करीब 25 हजार लोगों की मौत, एक लाख की असाध्य बीमारी और तरह-तरह के दुष्प्रभावों को सालों से भोग रहे भोपाल के आम नागरिकों के लिए गैस कांड की 25वीं बरसी पर सरकार की झोली में क्या है? जवाब है पिकनिक स्पॉट का तोहफा. केंद्र और राज्य की सरकारें तत्कालीन यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री को जल्द ही पिकनिक स्पॉट में तब्दील करने के मंसूबे बांध रही हैं. दर्जनों सरकारी, गैर-सरकारी रिपोर्टों और शहर के प्रभावितों के बीच सक्रिय जन संगठनों की आपत्तियों को खारिज करते हुए दुनिया के औद्योगिक इतिहास की इस भीषणतम त्रासदी की याद में सरकार यहां एक स्मृति संग्रहालय का निर्माण करवाने पर तुली हुई है. राज्य के गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री बाबूलाल गौर और केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि कारखाने का परिसर पूरी तरह जहर मुक्त है और इसमें कोई भी आ-जा सकता है.
दर्जनों सरकारी, गैर-सरकारी रिपोर्टों और शहर के प्रभावितों के बीच सक्रिय जन संगठनों की आपत्तियों को खारिज करते हुए दुनिया के औद्योगिक इतिहास की इस भीषणतम त्रासदी की याद में सरकार यहां एक स्मृति संग्रहालय का निर्माण करवाने पर तुली हुई है
ढाई दशक में पीड़ितों तक पेयजल सरीखी बुनियादी सुविधा तक न पहुंचा सकी राज्य सरकार संग्रहालय के लिए करीब 116 करोड़ रूपए खर्च करने को तैयार है. 2005 में हुई एक डिजाइन प्रतियोगिता के आधार पर स्मृति संग्रहालय बनाने के लिए चुनी गई दिल्ली की कंपनी ‘स्पेस मैटर्स’ की भागीदार मौलश्री जोशी कहती हैं, ‘हमारे डिजाइन के अनुसार पूरे परिसर का विकास होना है. इसमें फैक्ट्री का पुराना ढांचा, प्रदर्शनियां और व्यापक दस्तावेजीकरण शामिल हैं. हिरोशिमा में भी तो परमाणु बम के प्रभावों की याद बनाए रखने के लिए अपनी तरह का संग्रहालय बनाया गया है.’
भोपाल में सक्रिय जन संगठन मौलश्री की बात को पचा नहीं पा रहे. ‘भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन’ के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं, ‘गैस प्रभावितों के इलाज, पेयजल, निवास और मुआवजा वितरण की बदहाली के बरक्स सवा सौ करोड़ रुपए स्मारक पर खर्च करना बेशर्मी है. दरअसल, संग्रहालय के बहाने कहीं ज्यादा बड़े हित साधे जा रहे हैं.’ तथ्यों को देखें तो जब्बार की इस बात में दम दिखाई देता है.
2004 और 2005 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में दाखिल अपने शपथपत्र में तत्कालीन यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के 87 एकड़ रकबे को जहरीला बताने वाली राज्य सरकार को आखिर अचानक यह क्या हो गया? प्रदेश में भाजपा के गद्दीनशीन होने के तुरंत बाद 2004 में गौर ने पिछली कांग्रेस सरकार की छीछालेदर करते हुए कहा था कि फैक्ट्री संबंधी सारी जानकारियां न सिर्फ सार्वजनिक की जाएंगी बल्कि वहां दबा जहरीला कचरा भी साफ करवाया जाएगा. अब वही गौर दो रिपोर्टों का हवाला देकर उल्टा राग अलाप रहे हैं.
इनमें से एक रिपोर्ट रक्षा मंत्रालय के ग्वालियर स्थित ‘डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट’ की है. परिसर को साफ-सुथरा बताने वाली केंद्र और राज्य सरकारों को भेजी गई इस रिपोर्ट के मुताबिक इलाके में इतना कम जहर है कि यदि 70 किलोग्राम वजन वाला कोई व्यक्ति फैक्ट्री में मौजूद पदार्थों का 200 ग्राम भी खा लेता है तो भी उसकी मृत्यु नहीं होगी. दूसरी रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान’ नागपुर की है जिसमें संस्थान के कार्यकारी निदेशक डॉ टी. चक्रवर्ती ने फैक्ट्री परिसर की अपनी कई बार की यात्राओं का जिक्र करते हुए लिखा है कि ऐसा करने से उन्हें और उनके साथियों को कुछ भी नहीं हुआ. इन रिपोर्टों में हालांकि ‘टेक’ की तरह परिसर को जहर मुक्त बताया गया है. लेकिन इसके ठीक उलट पिछले सालों की अनेक रिपोर्टें इस दावे को बेमानी ठहराती हैं.
