25 बरस पुराने हादसे, सौ साल पुरानी किताब

दो दिसंबर, 1984 की रात, भोपाल में यूनियन कार्बाइड के आसपास की बस्तियों में रहने वाले सैकड़ों लोग सोने गए तो फिर उठ नहीं पाए. आधी रात के करीब, कारखाने से रिसी गैस उनकी बेख़बर नींद में ही उन्हें लील गई.

सच्चाई यह है कि यह कुछ लोगों का लोकतंत्न है जो कुछ लोगों द्वारा और कुछ लोगों के लिए चलाया जा रहा है. सारे मानवाधिकार उन्हीं के हैं, सारी कचहरियां और अदालतें उन्हीं के लिए हैं, पुलिस और प्रशासन के सारे इंतजाम उन्हीं के लिए हैं 

वे फिर भी खुशनसीब लोग थे. उस रात जिन लोगों की नींद एक बेचैनी के साथ अचानक टूटी, उन्होंने पाया कि उनकी आंखें जल रही हैं, उनके बदन में अजब तरह की ऐंठन है और उन्हें सांस लेना भी भारी हो रहा है. आधी रात के बाद अपने घर छोड़कर बदहवास भागे ये लोग सड़कों पर गिरे, कुचले गए, घुटन और सांस की तकलीफ की वजह से मारे गए.

ये लोग भी खुशनसीब निकले- उन लोगों के मुकाबले, जो उस रात की त्नासदी के बाद भी बच गए. क्योंकि अगले कई बरसों तक कई त्नासदियां इन बचे हुए लोगों का पीछा करती रहीं- अब भी कर रही हैं. उनके बच्चे अपनी आधी-अधूरी, अशक्त और विकलांग जिंदगी का अभिशाप लेकर पैदा हुए और उससे भी ज्यादा एक ऐसी व्यवस्था का बोझ लेकर, जिसमें उनके साथ न्याय करने की चिंता तो दूर, उनकी न्यूनतम जरूरतें पूरी करने का सहज मानवीय बोध भी नहीं है. 

आज 25 साल बाद जितनी सिहरन गैस त्नासदी को याद करके होती है, उससे कहीं ज्यादा यह खयाल करके कि उस त्नासदी के करीब छह लाख पीड़ित लोगों को- यह सरकार द्वारा स्वीकृत आंकड़ा है- न्याय देना तो दूर, अब तक किसी व्यवस्था में न्याय देने की चाहत भी नहीं दिखी है.

लेकिन भोपाल अकेली त्नासदी नहीं है. भोपाल के गैस रिसाव से बस महीना भर पहले पूरे देश ने उन्माद का एक डरावना रिसाव देखा. 31 अक्तूबर, 1984 की सुबह तत्कालीन प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली और देश में हजारों सिखों से इसका बदला लिया गया- उनके घर लूट लिए गए, उनकी दुकानें जला दी गईं, उन्हें मार डाला गया. भोपाल की गैस ने आधी रात को सोते हुए लोगों को उनके घर से निकलने को मजबूर किया था, लेकिन 84 के उन्माद ने लोगों को दिन-दहाड़े घरों और दुकानों से निकालकर मारा. डरावनी बात यह थी कि इस उन्माद को पुलिस और प्रशासन का मुखर सहयोग नहीं तो मौन समर्थन जरूर हासिल रहा. 25 साल पुरानी इन दो त्नासदियों के आगे-पीछे ऐसी ढेर सारी घटनाएं हैं जहां न्याय अभी तक प्रतीक्षित है- या शायद प्रतीक्षित भी नहीं है- उसकी उम्मीद पूरी तरह मिट चुकी है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न की बहुत बड़ी आबादी अपने अनुभव से यह समझ चुकी है कि न्याय नाम की चिड़िया उन्हीं के पास आएगी जिनके पास सोने और फौलाद के बड़े-बड़े पिंजरे होंगे. निश्चय ही इस टिप्पणी का वास्ता न्यायतंत्न या न्यायपालिका में पैसे की बढ़ रही भूमिका से नहीं है, हालांकि यह भी एक सच है- सबसे धनाढ्य अपराधियों को इस देश के सबसे योग्य वकील बचाते हैं.

लेकिन समझने की बात यह है कि न्याय किसी व्यवस्था का इकहरा या इकलौता मूल्य नहीं हो सकता. उसका वास्ता कई और मूल्यों से है. जो व्यवस्था अपने समाज की भयावह गैरबराबरी से विचलित नहीं होती, जो इस बात से बेखबर रहती है कि पिछले दस या पंद्रह साल में उसके सवा लाख नागरिकों ने आत्महत्या कर ली है, जो इस बात से बेपरवाह रहती है कि उसके एक तिहाई नागरिक गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं, उस व्यवस्था से हम ऐसी संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह किसी हिंसा या गैस रिसाव के कुछ हजार या लाख लोगों की तकलीफ से पसीजकर उनके हिस्से का न्याय पाने और दिलाने की कोशिश करेगी?

ऐसी संवेदनहीन व्यवस्था में न्याय भी बस एक सौदा हो जाता है जो लोग अपनी ताकत के मुताबिक कर लेते हैं. भोपाल ने ही बताया है कि त्रासदी का मुआवजा सबसे ज्यादा उन लोगों को मिला, जो सबसे ऊंचे ओहदों पर थे- मिसाल के तौर पर राज्य के तत्कालीन स्वास्थ्य सचिव को 3 लाख रु पए मिले जिनकी बेटी हादसे के तीन महीने बाद पैदा हुई. तीन लाख रुपए की रकम बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन यह याद करना जरूरी है कि हादसे के 90 फीसदी पीड़ितों को बस 25,000 की रकम नसीब हुई.

