शायद अब रुचिका को देर-सबेर इंसाफ़ मिल जाए. गृहमंत्नी पी चिदंबरम सीधे इस मामले को देख रहे हैं. मीडिया चाहे तो अपनी पीठ थपथपा सकता है. आखिर जेसिका लाल, नीतीश कटारा और प्रियदर्शनी मट्टू के बाद यह चौथा मामला है, जिसमें उसकी चौकसी ने इंसाफ का गला घुटने नहीं दिया है. खुद हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ को यह शिकायत है कि अगर मीडिया ने शोर न मचाया होता तो अपने गुनाहों के लिए छह महीने की सजा के साथ वे बच निकले होते.
यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं कि जिन तमाम मामलों को हाल में मीडिया ने उठाया है वे सब बड़े शहरों के और वैसे मध्यवर्गीय घरों के मामले हैं जिनके साथ वह अपना वर्गीय जुड़ाव महसूस करता है. इन लोगों पर चोट उसे अपने ‘क्लास’ पर चोट लगती है
मीडिया की इस सक्रियता के समांतर शहरी मध्यवर्ग की जागरूकता को भी न्याय के लिए इस बदले हुए परिदृश्य का श्रेय दिया जा सकता है. मानवाधिकारों के लिए एक नई तरह की संवेदना इस शहरी समाज में दिख रही है और प्रतिकार की एक नई भाषा भी, जिसमें मोमबत्तियां जलाने से लेकर नेट पर मुहिम छेड़ने तक की पहल शामिल है. लेकिन जो लोग इस एक मिसाल से यह साबित करना चाहते हैं कि मीडिया अपने सरोकारों को लेकर पूरी तरह सजग है, उन्हें कुछ और बातें याद दिलाने की जरूरत है.
मसलन, जैसे ही रुचिका का मामला सामने आया, वैसे ही कई और कुचली हुई नाइंसाफियों की कराह सामने आ गई. राजस्थान के डीआईजी मधुकर टंडन का मामला याद आ गया और गुजरात में भी एक नाबालिग के साथ एक विधायक के रिश्तेदार के ऐसे ही वहशी सलूक की 11 साल पुरानी ख़बर चली आई. ये घटनाएं सिर्फ यह याद दिलाती हैं कि इस देश में न नाबालिग लड़कियों से बदसलूकी नई है और न ही पुलिस का अपराधी रवैया. अक्सर ऐसे मामलों पर न मीडिया की नजर पड़ती है न किसी और की. रुचिका का मामला भी सामने आ गया तो इसलिए कि उसके पीछे एक ऐसी सहेली खड़ी थी, जो इंसाफ़ के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ने और एक लंबा सफर करने को तैयार थी. वरना अगर आराधना और उसका परिवार न होता तो रुचिका एक खोई हुई कहानी का नाम होता और गिरहोत्ना परिवार अपने डरे हुए अकेलेपन से बाहर नहीं आ पाता.
कह सकते हैं कि मीडिया ने वही किया जो उसका काम है. वह रुचिका का मुकदमा लड़ नहीं सकता था, मुकदमा लड़नेवालों को ताकत और रसद दे सकता था. जब उसने देखा कि रुचिका को उसका इंसाफ़ नहीं मिला और उसकी लड़ाई लड़नेवाले अकेले और कातर हैं तो वह अपनी पूरी निष्ठा के साथ इंसाफ़ के पक्ष में खड़ा हो गया. निस्संदेह यह योगदान भी अपने-आप में छोटा नहीं. छोटा है तो वह दायरा जिसमें मीडिया यह सक्रियता दिखाता है. यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं कि जिन तमाम मामलों को हाल में मीडिया ने उठाया है वे सब बड़े शहरों के और वैसे मध्यवर्गीय घरों के मामले हैं जिनके साथ वह अपना वर्गीय जुड़ाव महसूस करता है. इन लोगों पर चोट उसे अपने ‘क्लास’ पर चोट लगती है.
एक बड़े फलक पर यह बात उस पाठक वर्ग के लिए भी कही जा सकती है जिसके लिए इन दिनों अखबार निकाले जाते हैं और चैनल चलाए जाते हैं. दिल्ली के अखबारों और टीवी चैनलों को यह मालूम है कि जेसिका या रुचिका की लड़ाई एक बड़ी प्रतिक्रिया पैदा करेगी- सिर्फ अन्याय की प्रकृति की वजह से नहीं- पीड़ितों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की वजह से भी. मीडिया के लिए इस अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना व्यावसायिक रूप से भी फायदेमंद है क्योंकि यह लड़ाई टीआरपी और भरोसा दोनों देती है. इस लिहाज से यह एक सुविधाजनक लड़ाई है जो मीडिया लड़ रहा है. इससे यह तोहमत भी जाती रहती है कि वह सामाजिक सरोकारों के लिए काम नहीं कर रहा है. कुछ मीडिया चैनलों के प्रमुख अभी से ललकारने लगे हैं कि जिन्हें मीडिया पर नाज नहीं है, वे सामने आएं.
नक्सलवाद से लेकर आतंकवाद तक के ख़िलाफ़ कार्रवाई के नाम पर झारखंड और छत्तीसगढ़ से लेकर गुजरात और जम्मू कश्मीर तक ऐसे ढेर सारे मामले हैं जो रुचिका के साथ हुई बदसलूकी या उसके भाई आशु के साथ हुए व्यवहार से कहीं ज्यादा बर्बर और संगीन हैं
लेकिन जो कुछ असुविधाजनक लड़ाइयां हैं, जो कुछ लंबे समय तक लड़नी पड़ सकती हैं, जिनके लिए कुछ क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, उनकी तरफ से मीडिया बड़ी आसानी से आंख मूंद लेता है. नक्सलवाद से लेकर आतंकवाद तक के ख़िलाफ़ कार्रवाई के नाम पर झारखंड और छत्तीसगढ़ से लेकर गुजरात और जम्मू कश्मीर तक ऐसे ढेर सारे मामले हैं जो रुचिका के साथ हुई बदसलूकी या उसके भाई आशु के साथ हुए व्यवहार से कहीं ज्यादा बर्बर और संगीन हैं.
पूरे पूर्वोत्तर में पुलिस और सुरक्षा बलों का रवैया ऐसी भूली हुई बर्बरता की एक और मिसाल है. ज्यादा दिन नहीं हुए जब ‘तहलका’ ने मणिपुर में हुई फर्जी मुठभेड़ की तसवीरें छापी थीं. वे तसवीरें आशु के हलफनामे से कम दिल दहलानेवाली नहीं थीं. लेकिन वह मणिपुर का मामला है, इसलिए मीडिया को दिखाई नहीं पड़ता. उसे दस साल से अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की आवाज सुनाई नहीं पड़ती- क्योंकि मणिपुर दिल्ली से बहुत दूर है और वहां रहने वाले यहां की मध्यवर्गीय जमात के कुछ नहीं लगते.
यह रुचिका के मामले में मीडिया की सक्रियता की आलोचना नहीं है, बल्कि बस यह अनुरोध है कि इस सक्रियता का थोड़ा और सामाजिक विस्तार हो. क्योंकि रुचिकाएं और भी हैं जो न जाने कितने राठौड़ों के हाथों रोज ऐसी जिल्लत झेल रही हैं और इंसाफ़ से महरूम रह जा रही हैं. लेकिन यह अनुरोध सिर्फ दूसरी रुचिकाओं की रक्षा के लिए नहीं है. जिस रुचिका को हम जानते हैं, उसके बचाव के लिए भी है. आखिर किसी एसपीएस राठौड़ को यह हिम्मत कैसे मिलती है कि वह एक रुचिका से बदतमीजी करे और फिर उसके पूरे परिवार का जीना हराम कर दे?
