गोरखालैंड का सफ़र तेलंगाना की डगर

दार्जिलिंग की पहाड़ियों में छाई राजनैतिक अस्थिरता ने वहां की तीन जीवन रेखाओं चाय, पर्यटन और शिक्षा पर काफ़ी बुरा असर डाला है मगर लोग अलग राज्य के लिए सब कुछ सहने के लिए तैयार हैं. शोभिता नैथानी की रिपोर्ट

दार्जिलिंग जिले की तीन सबडिविजनों में से एक कलिमपोंग के नजदीक युवाओं की एक भीड़ हमारी कार को रोक लेती है. इन लड़के-लड़कियों में से ज्यादातर की उम्र 18 साल के आस-पास होगी. वे हमसे अपनी कार के दरवाजे और डिग्गी खोलने को कहते हैं. हमारा सामान खंगालते हुए उनमें से एक पूछता है, ‘रक्सी (शराब)?’ मतलब यह कि कहीं मेरे पास शराब तो नहीं है जिसपर इस इलाके में प्रतिबंध लगा हुआ है. धूल भरी सड़क पर तकरीबन 80 किलोमीटर आगे दार्जिलिंग में भी ऐसा ही एक और झुंड नजर आता है. पूछने पर कि वे सब वहां क्यों आए हैं, नौवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ चुकी एक लड़की कहती है, ‘अपनी मां, मिट्टी और गोरखालैंड के लिए.’

यहां के लोग पृथक राज्य की मांग के प्रति एकजुट हैं, उन्हें पता है कि बिमल गुरुंग दार्जिलिंग के नए सुभाष घीसिंग हैं, बस उनके राज में वह हिंसा नहीं है जो घीसिंग के राज में होती थी

शक्ल से 16 की लगने वाली मगर खुद को 18 साल की बताने वाली रश्मिका थापा नाम की यह लड़की गोरखालैंड पर्सनल (जीएलपी) की 8,500 सदस्यों में से एक है. यह संगठन बिमल गुरुंग की अगुवाई वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) की एक इकाई है. इसके सदस्यों के जिम्मे कई काम हैं. मसलन जीजेएम द्वारा आहूत बंद को सफल बनाना, खुद को सांस्कृतिक रूप से भिन्न दिखाने के लिए यह सुनिश्चित करना कि स्थानीय गोरखा पारंपरिक नेपाली वेश-भूषा में रहें, शराब की बोतलें जब्त कर उन्हें तोड़ देना और गुरुंग को सुरक्षा प्रदान करना. इसके बदले में उन्हें मिलता है यह वादा कि जब अलग गोरखालैंड बनेगा तो उन्हें राज्य की पुलिस सेवा में जगह दी जाएगी. जीजेएम नेपाली भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग कर रहा है जिसमें दार्जिलिंग की तीन पहाड़ी सबडिविजनों (कलिमपोंग, कुरस्योंग और दार्जिलिंग), सिलीगुड़ी तराई और डुआर्स के इलाके शामिल हों.

जीजेएम ने बिना जनादेश के ही इस इलाके में राज चलाना शुरू कर दिया है. 44 वर्षीय गुरुंग ने 2007 में अपने मुखिया और 80 के दशक में पृथक गोरखालैंड के लिए हिंसक आंदोलन चलाने वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के नेता सुभाष घीसिंग को निकाल बाहर किया था. दोनों के बीच तनाव तभी से बढ़ गया था जब घीसिंग ने पृथक राज्य की मांग छोड़कर पश्चिम बंगाल सरकार से ‘सिक्स्थ शेड्यूल स्टेटस’ की मांग की थी. इस शेड्यूल के तहत जिला परिषदों को विधायी और कार्यकारी अधिकार मिलते, ठीक वैसे ही जैसे असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा में स्वायत्तता प्राप्त जिला परिषदों को हासिल हैं. लेकिन गुरुंग अलग राज्य से कुछ भी कम पर राजी नहीं थे.