दरअसल, यह पूरा मामला बताता है कि भारतीय राष्ट्र राज्य अपने नागरिकों के साथ किस तरह की बेईमानी करता रहा है. इस हादसे का जो सबसे बड़ा मुजरिम है, उस वारेन एंडरसन को सरकारी विमान से विदेश भेज दिया गया जो अब तक भगोड़ा है. इस हादसे के पीड़ितों के इलाज के लिए जो विशेष अस्पताल बनाए गए, वहां से उन्हें लौटाया जाने लगा क्योंकि अस्पतालों में उनकी भर्ती से मुआवजा पाने का उनका दावा मजबूत होता. सरकार ने यूनियन कार्बाइड से जो समझोता किया, वह इतनी कम रकम का निकला कि उससे किसी का पुनर्वास संभव नहीं हो पाया.

84 की सिख विरोधी हिंसा में न्याय के और भी विद्रूप दिखते हैं. यह मामला दिल्ली का था और एक समुदाय से जुड़ा हुआ- इसलिए शायद पीड़ित लोगों को मुआवजा भोपाल के मुकाबले कहीं ज्यादा मिल गया, लेकिन उन्हें न्याय देने-दिलाने की कोशिश या संवेदनशीलता कभी नहीं दिखी. कांग्रेस के नेता अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग ढंग से 84 की हिंसा पर अफसोस जताते रहे, लेकिन पार्टी कभी यह तय नहीं कर पाई कि उसके जिन नेताओं पर हिंसा भड़काने के आरोप लगते रहे हैं, उनके साथ वह क्या सलूक करे. वह अपनी राजनैतिक सहूलियत के हिसाब से कभी उन्हें मंत्नी बनाती रही और कभी उनके टिकट काटती रही. नेताओं के विरुद्ध मुकदमे चले, लेकिन सबूतों और गवाहों के अनमने-हताश सिलसिले में सब दम तोड़ते चले गए.

25 बरस पुरानी दो त्नासदियों का यह हाल देखते हुए याद आती है 100 बरस पुरानी एक किताब. 1909 में, लंदन से दक्षिण अफ्रीका जाते हुए पानी के जहाज पर महात्मा गांधी ने हिंद स्वराजलिखी. पाठक और संपादक के संवाद के रूप में लिखी गई इस किताब में गांधी जी ने रेलों, वकीलों और डॉक्टरों को खूब कोसा- कहा कि हिंदुस्तान को कंगाल बनाने में इन तीनों की भूमिका सबसे बड़ी है.

गांधी जी की बात बहुत कड़ी लगती है- एक हद तक सनक से भरी हुई भी. लेकिन ध्यान से पढ़ें तो समझ में आ जाता है कि गांधी कहना क्या चाहते हैं. उनका बैर वकील, डॉक्टर या रेल से नहीं है, उस प्रवृत्ति, प्रयोजन और प्रेरणा से है जो वकीलों, डॉक्टरों और रेलों के पीछे होती है- कमाई की, वर्चस्व की और उपभोग के अतिरेक की. भोपाल की त्नासदी जैसे गांधी को अक्षर-अक्षर सही साबित करती है. यहां रेल की जगह एक कारखाना है जहां कीटनाशक बनते थे और जिनसे निकली गैस ने आदमी को कीड़ों-मकोड़ों की तरह नष्ट कर दिया. जो बच गए, वे इतने साधनहीन थे कि उन्हें न इलाज करने वाले डॉक्टर मिले न इंसाफ दिलाने वाले वकील.

लेकिन भोपाल की त्नासदी सिर्फ सौ साल पहले लिखे गए हिंद स्वराजको सही साबित नहीं करती, आज के हिंद स्वराज का भी सच बताती है. यह जनता से बहुत दूर खड़ा स्वराज है- इतनी दूर कि उसे आम जन कीड़े-मकोड़ों जैसे ही दिखाई पड़ते हैं. उनके मारे जाने पर उसे परेशानी भले होती हो, अफसोस नहीं होता. जाहिर है, यह दूरी उसे अमानवीय, अन्यायी और हिंसक बनाती है- कई बार यह हिंसा प्रत्यक्ष होती है और कई बार छुपी हुई- जिसमें वह हत्यारों और आक्रमणकारियों का बचाव ही नहीं करता, उन्हें जमीन भी दिलाता है और उनके पकड़े जाने की हालत में भागने की सुविधा भी मुहैया कराता है. हम अक्सर यह कहते नहीं अघाते कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्न हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि यह कुछ लोगों का लोकतंत्न है जो कुछ लोगों द्वारा और कुछ लोगों के लिए चलाया जा रहा है. सारे मानवाधिकार उन्हीं के हैं, सारी कचहरियां और अदालतें उन्हीं के लिए हैं, पुलिस और प्रशासन के सारे इंतजाम उन्हीं के लिए हैं. अब तो अर्थनीति भी उन्हीं के इशारों पर बनाई जा रही है.

ब्रेख्त की एक जानी-पहचानी कविता की पंक्तियां हैं- हमारे हाथ में थमा दिए गए हैं छोटे-छोटे न्याय / ताकि जो बड़ा अन्याय है, उस पर परदा पड़ा रहे.अब तो लगता है कि इन छोटे-छोटे न्यायों में भी राज्यसत्ता की दिलचस्पी नहीं रह गई है. क्या इसलिए कि उसके बड़े अन्यायों पर से परदा हट चुका है?

प्रियदर्शन