लोकप्रियता को समाचार माध्यम भुनाना चाहें, यह समझ में आता है क्योंकि उनका खेल बिक्री और कारोबार से जुड़ा है. लेकिन यह लोकप्रियता जिस तरह हमारे समूचे साहित्यिक-सांस्कृतिक पर्यावरण पर छा गई है, इससे कुछ डर सा लगता हैआमिर खान की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ एक अच्छी फिल्म है. लेकिन अगर इस फिल्म को भारतीय शिक्षा नीति की ऐसी दूरदर्शी आलोचना की तरह पढ़ा जा रहा है जिसपर पहले किसी की नजर न पड़ी तो इसके पीछे लोगों का अज्ञान ज्यादा है, फिल्म की उत्कृष्टता कम. अन्यथा हाल के वर्षों में भारत में- और दुनिया भर में भी- शिक्षा को लेकर जो बुनियादी बहसें चल रही हैं, वे इस फिल्म से काफी आगे की हैं. यही नहीं, चेतन भगत के जिस उपन्यास ‘फाइव प्वाइंट समवन’ से इस फिल्म की मूल कथाभूमि ली गई है, वह अपनी साधारणता के बावजूद कम से कम इस शिक्षा नीति की ज्यादा खरी आलोचना करता है. फिल्म जहां यह दिखाती है कि एक वैज्ञानिक शिक्षण संस्थान में शिक्षा की यांत्रिकता से नाराज नायक फिर भी अपनी प्रतिभा के दम पर टॉप करता है, वहीं उपन्यास बताता है कि वह नायक अपनी प्रयोगशीलता के बावजूद अंकों के लिहाज से कभी औसत से ऊपर नहीं जा पाता. जाहिर है, आमिर खान की फिल्म शिक्षा नीति में नहीं, लोगों के दृष्टिकोण में खोट देखती है, जबकि चेतन भगत का उपन्यास ज्यादा ईमानदारी से बताता है कि इस यांत्रिकता के नुकसान कितने गहरे हैं.
बहरहाल, यह टिप्पणी ‘थ्री इडियट्स’ की समीक्षा के लिए नहीं लिखी जा रही है. इसका मकसद सिर्फ इस तथ्य की तरफ ध्यान खींचना है कि हाल के दिनों में भारत का बौद्धिक मानस किस हद तक उस सतही बॉलीवुड से आक्रांत है जिसका नब्बे फीसदी हिस्सा ख़ुद हॉलीवुड की फूहड़ नकलों में बीतता है और 10 फीसदी सयानी और बारीक नकलों में. इसके बावजूद देश की हर सार्वजनिक और जरूरी बहस में बॉलीवुड का अतिक्रमण जैसे अनिवार्य मान लिया गया है.
इस अतिक्रमण की ताजा मिसाल जयपुर में हुआ लेखक सम्मेलन है जहां एक तरफ नोबेल विजेता लेखकों का स्वागत होता रहा तो दूसरी तरफ गुलजार, जावेद अख्तर, शबाना आजमी और प्रसून जोशी जैसी शख्सियतें खबरें बनाती रहीं. निश्चय ही इन चारों में गुलजार एक बेहतर लेखक हैं और उनके फिल्मी कामकाज के बाहर भी उनके रचनात्मक लेखन का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो अपने बिंबों की ताजगी और अर्थों की नव्यता से अभिभूत करता है. लेकिन गुलजार को भले हो, किसी और को यह भ्रम नहीं होगा कि गुलजार के लेखन की उत्कृष्टता जयपुर के लेखक सम्मेलन में उनकी मौजूदगी का सबब थी, यह दरअसल गीतकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है जो उनके लिए सारे मंच लूटकर ला रही है. फिर गुलजार को छोड़ दें तो जावेद अख्तर और शबाना आजमी या फिर प्रसून जोशी का साहित्यिक अवदान क्या है, और ऐसे सम्मेलन में उनकी उपस्थिति की पात्रता कितनी है, यह बात बहसतलब भी नहीं रह जाती. इसी तरह ओम पुरी और उनकी पत्नी नंदिता पुरी भी बस अपनी फिल्मी हैसियत की वजह से सम्मेलन में मौजूद थे.
इस अतिक्रमण की एक और मिसाल इस गणतंत्र पर दिए गए पद्म सम्मान हैं. जानकीवल्लभ शास्त्री जैसे बुजुर्ग और महत्वपूर्ण हिंदी लेखक को जो पद्म श्री मिलती है वही सैफ अली खान को दी जाती है. आमिर खान भी पद्म भूषण ले जाते हैं. पद्म सम्मानों की ऐसी और भी विसंगतियां गिनाई जा सकती हैं, लेकिन इनकी वजह एक ही है- इनके नियामक वे लोग हैं जो भव्यता से अभिभूत अंग्रेजीपरस्त और संस्कृतिविहीन हैं और उस तबके से आते हैं जिनके लिए सब-कुछ सजावट और इसलिए दिखावे का सामान है.
असल में यह चमकता-दमकता भारत ही है जो कभी ‘थ्री इडियट्स’ देखकर अपनी जाला लगी आला डिग्रियों पर संदेह करता है और ‘चक दे इंडिया’ देखकर भारत का मतलब समझने की कोशिश करता है. उसे अच्छी किताबें पढ़ने की आदत नहीं, जरूरी बहसों में शामिल होने की फुरसत नहीं. फिल्में उसकी बौद्धिक खुराक पूरी करती हैं
असल में यह चमकता-दमकता भारत ही है जो कभी ‘थ्री इडियट्स’ देखकर अपनी जाला लगी आला डिग्रियों पर संदेह करता है और ‘चक दे इंडिया’ देखकर भारत का मतलब समझने की कोशिश करता है. उसे अच्छी किताबें पढ़ने की आदत नहीं, जरूरी बहसों में शामिल होने की फुरसत नहीं. फिल्में उसकी बौद्धिक खुराक पूरी करती हैं
इन आयोजनों और पुरस्कारों को छोड़ दें तो भी नर्मदा आंदोलन से लेकर हॉकी खिलाड़ियों के आर्थिक संकट तक और वंदे मातरम से लेकर समलैंगिकता तक पर बॉलीवुड जिस बेबाकी और आत्मविश्वास से राय जताता है और जिस निष्ठा से हमारे समाचार माध्यम उन्हें जगह देते हैं, उसे देखकर हैरानी और कोफ्त दोनों होती है. निश्चय ही बॉलीवुड को किसी मुद्दे पर अपनी राय रखने का अधिकार है. यह राय जितनी सुविचारित और स्पष्ट होगी, उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि फिर इसका असर उसकी फिल्मों पर भी पड़ेगा जिनकी- दुर्भाग्य से- भारतीय जनमानस तक बहुत गहरी पहुंच है. दरअसल, ‘थ्री इडियट्स’ या ‘तारे जमीं पर’ की कामयाबी या इनसे पैदा हुई बहसें आमिर खान की बौद्धिक गहराई से ज्यादा उनकी सामाजिक लोकप्रियता का प्रमाण हैं. ‘मुन्नाभाई लगे रहो’ या ‘चक दे इंडिया’ से पैदा हुआ स्पंदन भी दूसरे कलाकारों के लिए ऐसे ही प्रमाण सुलभ कराता है.
इस लोकप्रियता को समाचार माध्यम भुनाना चाहें, यह समझ में आता है क्योंकि उनका खेल बिक्री और कारोबार से जुड़ा है. लेकिन यह लोकप्रियता जिस तरह हमारे समूचे साहित्यिक-सांस्कृतिक पर्यावरण पर छा गई है, इससे कुछ डर सा लगता है. लगता है, जैसे हम एक ग्लैमर आक्रांत समय में रह रहे हैं जहां एक बाजारू बौद्धिकता चीजों का मूल्य तय कर रही है. अगर वह बाजारू न होती तो लोकप्रियतावाद से इस कदर अभिभूत न होती. इस बात को कुछ आगे बढ़ाने से बात ज्यादा खुलेगी. जयपुर के लेखक सम्मेलन में हिंदी लेखकों की आवाज मद्धिम- लगभग गुम- है. इसकी एक सरल और लोकप्रिय व्याख्या यह की जा सकती है कि जब हिंदी का लेखक हाशिए पर है, जब उसकी किताबें नहीं पढ़ी जा रहीं, जब वह अपने समाज में पहचाना नहीं जा रहा तो उसे किसी सम्मेलन में क्यों होना चाहिए?
लेकिन सवाल है कि क्या हिंदी लेखन इसलिए हाशिए पर है कि वह खराब लेखन है? या उसमें अपने समय की अनुगूंजें नहीं हैं? या वह अपने लोगों से संवाद नहीं करता? हकीकत इससे ठीक उल्टी है. आज की तारीख में हिंदी लेखन किसी भी दूसरी भारतीय भाषा- जिनमें अंग्रेजी भी शामिल है- से कहीं ज्यादा अपने समाज की विश्वसनीय तस्वीर पेश करता है. यही नहीं, विचार और संस्कृति से जुड़े मसलों पर उसकी राय कहीं ज्यादा आधुनिक और प्रामाणिक है. हिंदी कविता अंतरराष्ट्रीय स्तर की कविता है और हिंदी का गद्य लेखन भी इस समय के सबसे मुश्किल सवालों को रखता है. सच तो यह है कि इस बाजार आक्रांत समय में बाज़ार के विरोध में और कमजोर आदमी के हक में सबसे ज्यादा अगर कोई अनुशासन खड़ा है तो वह हिंदी साहित्य है. बल्कि कई बार लगता है कि बाजार उसे अपने विरोध की सजा दे रहा है, उसके आर्थिक पुरानेपन के लिए उसका मजाक बना रहा है.
दरअसल, इस कोण से देखें तो समझ में आता है कि फिलहाल बाजार एक बड़ी नियामक शक्ति है जिसने भारत में अपना एक समाज बना लिया है और उसके बुद्धिजीवी भी खड़े कर लिए हैं. दुनिया भर में घूमते और दुनिया भर का पढ़ते ये बुद्धिजीवी मौलिक होने का भ्रम पैदा करते हैं, लेकिन असलियत उनकी उसी बॉलीवुड जैसी है जिसका सारा वैचारिक कच्चा माल बाहर से आता है. चालू हिंदी और चालू अंग्रेजी जानने वाली और राजनीतिक तौर पर सही और सामाजिक तौर पर आधुनिक लगने वाली लाइन लेने वाली यह बौद्धिकता ही सारे आयोजन और सारे मंच छेककर बैठी दिखाई पड़ती है. जो नया बन रहा समाज है, वह इस बाजार के प्रति कृतज्ञ है क्योंकि वह उसे ऊंची सैलरी और आला जीवन शैली देता है. जो लोग जीवन या विचार में, लेखन या सरोकार में इस बाजार से बाहर हैं, पुराने ढंग के कपड़े पहनते हैं या देसी ढंग से सोचते हैं, वे उपेक्षणीय ही नहीं, उपहासास्पद भी हैं- यह अहंकारी मान्यता इस बाजारवादी बौद्धिकता में कूट-कूटकर भरी दिखाई देती है. इस मान्यता के समांतर लोकतंत्न और अर्थनीति की आड़ में यथास्थितिवाद बनाए रखने की वह चालाकी छुपी नहीं रह पाती जिसका मकसद एक बड़े समाज को और उसकी भाषाओं को ऐसे बड़े आयोजनों से काटे रखना है.
असल में यह चमकता-दमकता भारत ही है जो कभी ‘थ्री इडियट्स’ देखकर अपनी जाला लगी आला डिग्रियों पर संदेह करता है और ‘चक दे इंडिया’ देखकर भारत का मतलब समझने की कोशिश करता है. उसे अच्छी किताबें पढ़ने की आदत नहीं, जरूरी बहसों में शामिल होने की फुरसत नहीं. फिल्में उसकी बौद्धिक खुराक पूरी करती हैं और कुछ बचा रह जाता है, उसे देने के लिए उसका एक छोटा सा बौद्धिक समाज है जो अपनी साहित्यिक गोष्ठियों में जावेद अख्तर और ओमपुरी को पाकर हर्षित होता है और अभिभूत होने के लिए विदेश से लेखक बुलवाता है.
अफसोस कि इसी बाज़ार का, और इससे निकले बौद्धिक तबके का सारे संसाधनों पर कब्जा है, वह हिंदी के एक छोटे से तबके की कूपमंडुकता को हिंदीभाषी समाज के सार्वभौमिक सत्य की तरह पेश कर साहित्य, कला, संस्कृति और विज्ञान पर अपने एकाधिकार को जायज ठहराता है. वह किसी आमिर खान या शाहरुख खान या नंदिता दास या ओम पुरी के बगल में बैठकर इतराता है और इस बात पर मुग्ध रहता है कि उसके कितने बड़े-बड़े लोगों से संपर्क हैं.
प्रियदर्शन
(लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं)