सूचना उनपर भरोसा करते हुए दी गई है और यह एक निजी सूचना है जिसका सार्वजनिक गतिविधि अथवा हित से कोई संबंध नहीं है इसलिए यह आरटीआई के तहत नहीं आती.

लेकिन उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट की तरफ से महाधिवक्ता द्वारा दी गई प्रत्येक दलील को नकार दिया. अदालत ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के समक्ष संपत्ति की घोषणा संबंधी आचार संहिता अनिवार्य थी इसलिए जजों के लिए मुख्य न्यायाधीश के सामने अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना जरूरी था. चूंकि जानकारी देना आवश्यक था इसलिए यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि ऐसा विश्वास के संबंध के तहत किया गया.

सुप्रीम कोर्ट के वकील ने इस फैसले के खिलाफ अपील की मोहलत की मांग की. मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने वकील की ओर हैरत भरी नजर से देखा, लेकिन फिर उन्हें मोहलत दे दी. इसके बाद से सुप्रीम कोर्ट और मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने मामले की खुद ही सुनवाई की कोशिश को लेकर मीडिया ने उनकी आलोचना की है. तब जाकर मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि अपील करनी है या नहीं, इस बारे में फैसला अब समूचे सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिया जाएगा.

इस मामले में कुछ जजों का कहना है कि अदालत द्वारा खुद अपने लिए अपने यहां अपील करने में कुछ गलत नहीं है, क्योंकि नियमों के अनुसार और कोई दूसरा मंच नहीं है जहां अपील की जा सके. इसके बावजूद सवाल यह है कि क्या केंद्रीय सूचना आयोग, उच्च न्यायालय की एक सदस्यीय खंडपीठ और फिर पूरी खंडपीठ के एक जैसे फैसलों के खिलाफ तीसरी अपील जरूरी है? यदि सुप्रीम कोर्ट खुद से जुड़े मामले में अपने ही यहां अपील करता है तो इससे यह संदेह और बढ़ेगा ही कि कुछ छिपाया जा रहा है. मुख्य न्यायाधीश ने संकेत दिए हैं कि जिस एक मामले पर वे सूचना को सार्वजनिक करने से बचना चाहते हैं वह है जजों की नियुक्ति और उनके खिलाफ शिकायतों से जुड़ी जानकारी. केंद्रीय सूचना आयोग ने पहले सुप्रीम कोर्ट को निर्देश दिया था कि वह कुछ हालिया नियुक्तियों से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करे. तब सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय को नजरअंदाज करते हुए अपने यहां एक अपील दायर की थी.

दिनाकरण प्रकरण दिखाता है कि न्यायपालिका में होने वाली नियुक्तियों में अनियमितताएं एक ऐसा मसला है जिसे अदालत ढके रखना चाहती है. इसमें संदेह नहीं कि ऐसा करके वह अपनी बची-खुची विश्वसनीयता को ही गंभीर नुकसान पहुंचा रही है.   

प्रशांत भूषण