रुचिका मामले में अगर नौ साल तक एफआईआर दर्ज नहीं हुई तो इसके लिए सिर्फ राठौड़ नहीं, नीचे से ऊपर तक तंत्न का एक-एक पुर्जा जिम्मेदार है. अगर आशु के ख़िलाफ़ फर्जी मामले जड़े गए, अगर उसे पकड़ कर थाने लाया गया और वहां उसे बेरहमी से यातनाएं दी गईं तो यह काम भी राठौड़ ने अकेले नहीं किया- बिल्कुल निचले स्तर पर खड़े सिपाही से लेकर सबसे ऊपर बैठे अफसर और इन सबको संरक्षण देने वाले नेता भी इसके जिम्मेदार हैं. फिर दुहराने की जरूरत है कि यह राठौड़ का अपराध कम करके आंकने की, उसके खलनायकत्व को कुछ फीका करने की कोशिश नहीं, बस यह याद दिलाने की इच्छा है कि दरअसल जब पूरी व्यवस्था अन्यायी होती है तो रुचिका जैसी मासूम लड़कियां और गिरहोत्ना जैसे आम परिवार कभी भी उसकी चपेट में आ सकते हैं. ऐसी ही व्यवस्था किसी राठौड़ को अदालत से नाकुछ सी सजा पाकर मुस्कुराते हुए निकलने का मौका देती है. रुचिका को बचाना है तो इस पूरी व्यवस्था में मानवाधिकारों के प्रति संवेदना और कानून के प्रति सम्मान और न्याय के प्रति सजगता पैदा करनी होगी.
मीडिया से शिकायत अगर है तो बस इतनी है. वह एक रुचिका का मामला उठा रहा है, पूरी व्यवस्था का नहीं. वह एक राठौड़ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहा है, उन बुनियादी सुधारों की मांग नहीं कर रहा जो हमारे पुलिस तंत्र के लिए निहायत जरूरी हैं. इसका एक ख़तरा यह भी है कि रुचिका की जो लड़ाई अभी अपने उरूज पर है, वह कुछ दिन बीतने के बाद फीकी न पड़ जाए और कुछ साल बाद अपनी बेख़बरी में हम यह भूल न जाएं कि राठौड़ को सजा दिलाने का काम बाकी रह गया है. यह एक वास्तविक ख़तरा है क्योंकि जितने लोग आज राठौड़ को सजा दिलाने के लिए खड़े हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग उसे बचाते रहे हैं. इस देश में आईएएस और आईपीएस अफसरों को सजा दिलाना कितना कठिन काम है, यह इस बात से भी पता चलता है कि रुचिका गिरहोत्ना के मामले में मीडिया के दस दिन पुराने शोर के बावजूद यह टिप्पणी लिखे जाने तक राठौड़ गिऱफ्तार नहीं हुआ है.
निश्चय ही रुचिका की लड़ाई महत्वपूर्ण है. उसे पूरी ताकत से लड़ने की जरूरत है. एसपीएस राठौड़ को अगर सजा मिलती है तो कम से कम यह संदेश जाता है कि अन्यायी बहुत दूर तक अपने-आप को बचा ले लेकिन देर तक बचा नहीं रह सकता. लेकिन हमारे सामने चुनौती इस छोटे से संदेश से ज्यादा बड़ी है. हमारी पूरी व्यवस्था के मुंह पर गरीब और लाचार लोगों का खून लगा हुआ है. वह आसानी से अपनी आदत छोड़नेवाली नहीं. यह जरूरी है कि हम सारी रुचिकाओं का खयाल रखें और सारे राठौड़ों की शिनाख्त करें- दिल्ली और चंडीगढ़ में ही नहीं, मणिपुर और छत्तीसगढ़ में भी. तभी न्याय और बराबरी का समाज संभव होगा और तभी मीडिया को अपनी पीठ थपथपाने का जायज हक होगा.
प्रियदर्शन
(लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं)