आज जो मांगें की जा रही हैं वे भाषा के जरिये विकास और न्याय को सुनिश्चित करने से आगे बढ़कर न्याय और विकास के उपकरणों तक आसान पहुंच स्थापित करने के लिए हैं. एक गोरखालैंड को छोड़कर तेलंगाना, बुंदेलखंड, हरित प्रदेश, विदर्भ आदि राज्यों की मांगें इसी प्रकार की तो हैंआजादी से पहले राज्यों का गठन अंग्रेजों ने कभी अपनी सुविधा के मुताबिक, कभी देश विखंडित ही रहे, ऐसी सोच के साथ और कभी बिना सोचे-समझे भी किया था. मगर कांग्रेस ने देश आजाद होने से पहले 1921 में ही अपने संविधान में बदलाव लाकर अपने सांगठनिक ढांचे को भाषायी आधार पर पुनर्गठित कर लिया था. इससे ही आजादी के बाद भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विचार की नींव पड़ी. चूंकि आजादी के तुरंत बाद तमाम तरह की सुरसा सरीखी चुनौतियां देश के सामने थीं इसलिए संविधान सभा और कांग्रेस की सरकार और नेताओं ने राज्यों के पुनर्गठन के काम की शुरुआत को कुछ सालों के लिए टालना ही उचित समझ. परंतु उसके बाद मद्रास प्रेसिडेंसी के तेलगू भाषी इलाकों में जो कुछ हुआ उसे पिछले महीने के अंत से जो कुछ आंध्र प्रदेश और पूरे देश में हो रहा है, उससे स्पष्ट रूप से जोड़कर देखा जा सकता है.
के चंद्रशेखर राव की तर्ज पर 1952 में अलग आंध्र राज्य की मांग को लेकर एक स्वतंत्रता सेनानी पट्टी श्रीरामलु ने आमरण अनशन शुरू किया और केसीआर की तरह ही उनकी हालत दिसंबर के मध्य में काफी खराब हो गई और उनका देहांत हो गया. इस दौरान आज के आंध्र प्रदेश के तब वाले स्वरूप में वही सब हुआ जो केसीआर के उपवास के दौरान हुआ. जिस तरह से कुछ दिन पहले आधी रात को अचानक ही हमारे गृह मंत्री ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की घोषणा की थी उसी तरह अचानक ही पंडित नेहरू ने भी 1952 में मद्रास प्रेसिडेंसी के तेलगू भाषी इलाकों को अलग कर आंध्र नाम का राज्य बनाने की घोषणा की थी जो 1953 के अक्टूबर माह में बन भी गया. वर्तमान में जिस तरह से तेलंगाना राज्य के गठन की घोषणा के बाद से देश भर में ऐसे कई नए राज्यों की मांग का पिटारा खुल गया है वैसा ही तब भी हुआ था और केंद्र सरकार को तुरंत ही एक राज्य पुनर्गठन आयोग की घोषणा करनी पड़ी जिसने भाषायी आधार पर कई नए राज्यों को बनाने और हैदराबाद स्टेट के तेलगूभाषी इलाके (तेलंगाना क्षेत्र) अपनी विशेष परिस्थितियों की वजह से आंध्र राज्य से जुड़ें या न जुड़ें, इस बात का फैसला उन्हीं पर छोड़ने की सिफारिश की थी.
मगर 60 के दशक की नए राज्यों की मांगों और आज की मांगों में एक बहुत बड़ा बुनियादी अंतर है. भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के पीछे उद्देश्य यह था कि यदि प्रदेश का प्रशासन, न्याय व्यवस्था और शिक्षा पद्धति उसके अपने निवासियों की भाषा में संचालित होंगे तो इससे उनके विकास और न्यायप्राप्ति के रास्ते अधिक सुगम हो जाएंगे. जबकि आज जो मांगें की जा रही हैं वे भाषा के जरिये विकास और न्याय को सुनिश्चित करने से आगे बढ़कर न्याय और विकास के उपकरणों तक आसान पहुंच स्थापित करने के लिए हैं. एक गोरखालैंड को छोड़कर तेलंगाना, बुंदेलखंड, हरित प्रदेश, विदर्भ आदि राज्यों की मांगें इसी प्रकार की तो हैं.
इन मांगों से निपटने का सबसे बढ़िया तरीका वही है जो 1953 में नेहरू जी ने अपनाया था – राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन कर राजनीति से प्रेरित निर्णय की बजाय एक सुविचारित और निष्पक्ष निर्णय लेते दिखना. ऐसा पहले ही हो जाना चाहिए था, मगर अब भी देर नहीं हुई है.
संजय दुबे