आग में घी डालने का काम किया 2007 में इंडियन आइडल खिताब जीतने वाले प्रशांत तमांग ने. उस वक्त दार्जिलिंग की समूची पहाड़ियां प्रशांत के समर्थन में उठ खड़ी हुई थीं. मगर घीसिंग ने सार्वजनिक रूप से तमांग का समर्थन करने से इनकार कर दिया. गुरुंग ने इस मौके को लपकते हुए अपना पूरा समर्थन तमांग को दिया और खुद की छवि एक हिम्मती नेता की बना ली. उन्होंने तमांग के पक्ष में पैदा हुई लहर को चतुराईपूर्वक अपने पक्ष में मोड़ते हुए घीसिंग का विरोध करना शुरू कर दिया. गुरुंग ने 20 साल के असफल प्रशासन को हथियार बनाते हुए बिना किसी प्रतिरोध के घीसिंग की गद्दी हथिया ली. अक्टूबर 2007 में जीजेएम की नींव पड़ी.

प. बंगाल के शहरी विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य मानते हैं कि दार्जिलिंग में गुरुंग का शासन चल रहा है लेकिन सफाई देते हुए कहते हैं, ‘इसका यह मतलब नहीं है कि हम कमजोर हैं. हम किसी भी समय गोली दाग सकते हैं लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे क्योंकि हम बातचीत के जरिए इस मसले को सुलझाना चाहते हैं.’

आरोप लगाए जाते हैं कि 1988 में दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) का गठन होने के बाद घीसिंग ने खुद को सक्रिय कामकाज से दूर कर लिया था और सारी जिम्मेदारियां अपने पार्षदों और सहयोगी ठेकेदारों को सौंप दी थी. पश्चिम बंगाल सरकार ने भी इस स्थिति में किसी तरह का दखल नहीं दिया क्योंकि वह इससे ही संतुष्ट थी कि इस इलाके में शांति बनी हुई थी. इस अवधि के दौरान राज्य और केंद्र सरकार द्वारा परिषद को 250 करोड़ रुपए का सालाना बजट जारी किया गया लेकिन ऊबड़-खाबड़ सड़कें, अस्त-व्यस्त यातायात और पेयजल की कमी जैसी समस्याएं बताती हैं कि इस पैसे का इस्तेमाल कैसे हुआ होगा. पृथक राज्य के लिए दस्तावेजों से जुड़े काम करने वाले जीजेएम स्टडी फोरम के सदस्य प्रोफेसर अमर रॉय बताते हैं, ‘इन सालों के दौरान खर्चे का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा गया. घीसिंग की एकछत्र सत्ता के चलते किसी ने उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत भी नहीं की.’ इस दौरान लोगों को गुरुंग के रूप में एक नया नेता मिल गया जो उनकी संवेदनाओं को समझता था. लोगों ने घीसिंग को हटाने की उनकी मुहिम का समर्थन किया.

घीसिंग के गोरखालैंड आंदोलन की ही उपज और आठवीं तक पढ़े गुरुंग के माता-पिता चाय बागान में मजदूर थे. पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर के गुरुंग 1986 में 16 साल की उम्र में इस आंदोलन में कूद पड़े थे. 1991 में पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने से पहले तक वे भूमिगत ही रहे. इसके बाद अगले दो सालों तक वे ऑल इंडिया गोरखा लीग (एआईजीएल) से जुड़े रहे और फिर 1999 तक उन्होंने राजनीति से किनारा किए रखा. 1999 में उन्होंने निर्दलीय के रूप में डीजीसीए का चुनाव लड़ा. बेहद सीमित विकल्पों के बीच जीएनएलएफ के प्रभाव को देखते हुए उन्होंने इसी से जुड़ने का फैसला किया.

घीसिंग और गुरुंग के बीच मतभेद के बाद टकराव की एक नई प्रक्रिया शुरू हुई. घीसिंग, उनकी पार्टी के सदस्यों और जीजेएम से जुड़ने से इनकार करने वालों के ऊपर हमले किए गए. उनके घर जला दिए गए और उन्हें अपने बाल-बच्चों समेत पहाड़ी छोड़कर सुरक्षित मैदानी इलाकों का रुख करना पड़ रहा है. गुरुंग से यह पूछने पर कि उन्होंने लोगों को रोका क्यों नहीं, वे कहते हैं, ‘उन्होंने आवेश में आकर यह सब किया. अगर मैंने नहीं रोका होता तो वे घीसिंग को जान से मार देते.’

दो साल बाद आग की लपटें तो शांत हो चुकी हैं लेकिन पहाड़ियां अंदर ही अंदर अभी भी सुलग रही हैं. समय-समय पर बंद का आह्वान होता है और चक्का  जाम के चलते सिक्किम तक यातायात व्यवस्था चरमरा जाती है जो दार्जिलिंग के जरिए ही देश के मैदानी हिस्सों से जुड़ता है. यहां के लोग पृथक राज्य की मांग के प्रति एकजुट हैं, उन्हें पता है कि बिमल गुरुंग दार्जिलिंग के नए सुभाष घीसिंग हैं, बस उनके राज में वह हिंसा नहीं है जो घीसिंग के राज में होती थी.

