बड़ी संस्थाओं की बड़ी-बड़ी बातें

पर्यावरण परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति आईपीसीसी पर हाल ही में यह गंभीर आरोप लगा है – जिसे बाद में उसने स्वीकार भी किया – कि उसने 2007 की अपनी चौथी आकलन रपट में 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियरों के विलुप्त होने की जो बात कही थी वह किसी गहन शोध की बजाय मह अनुमानों पर आधारित है.

बात थोड़ी नहीं कुछ ज्यादा ही अजीब है. दुनिया की सबसे बड़ी और विश्वसनीय जलवायु संस्था, मगर व्यवहार किसी ज्योतिष संगठन सरीखा. इन्हीं तथ्यरूपी अनुमानों पर पिछले कुछ बरसों से विश्व का खरबों रुपए का जलवायु व्यापार संचालित हो रहा है. एशिया के विकासशील देशों पर पर्यावरण के लिए दबाव बनाने के लिए भी विकसित देशों द्वारा इन्हीं का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है.

हमारे लिए घोर परेशानी वाली बात यह है कि आईपीसीसी की आकलन रपट के जिस ग्लेशियरों वाले अध्याय ने यह सारा विवाद खड़ा किया है उसके प्रभारी एक भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर मुरारी लाल थे. जिन वैज्ञानिक महोदय के कुछ साक्षात्कारों को आधार बनाकर ग्लेशियरों के पिघलने की समय-सीमा इस रपट में निर्धारित की गई थी वे भी भारतीय ही हैं, नाम है डॉक्टर सैयद इकबाल हसनैन. अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि जिस आईपीसीसी के करीब 2,000 वैज्ञानिकों ने इस रपट को तैयार किया है उसके अध्यक्ष भी एक भारतीय जलवायु विज्ञानी ही हैं, डॉक्टर आरके पचौरी. हालांकि जलवायु विज्ञान को लेकर उनकी अकादमिक योग्यता पर भी अब सवाल उठाए जा रहे हैं.

हसनैन ने तो अब इस बात से ही इनकार कर दिया है कि उन्होंने कभी 2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के खत्म हो जाने का दावा भी किया था. जबकि उनके इस नए दावे को नकारने वाले कम से कम दो साक्षात्कार आज भी इंटरनेट पर मौजूद हैं. गलती स्वीकारने के बाद अपने बचाव में पचौरी का कहना था कि चूंकि आईपीसीसी की रपट करीब दो हजार पेजों की है इसलिए उसमें एक पेज की कुछ पंक्तियों का गलत होना इतनी बड़ी बात भी नहीं है. किंतु रपट की सबसे ज्यादा चर्चा में रही बातों में से एक यही थी. और इसी की वजह से पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली टेरी नाम की संस्था – जिसके पचौरी महासचिव हैं – को करोड़ों रुपए का लाभ पहुंच चुका है. डा. हसनैन भी इस रिपोर्ट के आने के कुछ दिनों के बाद से ही टेरी के उनके लिए ही गठित ग्लेशियोलॉजी विभाग के मुखिया और पचौरी के नजदीकी के तौर पर काम कर रहे हैं. तो फिर इसके बाद भी दोनों में से एक को उसके हवाले से दूसरे की रपट में क्या छपा है यह और दूसरे को पहले ने उसकी रपट में क्या कहा है, यह क्यों पता नहीं चला?

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैज्ञानिकों पर भी दवाई कंपनियों से पैसे लेने और तमाम देशों को स्वाइन फ्लू का जरूरत से कहीं ज्यादा भय दिखाकर अरबों रुपए की दवाइयां और टीके खरीदने के लिए बाध्य करने के आरोप लगे थे. मगर एक आम आदमी की समझ में तो पड़ोस के डॉक्टर की कमीशनबाजियां और राशन की दुकान का घालमेल ही नहीं आता. वह भला इतने ऊंचे स्तर के खेल और व्यापार समझे भी तो कैसे?