गुजरात विधानसभा ने 19 दिसंबर को ‘गुजरात स्थानीय प्राधिकरण कानून (संशोधन) विधेयक, 2009’ पारित किया है. इसके कानून बनते ही राज्य के स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनाव में मतदान करना अनिवार्य हो जाएगा. ऐसा न करने का मतदाताओं को कोई सुस्पष्ट कारण बताना होगा. और ऐसा न कर पाने वालों को दंड भुगतने को तैयार रहना होगा. यह कानून मतदाताओं को ‘इनमें से कोई नहीं’ विकल्प चुनकर सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करने की आजादी भी देता है.
अजब बात यह रही कि मतदान को अनिवार्य बनाने वाले विधेयक को पारित करने के मतदान में गुजरात सरकार के मुखिया यानी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके तमाम काबीना मंत्रियों के अलावा करीब 40 फीसदी विधायक उपस्थित ही नहीं थे. राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने इस विधेयक का जमकर समर्थन किया था, मगर 7 जनवरी को झारखंड विधानसभा में शिबू सोरेन द्वारा विश्वास मत हासिल करने के दौरान राजद के पांचों विधायकों ने उसमें हिस्सा नहीं लिया. कहा जा सकता है कि मोदी और उनके मंत्री जरूरी कामों में लगे थे और राजद विधायकों ने मत न देने के लोकतांत्रिक विकल्प का चयन किया था. मगर यही तर्क तो एक आम भारतीय मतदाता के संदर्भ में भी दिया जा सकता है.
देश की राजनीतिक व्यवस्था में मौजूद इस तरह के तमाम विरोधाभास इस विधेयक पर कोई एक राय बनाने से हमें रोकते हैं. उदाहरणार्थ, सबसे ज्यादा सांसदों वाली पार्टी देश की सरकार तब तक नहीं बना सकती जब तक उसके पास लोकसभा के कुल सासंदों के आधे से अधिक न हों मगर, कोई व्यक्ति कुल मतों का केवल 10 फ़ीसदी पाकर भी बड़े आराम से सांसद बन सकता है, बशर्ते उसे अन्य उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिले हों.
विधेयक के पक्ष में कहा जा सकता है कि इससे हमारे प्रतिनिधि किसी एक छोटे से वर्ग या समुदाय के प्रतिनिधि न होकर सही मायनों में जनप्रतिनिधि बन सकेंगे क्योंकि जब 90 फ़ीसदी मतदाता वोट डालेंगे तो 5-10 फ़ीसदी मतों वाले वर्ग या समुदाय का तुष्टीकरण कर चुनाव जीतने और दूसरे वर्गों-समुदायों की अनदेखी की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा. मगर विपक्ष में यह भी कहा जा सकता है कि मतदान न करने पर सजा का प्रावधान राजसत्ता के हाथों में सामान्यजनों को परेशान करने का एक नया उपकरण भी साबित हो सकता है. या फिर लोग इस प्रावधान के चलते मतदाता सूची में अपना नाम लिखाने से ही कतराने लग सकते हैं.
पक्ष-विपक्ष में ऐसे तमाम तर्क हैं, मगर एक स्वस्थ लोकतंत्र का सतत गतिशील होना भी बेहद जरूरी है. संविधान के 73 और 74वें संशोधन ने स्थानीय निकायों और पंचायतों के चुनावों को अनिवार्य बना दिया था. बाद में महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण, महापौर और पार्षदों का सीधा चुनाव और आरक्षित सीटों की बदलाव प्रक्रिया में संशोधन जैसे सुधार विभिन्न राज्यों द्वारा इन व्यवस्थाओं में लाए क्रमिक बदलावों का ही तो परिणाम हैं. सवाल यह है कि चुनाव सुधार के प्रयोग भी राज्य सरकारों द्वारा निचले स्तर के चुनावों के ज़रिए क्यूं नहीं किए और आंके जा सकते? इससे पहले ऐसे प्रयासों को सिरे से ख़ारिज करना शायद उचित नहीं होगा.
संजय दुबे