गुरुंग ने शराब पर रोक लगा दी है, सबको टैक्स भरने से मना कर दिया है, बिजली और पानी का बिल जमा करने से रोक दिया है और लोगों को अपने घरों और दुकानों पर गोरखालैंड का झंडा लगाने का फरमान जारी कर दिया है. मगर लोग उन्हें समर्थन देने के लिए तैयार हैं, जो नहीं हैं वे कम से कम यह सब सहने के लिए तो तैयार हैं ही. तब तक तो हैं ही जब तक अलग गोरखालैंड का सपना हकीकत में बदलने की उम्मीद लग रही है जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा सुधर सकती है, उनके बच्चों का भविष्य बेहतर हो सकता है और उनकी अपनी पहचान को सम्मान मिल सकता है.

चाय, पर्यटन और शिक्षा, दार्जिलिंग की ये तीन मुख्य जीवनरेखाएं आज इस विवाद की वजह से संकट में हैं. हालांकि होटल मालिक अपने व्यापार में घाटे से इनकार करते हैं, लेकिन जिलाधिकारी सुरेंद्र गुप्ता स्वीकार करते हैं कि पर्यटन पर बुरा असर पड़ा है. वे कहते हैं, ‘यह साल पिछले साल की तुलना में थोड़ा बेहतर रहा है, लेकिन इसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता,’  जिस चाय उद्योग का आम तौर पर सालाना उत्पादन एक करोड़ किलोग्राम से ज्यादा होता था वह इस साल घटकर 90 लाख किलोग्राम से भी कम रह गया है. जहां तक शिक्षा का सवाल है तो 120 साल पुराने सेंट जोसफ स्कूल के फादर किनले शेरिंग सारी कहानी बयान कर देते हैं जिनके यहां आने वाले आवेदन दिनोंदिन कम होते जा रहे हैं. वे कहते हैं,  ‘मां-बाप के मन में यहां हो रहे आंदोलनों की वजह से डर है.’

मार्च 2010 अब ज्यादा दूर नहीं. गुरुंग ने वादा किया है कि तब तक गोरखालैंड बन जाएगा. सबकी आंखें अब 21 दिसंबर को होने वाली त्रिपक्षीय वार्ता पर टिकी हुई हैं जिसमें जीजेएम, प. बंगाल सरकार के साथ ही केंद्र सरकार भी शामिल होगी. जहां तक घीसिंग का सवाल है तो वे फिलहाल भूमिगत हैं लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि उनके आवाज उठाने का यही सही वक्त है. पार्टी को पुनर्गठित करने में लगे जीएनएलएफ नेता राजन मुखिया कहते हैं ‘हम हार नहीं मानेंगे.’

उधर, डुआर्स और तराई के आदिवासी पृथक गोरखालैंड की मांग का विरोध कर रहे हैं. बंगाली और हिंदी भाषा की प्रधानता वाले इस हिस्से में संथाल, महतो, भील, मुंडा और ओरांव जातियों की बहुलता है जो यहां की कुल आबादी का 60 फीसदी हैं. ये सभी नहीं चाहते कि वे नेपाली भाषी राज्य का हिस्सा बनें.

गुरुंग की योजनाएं चाहे जो हों, इस मामले में मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के सहायक और सलाहकार प. बंगाल के शहरी विकास मंत्री अशोक भट्टाचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि बंटवारा उनके एजेंडे में नहीं है. हालांकि वे मानते हैं कि दार्जिलिंग में गुरुंग का शासन चल रहा है लेकिन सफाई देते हुए कहते हैं, ‘इसका यह मतलब नहीं है कि हम कमजोर हैं. हम किसी भी समय गोली दाग सकते हैं लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे क्योंकि हम बातचीत के जरिए इस मसले को सुलझना चाहते हैं.’ अगर 21 दिसंबर को राज्य का दर्जा नहीं मिला तो असंतोष और गहरा जाएगा. पत्रकार और समाजसेवी वर्षा दीवान कहती हैं, ‘दार्जिलिंग टाइम बम है जो फटने के इंतजार में है.’  शायद जीएलपी खुद को इसके लिए तैयार भी कर रहा है.