व्यवस्था को उनकी सुध नहीं और कट्टरपंथी संगठनों ने उनका जीना दूभर कर रखा है. ऐसे में गुजरात के दंगापीड़ितों को समझ नहीं आ रहा कि वे जाएं तो कहां जाएं? संजना की रिपोर्ट, फोटो: एस राधाकृष्णा
इदरीश इस्माइलभाई वोहरा कहते हैं, ‘डर हमारी जिंदगी का हिस्सा है. गुजरात में मुसलमानों के लिए बचकर भागने का कोई रास्ता नहीं.’ थोड़ी देर चुप रहने के बाद पेशे से दर्जी 36 वर्षीय वोहरा एक ऐसे रास्ते का जिक्र करते हैं जिसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं और मेरा परिवार खुदकुशी कर सकते हैं.’ उनके साथ भटकने वाला 10 साल का उनका बेटा सिर उठाकर हमें देखता है मगर कहता कुछ नहीं. माहौल में बच्चे की खामोशी और वोहरा की निराशा पसर जाती है. तहलका से बातचीत के हफ्ते भर बाद ही आधी रात को कुछ लोगों ने वोहरा पर हमला कर दिया. उनके सिर पर गंभीर चोटें आईं और उन्हें एक हफ्ता अस्पताल में गुजारना पड़ा. उन्हें बार-बार उबकाई और याद्दाश्त के जाने की समस्या हो गई थी. वोहरा अब अस्पताल से छुट्टी पा चुके हैं लेकिन उनके ऊपर खतरा जस का तस बना हुआ है. किसी का सहयोग न मिलने की वजह से उन्होंने पुलिस में भी रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई. मजबूरी में उनके सामने खुद को घर में कैद करने और अपने दोनों बच्चों को रिश्तेदारों के घर भेजने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.
‘हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा कर दी गई है और इस खाई को बार-बार और चौड़ा किया जा रहा है. हमें ऐसे मुस्लिम संगठन की क्या जरूरत है जो मुसलमानों के साथ ही अन्याय कर रहा हो? वह भी कट्टरपंथी विचार थोपकर?’
मुंह खोलने पर गंभीर नतीजे भुगतने का वोहरा का डर बेबुनियाद नहीं है. एक महीना पहले ही अब्दुलभाई पठान को टंकारिया रिलीफ कॉलोनी स्थित उनके घर से इसलिए बाहर फेंक दिया गया था क्योंकि उन्होंने वहां हो रही ज्यादती के खिलाफ आवाज उठाई थी. अब वे मीडिया के किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर देते हैं.
वोहरा और पठान उन हजारों लोगों में से हैं जिन्हें 2002 में गुजरात में हुए भंयकर दंगों के चलते बेघर होने के बाद 81 राहत कॉलोनियों में शरण लेनी पड़ी थी. मगर 2002 के उलट इस बार उनकी मुसीबतों का सबब बिल्कुल ही दूसरा है. तहलका ने इन कॉलोनियों में रह रहे जिन तमाम मुसलमानों से बातचीत की उनका आरोप था कि तबलीगी जमात के लोगों ने उनका जीना दूभर कर दिया है. इसकी वजह यह है कि ये कट्टरपंथी तत्व अब उन कई राहत शिविरों में अपनी सत्ता चला रहे हैं जहां लाखों दंगा पीड़ित मुसलमान रहते हैं.गौरतलब है कि तबलीगी जमात एक ऐसा गुट है जो खुद को अराजनीतिक कहता है और मुसलमानों के सुधार के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करता है.
इन लोगों को ऐसे नियम और पाबंदियां थोपने में भी हिचक नहीं जो स्थानीय रीति-रिवाजों और संस्कृति से मेल नहीं खाते. लोगों को पांच वक्त की नमाज अदा करने की सख्त हिदायत दी गई है और वह भी तय मस्जिदों में. तीन दिवसीय धार्मिक परिचर्चा में सबकी हिस्सेदारी और मौजूदगी अनिवार्य है. किसी घर में टेलीविजन लगाने या फिर रेडियो पर संगीत सुनने की कड़ी मनाही है. इन शिविरों में रहने वाले सभी लोगों से जबर्दस्ती इन नियमों का पालन करवाया जाता है. इसके अलावा मुस्लिम पुरुषों को जहां टोपी लगाने और दाढ़ी रखने का हुक्म है वहीं महिलाओं को हिजाब पहनने और पर्दे में रहने की हिदायत है. जो लोग इन निर्देशों का पालन नहीं करते उन्हें अक्सर या तो चेतावनी दी जाती है या फिर आधी रात को घर से बाहर निकलने के लिए कहा जाता है.
देत्राल शरणार्थी कैंप का दौरा करने पर तहलका ने लोगों के उस डर को नजदीक से महसूस किया जिसका जिक्र वोहरा ने किया था. अपनी पहचान उजागर होने और घर से बेघर होने के डर से कैंप के निवासी कुछ भी बोलने से डरते रहे. हर सवाल पर उनका एक ही जवाब होता कि आप मुस्लिम रिलीफ ऑर्गनाइजेशन (एमआरओ) के लोगों से बात करिए. एमआरओ ने ही इस कैंप को बसाया है. हालांकि यह संस्था तबलीगी जमात से जुड़ी हुई नहीं है लेकिन इसके मुख्य प्रतिनिधि बशीर अहमद दाउद खुद को एक समर्पित जमाती बताते हैं. निर्देशों के बारे में पूछने पर वे इनकार नहीं करते बल्कि इसके समर्थन में तर्क देते हुए कहते हैं कि ये इस्लामी रवायतें हैं और इसका पालन करना ही मुसलमानों के लिए अच्छा है. जोर-जबर्दस्ती और उत्पीड़न के सवाल पर वे जवाब देते हैं कि लोग तो बेवजह ही शिकायतें करते रहते हैं. वे कहते हैं, ‘ये घर जकात (दान का पैसा) से बने हैं और अगर कोई टेलीविजन का खर्च उठा सकता है तो फिर उसे हमारी सहायता की जरूरत नहीं है.’ वैसे जहां तक टेलीविजन की बात हैं तो स्थानीय बाजार में यह 1000 रुपए से भी कम कीमत पर उपलब्ध है. मगर बशीर इस बात पर कोई ध्यान नहीं देते और इंटरव्यू अचानक ही खत्म कर देते हैं.
‘जमात के नेता हम पर बार-बार इस बात का दबाव डाल रहे थे कि हम अपने बच्चों को कैंप के अंदर ही चल रहे मदरसे में पढ़ने के लिए भेजें. कुछ महीने तक तो हम विवाद से बचने के लिए बच्चों को वहां भेजते रहे. मगर मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा दी जाती है. हमारे बच्चे आज की दुनिया में कैसे जिंदा रहेंगे?’
ऐसे में स्वाभाविक ही है कि ऐसी कॉलोनियों के कैंपों में रह रहे ज्यादातर लोगों को ये नियम रास नहीं आ रहे. देत्राल कैंप- जहां वोहरा अभी भी रह रहे हैं- से 2002 के ज्यादातर पीड़ित एक बार फिर से पलायन कर गए हैं. कैंप के 48 घरों में 2002 दंगा पीड़ितों के सिर्फ पांच परिवार रह गए हैं. इस कॉलोनी के सबसे पहले निवासियों में एक 71 वर्षीय मोहम्मद शाह दीवान कहते हैं, ‘हम सब वहां से बाहर आ गए क्योंकि हमसे उनका उत्पीड़न सहा नहीं जा रहा था. कुछ ही घंटों के भीतर हमारे घरों को तबलीगी जमात के सदस्यों के परिवारों को आवंटित कर दिया गया.’ आज दीवान अपने पैतृक गांव लौटने और उन्ही लोगों के बीच में रहने के लिए मजबूर हैं जिन्होंने 2002 में उनके घर को उजाड़ा था. जिस डर का अनुभव उन्होंने कैंप में किया है, गांव में भी स्थिति उससे अलग नहीं हैं.
तहलका ने भरुच, आनंद, पंचमहल, साबरकांठा और वड़ोदरा जिलों का दौरा किया और हर जगह शोषण और अत्याचार की एक सी ही कहानी सामने आई. साबरकांठा के मोदासा स्थित अलांयस-सियासत नगर कैंप में इस तनाव ने बेहद गंभीर रुख अख्तियार कर लिया. जमात नेताओं की हर मनमानी और हस्तक्षेप सहते आ रहे लोगों के सामने जब अपने बच्चों की शिक्षा का सवाल आया तो उन्होंने एक नया रास्ता चुना. कैंप के 110 परिवारों ने एक शिक्षक की नियुक्ति की जो उनके बच्चों को पढ़ाता था. 35 वर्षीय मुमताज बानो महबूब कहती हैं, ‘जमात के नेता हम पर बार-बार इस बात का दबाव डाल रहे थे कि हम अपने बच्चों को कैंप के अंदर ही चल रहे मदरसे में पढ़ने के लिए भेजें. कुछ महीने तक तो हम विवाद से बचने के लिए बच्चों को वहां भेजते रहे. मगर मदरसों में सिर्फ धार्मिक शिक्षा दी जाती है. हमारे बच्चे आज की दुनिया में कैसे जिंदा रहेंगे?’
इसके एक हफ्ते बाद ही जमात के लोगों ने कैंप के चार लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवा दी. उन पर एक मौलाना को पीटने का आरोप लगाया गया. इससे कैंप के निवासियों में और ज्यादा असंतोष पैदा हो गया. मामले के एक आरोपी शेख महमूद भाई पूछते हैं, ‘हम दो साल तक उनके निर्देशों का चुपचाप पालन करते रहे. हमें डर था कि कॉलोनी से बाहर कर दिए जाने पर हम कहां जाएंगे. अगर हमें उसे पीटना होता तो हम दो साल तक इंतजार करते?’ पेशे से दिहाड़ी मजदूर महमूद का कहना था कि 2008 में कैंप के निवासियों ने 5,000 रुपए इकट्ठा करके पुलिस को घूस दी ताकि उनके खिलाफ मामला खत्म हो जाए. उसके बाद से जमात का कोई नेता कैंप में नहीं लौटा है.
सवाल उठता है कि तबलीगी जमात शरणार्थी शिविर में कैसे काम करती है? दरअसल देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही गुजरात में भी जमात के लोग जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के साथ मिलकर काम करते हैं जो उत्तर प्रदेश के देवबंद में स्थित दक्षिणपंथी संस्था दारुल उलूम की एक शाखा है. जमीयत द्वारा गुजरात में स्थापित तमाम राहत शिविरों में तबलीगियों को आसानी से प्रवेश मिल जाता है. जबकि जमाते-ए-इस्लामी से संबद्ध इस्लामी रिलीफ कमेटी के शिविरों में तबलीगी जमात का कहीं सीमित प्रभाव है. युसुफ शेख आंतरिक विस्थापित हक रक्षक समिति के प्रमुख हैं. यह संस्था भी 2002 दंगों के विस्थापितों के लिए राहत कार्य चला रही है. शिविरों में तबलीगियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में पूछने पर वे साफ-साफ कहते हैं, ‘वे बेहद रूढ़िवादी इस्लामी विचार का प्रचार करते हैं जो कि गुजराती मुसलमान के लिए अजनबी चीज है.’ दरअसल गुजराती मुसलमानों की एक बड़ी संख्या अहमद रजा बरेलवी की वंशज है. इसे बरेलवी संप्रदाय कहा जाता है. इसकी छवि थोड़ी उदारवादी है और इसे रूढ़िवादी देवबंदी संप्रदाय के विरोधी के तौर पर देखा जाता है. यूसुफ कहते हैं, ‘हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा कर दी गई है और इस खाई को बार-बार और चौड़ा किया जा रहा है. हमें ऐसे मुस्लिम संगठन की क्या जरूरत है जो मुसलमानों के साथ ही अन्याय कर रहा हो? वह भी कट्टरपंथी विचार थोपकर?’
मगर इन सवालों का तबलीगी जमात के नेताओं और जमीयत उलेमा ए हिंद के पास कोई जवाब नहीं है. तबलीगी जमात के सदस्य किसी मजबूत सांगठनिक ढांचे से इनकार करते हैं. उनके शब्दों में ‘हमारे यहां कोई नेता नहीं रहे क्योंकि यह एक ढीला-ढाला सा समूह है जो इस्लाम पर चर्चा और मुसलमानों को सही राह दिखाने का काम करता है.’ लेकिन गुजरात के प्रभावशाली तबलीगी नेता अफजल मेमन बिना किसी लाग-लपेट के कहते हैं. ‘हम मुसलमानों को सुधारने का मकसद लेकर चल रहे हैं. अगर हम खुद ही सही रास्ते पर नहीं चलेंगे तो फिर दूसरों द्वारा की गई हिंसा की बात कैसे कर सकते हैं?’ शिविरों में रहने वाले शरणार्थियों के शोषण के सवाल को वे पूरी तरह से नकारते हुए कहते हैं, ‘तबलीगी जमात के सदस्य किसी के साथ जोर-जबर्दस्ती नहीं करते. ये सब हमें बदनाम करने के लिए फैलाई गई अफवाहें हैं.’
उधर, इस्लामी रिलीफ कमेटी के गुजरात इकाई के अध्यक्ष मुहम्मद शाह मदनी इस बात को मानते हैं कि तबलीगी जमात और दूसरे संगठनों के बीच टकराव की स्थिति है. वे कहते हैं, ‘यह बात कई बार हमारे सामने लाई गई है. मगर हम इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. अब यह लोगों पर है कि वे संगठित होकर अपनी राय का इजहार करें.’ गुजरात में पिछले सात साल से काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी को कैंपों के अंदरूनी हालात से कोई हैरानी नहीं होती. वे कहती हैं, ‘जब राज्य अपने नागरिकों की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता है तो ऐसे संगठन इन जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए पैदा हो जाते हैं और वे ऐसा अपनी शर्तों पर करते हैं.’
तो कुल मिलाकर गुजरात में मुसलमानों के लिए इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति है. व्यवस्था उनकी तरफ से आंखे मूंदे हुए है और इसका फायदा उठाकर कट्टरपंथी संगठन उन्हें मध्ययुग की तरफ धकेलने में जुटे हुए हैं. ऐसे में ये लोग ज्यादा से ज्यादा सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं.