वीरू जहां, जय है वहां

क्रिकेट को लेकर सहवाग की प्रतिभा असाधारण है, न कि उनका इतिहासबोध (ओपनर के रूप में पंकज राय के साथ वीनू मांकड़ के विश्व रिकॉर्ड से तीन रन दूर रह जाने के बाद उन्होंने कहा था कि उन्होंने दोनों में से किसी भी खिलाड़ी का नाम नहीं सुना) या व्याकरणखेल में कोई भी नियम आदर्श नहीं होता, यह बात हमें वीरेंद्र सहवाग की बल्लेबाजी बताती है. श्रीलंका के खिलाफ मुंबई टेस्ट में तिहरे शतक से मामूली अंतर से चूक जाने के बाद उनका कहना था, ‘ड्रेसिंग रूम में वे (साथी) मुझसे कह रहे थे कि मैं अच्छी गेंदों को बाउंड्री के बाहर भेज रहा था लेकिन असल में तो मैं सिर्फ खराब गेंदों को ही उड़ा रहा था.’ ऐसे ही हैं सहवाग. सरलता के साथ निर्दयता और खुद पर संदेह के साथ-साथ भरोसे का एक अद्भुत समागम. सहवाग यानी एक ऐसा खिलाड़ी जो बल्लेबाजी के प्रचलित नियमों पर इतना दबाव डाल देता है कि वे उसी की इच्छा के मुताबिक ढलने को मजबूर हो जाते हैं. श्रीलंका के खिलाफ मुंबई में उन्होंने खड़े-खड़े जो रिवर्स पैडल शॉट खेला वह जितना सहज था उतना ही अचूक भी. क्रिकेट के व्याकरण में ऐसे शॉट का जिक्र तक नहीं मिलता मगर सहवाग ने जब इसे खेला तो यह हर तरह से सही ही लगा. उन्होंने खेलते-खेलते ही इस शॉट का आविष्कार कर डाला था.

बल्लेबाजी और सोच को सरलता के इस स्तर तक ले जाने वाले इस खिलाड़ी को एक दिलचस्प किस्सा सबसे अच्छी तरह बयां कर सकता है. इंग्लैंड के बल्लेबाज जेरेमी स्नेप और सहवाग किसी काउंटी मैच में साथ-साथ बल्लेबाजी कर रहे थे. गेंद पुरानी हो चुकी थी इस वजह से रिवर्स स्विंग होने लगी थी. स्नेप ने सहवाग से कहा कि उन्हें रिवर्स स्विंग खेलने में परेशानी हो रही है. सहवाग ने उनसे चिंता न करने को कहा और साथ ही यह भी कि वे दूसरे छोर पर आते ही ऐसा शॉट मारेंगे कि गेंद स्टेडियम के बाहर पहुंच जाएगी जिसके बाद अंपायरों को दूसरी गेंद लानी पड़ेगी. और उन्होंने ठीक ऐसा ही किया. तरकीब काम कर गई क्योंकि दूसरी गेंद उतनी स्विंग नहीं हो रही थी.

अभिमान से कहीं ज्यादा यह अपने साथी खिलाड़ी की मदद करने की इच्छा थी. अगर स्नेप को मुश्किल नहीं हो रही होती तो इसकी पूरी संभावना थी कि सहवाग ने अगली गेंद पर कोई दूसरा शॉट खेलकर एक रन ले लिया होता. और उतना ही मुमकिन यह भी है कि ऐसा नहीं हुआ होता. आखिरकार हर तरह के अनुमानों के परे होना ही तो सहवाग की बल्लेबाजी की सबसे बड़ी खासियत रही है. जैसे ही गेंदबाज यह समझता है कि उसे सहवाग की काट मिल गई है, वे कुछ ऐसा कर डालते हैं कि गेंदबाज सर थामने को मजबूर हो जाता है. वे लय में हैं या नहीं यह जानने के लिए उन्हें सिर्फ वह आवाज सुनने की जरूरत होती है जो बॉल के उनके बल्ले से टकराने पर होती है. और जब वे अपनी लय में होते हैं तो यह आंखों के साथ-साथ कानों के लिए भी एक आनंददायी अनुभव होता है.

सहवाग की असफलताओं को भी उनकी सफलताओं जितनी सरलता से समझ-समझया जा सकता है. वे असफल तब होते हैं जब उनकी लय उनका साथ छोड़ देती है. और जब ऐसा होता है तो उन्हें देखकर डर लगता है. इंच भले ही छोटी माप हो पर क्रिकेट के खेल में इसकी बड़ी भूमिका होती है. बल्ला जहां पर सबसे चौड़ा होता है वहां पर इसकी माप सिर्फ सवा चार इंच होती है जिसका मतलब यह है कि शॉट में सिर्फ दो इंच की चूक से बॉल, बल्ले का बाहरी किनारा छूते हुए बल्लेबाज को वापस पवेलियन भेजने का इंतजाम कर सकती है. ऑफ स्टंप से लेकर लेग स्टंप तक महजा नौ इंच की चौड़ाई का खेल में सर्वाधिक महत्व होता है.

मगर सहवाग के लिए इन मापों के अक्सर कोई मायने नहीं होते. वे बॉल की लाइन से अलग हटते हुए भी इस विश्वास के साथ अपना बल्ला लहरा सकते हैं कि प्रहार इसके बीच वाले हिस्से से ही हो और बॉल बिजली की तेजी के साथ फील्डरों के बीच से ही दौड़ती हुई जाए. मगर जब दिन खराब होता है तो एक साधारण सी डिलिवरी के बावजूद भी ये छोटे-छोटे इंच उनके लिए बहुत बड़े हो जाते हैं. बॉल की लाइन से हटते हुए वही सहवाग अपना बल्ला घुमाते हैं मगर बॉल बल्ले को जरा सा छेड़ती हुई या तो उनके विकेट पर जा लगती है या फिर पैड पर या बाहरी किनारा लेती हुई विकेट कीपर के हाथ में.

बड़े शॉट लगाने वाले खिलाड़ियों का अहम भी बड़ा रहा है. विवियन रिचर्ड्स के विस्फोटक शॉट अपने रंग को लेकर उनके मन में गहरे दबे गुस्से की अभिव्यक्ति थे. इयान बॉथम अपने शॉट से सबको यह अहसास करवाने की इच्छा रखते थे कि वे दुनिया के बादशाह हैं. मगर सहवाग ऐसा कोई झंडा उठाकर नहीं चलते

हालांकि बल्लेबाजी की अपनी अलग ही शैली के बावजूद सहवाग में एक आदर्श सुरक्षात्मक स्ट्रोक खेलने की भी क्षमता है, बल्ले और पैड को साथ-साथ इस्तेमाल करते हुए. हालांकि यह अलग बात है कि यह शॉट उनकी प्राथमिकताओं में सबसे आखिरी नंबर पर आता है. क्रिकेट का इतिहास बताता है कि बड़े शॉट लगाने वाले खिलाड़ियों का अहम भी बड़ा रहा है. विवियन रिचर्ड्स के विस्फोटक शॉट अपने रंग को लेकर उनके मन में गहरे दबे गुस्से की अभिव्यक्ति थे. इयान बॉथम अपने शॉट से सबको यह अहसास करवाने की इच्छा रखते थे कि वे दुनिया के बादशाह हैं. मगर सहवाग ऐसा कोई झंडा उठाकर नहीं चलते. वे किसी चीज का प्रतीक नहीं हैं. उनका मतलब उन से इतर कुछ भी नहीं. उनके लिए गेंद बनी ही इसलिए है कि उसे जम के कूटा जा सके. सीधी सी बात. इसके परे इसमें कोई भी गहरे मायने ढूंढना बेकार है.

सभी महान गेंदबाजों में एक बात समान होती है और वह है उनका याद रखने का गुण. वे बल्लेबाजों की कमियां भी याद रखते हैं और अपना हर विकेट भी. श्रीलंका के मुथैया मुरलीधरन ने टेस्ट क्रिकेट में लगभग 800 विकेट लिए हैं और उन्हें अपना हर विकेट आखिरी विकेट की तरह याद है. यही गुण महान बल्लेबाजों में भी होता है. सचिन तेंदुलकर आराम से बता सकते हैं कि 162 टेस्ट मैचों में से किसी में भी वे किस तरह आउट हुए.

मगर सहवाग महानता की तरफ बिल्कुल उल्टी दिशा से बढ़े हैं. याद रखने की बजाय उनके पास भूल जाने का गुण है. न कोई दुख और न ही किसी खराब पारी या शॉट का विश्लेषण. सहवाग आज और अभी में जीते हैं. बीता कल भुला चुके होते हैं और आने वाले कल के बारे में सोचते नहीं. उनकी जगह कोई और होता तो 293 पर आउट होने के बाद दुख से सराबोर हो सकता था. मगर सहवाग कह रहे थे कि वे खुश हैं कि दो तिहरे शतकों के बाद इतना बड़ा स्कोर बनाने वाले वे अकेले बल्लेबाज हैं. इसके बाद उन्होंने एक ऐसी बात कही जिसे दुनिया भर के गेंदबाज सुनकर अपना सिर धुन सकते हैं. उनका कहना था कि इस बार वे अपने तीसरे तिहरे शतक से चूक गए पर कोई बात नहीं, आगे फिर मौके आएंगे.

वर्तमान से सहवाग के जुड़ाव को समझना हो तो उनकी पारी के किसी भी क्षण पर नजर डालकर देखें. ज्यादातर बल्लेबाजों को बल्लेबाजी करते देखकर ही यह बताया जा सकता है कि यह उनकी पारी की शुरुआत है या मध्य. कभी-कभी तो यहां तक पता चल जाता है कि अब बल्लेबाज जल्द ही अपना विकेट देने वाला है. मगर सहवाग को देखकर यह बताना बेहद मुश्किल होता है कि वह 25 के स्कोर पर हैं या 250 के. उनके चेहरे पर हमेशा वही शांति होती है, उनका बल्ला हर समय उसी रचनात्मकता के साथ चलता है.

सचिन तेंदुलकर ने एक बार उनसे कहा था, ‘जब मौजूदा स्ट्रोकों से ही तुम इतनी आसानी से रन बना लेते हो तो नए स्ट्रोक मत पैदा करो.’ तेंदुलकर सहवाग के हीरो थे और आज भी हैं. सहवाग के बारे में तेंदुलकर ने कभी कहा था, ‘वे एक ऐसे बल्लेबाज हैं जिनके साथ बल्लेबाजी करते हुए मैं सबसे ज्यादा सहज होता हूं. वह गेंदबाज के दिमाग में झांककर दूसरों से कहीं जल्दी तैयार हो जाते हैं.’ झपटने की यह तैयारी शिकार कर रहे किसी चीते जैसी होती है. यानी स्थिरता के बाद कम से कम समय में निर्णायक वार. जो लोग सहवाग के फुटवर्क की आलोचना करते हैं वे कहीं ज्यादा बुनियादी चीज पर उनके शानदार नियंत्रण को देखना भूल जाते हैं. वह है उनका संतुलन.

इसके बावजूद लंबे समय तक सहवाग बाहरी रहे जबकि सबका ध्यान तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण और सौरव गांगुली यानी फैब फोर पर रहा. शायद ऐसा इसलिए था कि फैब फोर यानी चौकड़ी एक सुविधाजनक लेबल था और पांच लोगों को लेकर इतना आकर्षक ठप्पा नहीं गढ़ा जा सकता था. शायद ऐसा इसलिए भी रहा क्योंकि सहवाग उतने ज्यादा वाकपटु नहीं थे और कुछ-कुछ ग्रामीण परिवेश से आने वाले ठेठ किस्म के व्यक्ति थे. कुछ हद तक ऐसा शायद उनके अजीबोगरीब शॉटों की वजह से भी रहा होगा. यहां तक कि ज्योफ बायकॉट जैसे खिलाड़ी ने भी उन्हें प्रतिभावान किंतु दिमाग से पैदल बल्लेबाज कहा. हो सकता है कि इसके पीछे का कारण और ज्यादा गहरा हो यानी उनकी जाट पृष्ठभूमि बनाम दूसरों की मध्यवर्गीय ब्राह्मण पृष्ठभूमि.

सहवाग नर्सरी राइम सुनाती किसी बच्ची की तरह हैं. जब वे बढ़िया होते हैं तो बहुत बढ़िया होते हैं और जब खराब होते हैं तो बहुत खराब. इसका मतलब है एक किस्म की अनिश्चितता जो उन्हें महानता की श्रेणी में जाने से रोकती रही है

मगर सहवाग को इस विश्लेषण से कभी कोई मतलब नहीं रहा. वे एक सीधे इंसान हैं जिसका सीधा सा मकसद है जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा रन बनाना. टेस्ट मैचों में उनका स्ट्राइक रेट 80.44 है. रिकी पोंटिंग के मामले में यह आंकड़ा 59 और ब्रायन लारा के मामले में 60 है. सिर्फ एडम गिलक्रिस्ट ही 82 के स्ट्राइक रेट के साथ उनसे आगे हैं जिन्हें टेस्ट मैचों में शायद ही कभी नई गेंद खेलने को मिली हो. सहवाग नर्सरी राइम सुनाती किसी बच्ची की तरह हैं. जब वे बढ़िया होते हैं तो बहुत बढ़िया होते हैं और जब खराब होते हैं तो बहुत खराब. इसका मतलब है एक किस्म की अनिश्चितता जो उन्हें महानता की श्रेणी में जाने से रोकती रही है: तीन साल पहले लाहौर में 254 रन बनाने के बाद अगली 11 पारियों में वे एक भी अर्धशतक नहीं बना सके; सेंट लूशिया में 180 जड़ने के बाद अगली 12 पारियों में उन्होंने सिर्फ एक अर्धशतक लगाया और चेन्नई में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 319 बनाने के बाद अगली छह पारियों तक वे एक भी अर्धशतक नहीं बना सके.

सहवाग की बल्लेबाजी में एक सीधापन है जो उन लोगों को नहीं भाता जो जटिलता और रहस्यों को पसंद करते हैं. मगर उन्हें समझना चाहिए कि सादा होने का अर्थ सरल होना नहीं है. यही तो सहवाग की विशेषता है कि वे सब कुछ ऐसा बना देते हैं जो बेहद सरल दिखने लगता है. ऐसा लगता तक नहीं कि वे दुनिया के सबसे विध्वंसक बल्लेबाज हैं. बिना पैर हिलाए वे रनों का पहाड़ खड़ा कर सकते हैं.

आदर्श बल्लेबाजी के बुनियादी नियम कहते हैं कि बल्ले को सीधा रखते हुए नीचे लाकर पैर को बॉल की पिच के साथ लाइए, बल्ले और पैड को करीब रखते हुए शाट लगाइए, फिर फॉलो थ्रू कीजिए. यानी क्रिकेट खेलना पूरा हारमोनियम बजाने जैसा है जिसमें यह तय होता है कि किस धुन को बजाने के लिए किन-किन खटकों पर कब और कैसे उंगली रखनी है. मगर सहवाग और उनसे पहले जयसूर्या ने इस हारमोनियम से एक ऐसा संगीत छेड़ा जो पारी की शुरुआत करने वाले बल्लेबाजों से सुनना दुर्लभ था. सहवाग के लिए सिर्फ एक ही सुर मायने रखता है, वह है संतुलन का स्वर.

इतिहास में ऐसे बल्लेबाज रहे हैं जिन्होंने अपने नियम खुद बनाए. गैरी सोबर्स को भी फुटवर्क से कोई खास मतलब नहीं था. विश्व एकादश के लिए खेलते हुए ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उनकी 254 रनों की पारी जिसे ब्रैडमैन ने भी अपने देश की धरती पर खेली सबसे शानदार पारी कहा था, वह इस मामले में भी असाधारण थी कि इसमें फुटवर्क की कोई खास भूमिका नहीं थी. तब यह तर्क दिया जाता था कि सोबर्स को इसलिए कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि वे एक जीनियस थे.

भारत में क्रिकेट की तकनीक को लेकर शुद्धतावादी जुनून शायद इसलिए है क्योंकि इस मामले में हम अंग्रेजों का अनुकरण करते हैं. लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए. जिस तरह भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली अंग्रेजी ज्यादा रंगबिरंगी और मौलिक होती है उसी तरह उनके द्वारा खेला जाने वाला क्रिकेट भी अनूठा होता है. सहवाग इसका उदाहरण हैं जो परंपरागत नियमों पर कम ध्यान देते हुए विदेशी सरजमीं पर पहला शतक लगाने वाले भारतीय मुश्ताक अली के जैसी अंग्रेजी शैली का जरा भी लिहाज नहीं करते.

सहवाग ने खुद को तेंदुलकर की तर्ज पर ढाला और शुरुआत में वे जब टीम में आए थे तो हेलमेट पहने इन दोनों खिलाड़ियों को पिच पर देखकर बताना मुश्किल होता था कि तेंदुलकर कौन है और सहवाग कौन. शायद उन्होंने इसीलिए बाद में अपना वजन बढ़ा लिया ताकि दशर्क उन्हें ज्यादा आसानी से पहचान सकें. 2001 में जब सहवाग ने अपना पहला ही टेस्ट खेलते हुए सेंचुरी लगाई तो वे नंबर छह पर बल्लेबाजी कर रहे थे. चार सीरीज बाद उन्हें लॉर्ड्स में पारी की शुरुआत करने का मौका मिला जहां उन्होंने 84 रन बनाए. अगले ही मैच में उन्होंने शतक बनाया. उनके पहले छह शतकों में से पांच अलग-अलग देशों में बने हैं. यह भी दिलचस्प है कि ये मैच के पहले ही दिन बने.

महानता की तरफ सहवाग ने अपने आखिरी कदम उस बेफिक्री के साथ बढ़ाए जिसके बारे में इस श्रेणी में पहले से ही मौजूद लोग सोच भी नहीं सकते थे. तीस (सहवाग 31 के हो गए हैं) की उम्र के बाद गावस्कर का औसत 48 और तेंदुलकर का 46 तक गिर गया था. लेकिन तेंदुलकर और द्रविड़ के रिटायर होने के बाद सहवाग से लोगों की उम्मीदें और भी बढ़ने वाली हैं. अब तक मध्य क्रम में महान बल्लेबाजों की वजह से सहवाग को ऊपरी क्रम में थोड़ी सी बेपरवाही से खेलने की छूट मिली हुई है. इसलिए उनके सफर का आखिरी स्वरूप तब बनेगा जब उनसे बल्लेबाजी को स्थिरता देने की अपेक्षा की जाएगी. जब उन पर विस्फोटक शुरुआत करने की जिम्मेदारी भी होगी और वक्त पड़ने पर लंगर डालकर खड़े रहने की भी. तेंदुलकर खुद में यह बदलाव लाने में सफल रहे. उन्होंने खुद को एक बेपरवाह किशोर से एक जिम्मेदार वयस्क की भूमिका में सफलतापूर्वक ढाल लिया. यह देखना दिलचस्प होगा कि सहवाग इस बदलाव से कैसे निपटते हैं और जिम्मेदारी का जुआ अपने कंधों पर कितनी गंभीरता से रखते हैं.

मगर इसमें अभी कुछ साल लगने हैं. फिलहाल तो उन्होंने बल्लेबाजी के मायने ही बदल दिए हैं. वे उत्तरआधुनिक दौर के ओपनर हैं जो खेल के तीनों संस्करणों में उपयोगी हैं. 1980 के दशक में जब बैरी रिचर्ड्स ने कहा था कि बल्लेबाजी की तकनीक बदल रही है तो परंपरावादियों ने उनका विरोध किया था जिनका कहना था कि तकनीक कभी नहीं बदल सकती. हारमोनियम के सुर तय रहेंगे. इसके बावजूद अगर सहवाग बिना पैर हिलाए इतने रन बना रहे हैं और समय और ऊर्जा बचा पा रहे हैं तो पूछा जा सकता है कि उनकी शैली को खेल की प्रशिक्षण पुस्तिका में जगह क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

परंपरावादी कहते रहे हैं कि बल्लेबाजी के दो तरीके हैं- सही और गलत. पहला तरीका लिखा हुआ है और दूसरा ऐसा कोई भी तरीका है जो लिखित नियमों को तोड़ता हो. उधर, आधुनिक बल्लेबाज महसूस करते हैं कि बल्लेबाजी के दो तरीके हैं-प्रभावी और अप्रभावी. फिटनेस का स्तर सुधर गया है. बहुत आदर्श कवर ड्राइव भी अक्सर आराम से रोक ली जाती है. लेकिन फील्डिंग कर रही टीम के कप्तान को अगर यह पता न हो कि बल्लेबाज कवर में मारेगा या प्वाइंट में या फिर मिडविकेट में तो फिर बॉल रोकना काफी मुश्किल हो जाता है. वास्तव में देखा जाए तो आधुनिक बल्लेबाजी का सार ही उसकी अनिश्चितता होनी चाहिए. तकनीक के मामले में कुशल किसी बल्लेबाज को बांधा जा सकता है क्योंकि उसके शॉट हारमोनियम की तय धुनों की तरह निश्चित होते हैं. सहवाग ने बल्लेबाजी को बार-बार एक जैसी ही धुन बजाने की बाध्यता से मुक्त किया है.

