अराजकता की सेना

मैं एक पक्का मुंबईकर हूं. मेरी पैदाइश मुंबई में हुई. इसी शहर में मैं पला बढ़ा. यहां का कोना-कोना मेरा जाना-पहचाना है. हो भी क्यों नहीं, आखिर यह वही शहर है जिसने मेरी जिंदगी को आकार दिया है. मगर आज मैं इस शहर से खुश नहीं हूं. लगता है जैसे यहां मैं अजनबी हूं. गुस्सा भी आता है, दुख होता है और घुटन भी होती है. और चीजों की बात तो छोड़िए यहां तो मेरा जीने तक का अधिकार छीन लिया गया है. जब यही अधिकार आपके पास न हो तो फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे दूसरे संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ाई कैसे लड़ी जाए?

शिव सेना, उसके सहयोगियों और सत्तासीन पार्टियों, तीनों के लिए मीडिया की स्वतंत्रता असहजता पैदा करती है. बर्बर तत्वों को निष्पक्ष पत्रकारिता कभी स्वीकार नहीं होगी

20 नवंबर को आईबीएन लोकमत के दफ्तर पर शिवसैनिकों का हमला हुआ. वे अपने साथ लाठियां और लोहे की छड़ें लेकर आए थे. मेरे लिए यह कोई हैरत की बात नहीं थी. 1991 से लेकर आज तक मैं आठ बार शिवसैनिकों के हमलों का निशाना बन चुका हूं. सिर्फ इसलिए क्योंकि मैंने उनके पसंदीदा नेता की आलोचना करने की हिम्मत की थी. मुझे अक्सर धमकियां दी जाती रही हैं कि अगर मैं नहीं सुधरा तो मुझे जान के लाले पड़ जाएंगे. वैसे तो शिव सेना के सभी हमलों में एक भयावह समानता रहती है मगर इस बार यह अलग था. इसलिए क्योंकि आईबीएन लोकमत के स्टाफ ने सात हमलावरों को पकड़ लिया और उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया जो घटना के आधे घंटे बाद पहुंची. ये सातों और उनके अलावा 17 शिव सैनिक जिन्होंने चैनल के पुणे और मुंबई स्थित दफ्तरों पर हमला किया था, अब हत्या की कोशिश के आरोप में पुलिस हिरासत में हैं.

मगर अब तक सिर्फ हुक्म के ताबेदार ही पकड़े गए हैं. हमले का मास्टरमाइंड सुनील राउत अब भी फरार है. सुनील शिव सेना सांसद और इस पार्टी के मुखपत्र सामना के एक्जीक्यूटिव एडिटर संजय राउत का भाई है. ये हमले दो दिनों तक चले. इनके काफी हद तक खत्म हो जाने के बाद भी संजय राउत हमलावर संपादकीय छापते रहे. मगर पूरी तरह से अक्षम कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. 1966 में शुरू हुई शिव सेना अब तक दक्षिण भारतीयों, मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों और उसकी बर्बरता को सामने लाने वाले मीडिया को निशाना बनाती रही है. पार्टी को लगता है कि इससे वह मजबूत होगी.

अब सवाल यह उठता है कि जब शिव सैनिक एक ऐसे दफ्तर पर हमला और लूटपाट कर सकते हैं तो उनके राज में क्या एक आम आदमी का घर सुरक्षित होगा? मैं दो दशक से शिव सेना के निशाने पर रहा हूं. 1991 में उन्होंने पत्रकारों पर तलवारों से हमला किया था और 1993 में उन्होंने एक टूटी बोतल से मेरा पेट फाड़ने की कोशिश की. लेकिन अब तक उनमें से एक भी हमलावर को अपने किए का दंड नहीं मिला है. या तो पुलिस इन घटनाओं की ठीक से जांच नहीं करती या फिर वह हमलावरों पर ऐसी धाराएं लगा देती है जिससे वे सजा से बच जाते हैं. कई मामलों ने तो पुलिस ने गुंडों को गिरफ्तार करने में खुद ही देर की ताकि उन्हें बचकर भागने के लिए पर्याप्त समय मिल जाए. इन्हीं वजहों से शिव सैनिकों को कानून का कोई डर नहीं है. चिंता यह भी है कि कुछ राजनैतिक संगठनों ने उनकी नकल शुरू कर दी है और वे भी अब मीडियाकर्मियों पर हमले करने लगे हैं. वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर तक पर हमला हो चुका है.

मगर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री या विपक्षी पार्टियों को इसकी कोई परवाह नहीं. और शहर की पुलिस तो शिव सेना के प्रति सहानुभूति रखने वाले तत्वों से भरी पड़ी है. उन्हीं की मदद से 1992 के मुंबई दंगों में गुंडों ने जमकर मार-काट मचाई थी. इस शैतानी गठजोड़ की तरफ श्रीकृष्ण आयोग ने भी संकेत किया था जिसने सीधे-सीधे बाल ठाकरे और शिवसैनिकों को कटघरे में खड़ा किया था. शिवसेना से टूटी एमएनएस की विचारधारा अलग नहीं है. मुझे पत्रकारों के पत्र आते रहते हैं जिनमें वे कहते हैं कि उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता है. शिव सेना, उसके सहयोगियों और सत्तासीन पार्टियों, तीनों के लिए मीडिया की स्वतंत्रता असहजता पैदा करती है. बर्बर तत्वों को निष्पक्ष पत्रकारिता कभी स्वीकार नहीं होगी.

मुझे दुख है, मगर इसके बावजूद इस घटना ने मुझे और भी कृतसंकल्प कर दिया है कि मैं शिवसेना की गलत नीतियों पर सवाल उठाऊं. अराजकता की वे कार्रवाइयां भी मुंबई हमले जैसी ही चिंताजनक हैं जिन्हें देश के भीतर से ही खाद-पानी मिल रहा है. 

निखिल वागले

(लेखक आईबीएन लोकमत के संपादक हैं)