इसके बावजूद बायकॉट की बात की समीक्षा भी करते चलें. क्या इस तरह के रिकॉर्ड के बावजूद सहवाग को बुद्धिहीन बल्लेबाज कहा जा सकता है? बायकॉट जैसी ही बात कुछ दूसरे खिलाड़ियों ने भी कही थी मगर कम अशिष्टता के साथ. खेल का एक विरोधाभास है. महान खिलाड़ी अक्सर एक दूसरी ही तरह की प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं जो दुनिया की आम समझ से अलग होती है. पेले का दिमाग एक मायने में मोजार्ट या आइंस्टीन की तरह चल सकता है जिससे वे फुटबाल के मैदान पर वह कर सकते हैं जिसे कोई आम आदमी समझ नहीं सकता कि उन्होंने यह कैसे किया. अब इसका मतलब यह नहीं कि यही बुद्धि वे स्टॉक मार्केट में भी दिखा सकें.

क्रिकेट को लेकर सहवाग की प्रतिभा असाधारण है, न कि उनका इतिहासबोध (ओपनर के रूप में पंकज राय के साथ वीनू मांकड़ के विश्व रिकॉर्ड से तीन रन दूर रह जाने के बाद उन्होंने कहा था कि उन्होंने दोनों में से किसी भी खिलाड़ी का नाम नहीं सुना) या व्याकरण. काल्पनिक जासूस शरलाक होम्स अक्सर कहता है कि वह कभी अपने दिमाग को ऐसी बेकार जानकारी से नहीं भरता जिसे किताबों में खोजा जा सके, मगर वह हमेशा अपराधियों का पकड़ा जाना सुनिश्चित करता है. सहवाग भी यह दावा कर सकते हैं. उन्हें यह भले ही पता न हो कि मांकड़ कौन थे मगर उन्हें यह पता है कि एक्स्ट्रा कवर के पीछे दूसरी कतार में बैठे दर्शक तक गेंद कैसे पहुंचानी है. वे भले ही अपनी बल्लेबाजी को खंड-खंड में तोड़कर न समझ सकें पर वे गेंदबाज के उत्साह को तोड़कर उसे उसकी जगह समझा देते हैं.

टेस्ट क्रिकेट में भारत को नंबर एक की गद्दी तक पहुंचाने में सहवाग का योगदान बेहद अहम रहा है. पिछली आठ सीरीज में उन्होंने किसी भी दूसरे बल्लेबाज की अपेक्षा ज्यादा रन बनाए हैं. पिछले 20 टेस्ट मैचों में उनका कुल स्कोर रहा है 2093. वे भारत का नेतृत्व कर चुके हैं, उन्हें टीम से हटाया जा चुका है और फिर उन्होंने शानदार वापसी भी की है. रन बनाने की उनकी रफ्तार ने अक्सर भारत को विपक्षी टीम को आउट करने के लिए पर्याप्त समय दिया है. पिछले साल चेन्नई में इंग्लैंड के खिलाफ 68 गेंदों में बनाए गए उनके 83 रनों की वजह से भारत को एक अप्रत्याशित सी जीत मिली.

मेलबॉर्न में एक बार उन्होंने एक दिन में ही 195 रन ठोक डाले और उनका कैच बिल्कुल बाउंड्री के पास पकड़ा गया. यह हैरत की बात इसलिए नहीं थी क्योंकि उन्होंने अपना पहला तिहरा शतक भी छक्का मारकर पूरा किया था. शायद वे यह कहना चाह रहे थे कि आप 195 पर हों या 295 पर, कैच होने की संभावनाएं समान ही होती हैं! सही मायने में उनसे साहस भी सीखा जा सकता है और प्रेरणा भी ली जा सकती है.

उनकी रफ्तार का मतलब यह भी है कि वर्तमान खिलाड़ियों में से सिर्फ वही ऐसे हैं जो ब्रायन लारा के 400 रनों के रिकॉर्ड को तोड़ सकते हैं, अगर वे 395 पर फिर से कुछ अप्रत्याशित न कर बैठें तो.