स्थानीय लोगों और शोधकर्ताओं के मुताबिक 1969 में फैक्ट्री निर्माण के बाद से करीब 20 गड्ढों में कारखाने का प्रदूषित कचरा फेंका जाता था. कभी फैक्ट्री में प्रोडक्शन सुपरवाइजर रहे कमर सईद खान के मुताबिक यहां अभी भी करीब 8000 टन जहरीला कचरा मौजूद है
1990 और 1996 में मध्यप्रदेश के लोक स्वास्थ्य एवं यांत्रिकी विभाग, 1999 में ग्रीनपीस इंटरनेशनल और 1990 और 1996 में सिटी एन्वायरनमेंट लैब, बोस्टन द्वारा जारी की गई रिपोर्टों ने फैक्ट्री और उसके आसपास के इलाके में खतरनाक रसायनों की उपस्थिति की पुष्टि की है. मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 1998 से 2006 के बीच हर तीन महीने में पड़ताल करके यहां जहरीले पदार्थों की मौजूदगी पर ठप्पा लगाया है. इन पदार्थों से होने वाली बीमारियों पर इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने 24 अध्ययन किए थे पर इनकी कोई रिपोर्ट सार्वजिनक नहीं की गई, उल्टे 1985 से 1994 के बीच इन सभी अध्ययनों को बंद कर दिया गया. अध्ययनों में शामिल विशेषज्ञों के मुताबिक प्रभावित लोगों में कैंसर, विकलांगता और फेफड़ों व आंखों से संबंधित बीमारियां पाई गईं. सबसे ताजा दिल्ली के ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट’ (सीएसई) की रिपोर्ट है जिसमें प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं के हवाले से फैक्ट्री परिसर और आसपास का इलाका जहरीला बताया गया है.
‘भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉरमेशन एंड एक्शन’ की रचना धींगरा कहती हैं, ‘केंद्र और राज्य की सरकारें यूनियन कार्बाइड के मौजूदा मालिक डॉउ केमिकल्स को बचाने में लगी हैं. दर्जनों रिपोर्टों को ठेंगे पर रखकर सरकारें परिसर को साफ-सुथरा बता रही हैं ताकि डॉउ केमिकल्स का कचरा साफ करने का खर्च बचाया जा सके. सीएसई की डायरेक्टर सुनीता नारायण के मुताबिक फैक्ट्री परिसर से जहरीला कचरा हटाने में करीब एक हजार करोड़ तक का खर्चा आ सकता है. परिसर के सुरक्षित होने की यह घोषणा डॉउ को न्यूयार्कडिस्ट्रिक्ट कोर्ट में इसी मामले पर 1999 से जारी मामले से भी मुक्त करवा सकती है.’
फैक्ट्री के पूर्व कर्मचारियों, स्थानीय लोगों और शोधकर्ताओं के मुताबिक 1969 में फैक्ट्री निर्माण के बाद से करीब 20 गड्ढों में कारखाने का प्रदूषित कचरा फेंका जाता था. कभी फैक्ट्री में प्रोडक्शन सुपरवाइजर रहे कमर सईद खान के मुताबिक यहां अभी भी करीब 8000 टन जहरीला कचरा मौजूद है. पिछले साल ‘भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन’ के साथ खान ने इन जहरीले रसायनों की सूची तैयार की थी जिसके अनुसार आज भी फैक्ट्री में नेफ्थलीन सल्फोनिक एसिड, सोडियम नेफ्थलीन सल्फेट, सेविन टार, मर्करी, पाइप में मिथाइल आइसोसाइनेट और फास्जीन जैसे खतरनाक पदार्थ मौजूद हैं. राज्य हाईकोर्ट के आदेश पर 2005 में गठित टास्क फोर्स की तकनीकी उप-समिति का जिक्र करते हुए जब्बार कहते हैं, ‘इस समिति ने 2006 में कचरे को उचित उपचार के लिए अमरीका भेजने का सुझाव दिया था, लेकिन आज भी यह जहर जहां-का-तहां है.’
जहरबुझे परिसर को साफ-सुथरा बताने के पीछे अब शहर के भू-माफिया के हित भी सामने आ रहे हैं. फैक्ट्री के पास करीब 20 एकड़ का ‘जहरीला तालाब’ फैक्ट्री से निकलने वाले जहरीले पानी और प्रदूषित पदार्थों को ठिकाने लगाने के काम आता था. सूत्रों के मुताबिक आज भी इस सूखे तालाब में करीब दस हजार टन कचरा मौजूद है, लेकिन पिछले 25 सालों में पुराने शहर के लगभग बीच में आ चुके इस रकबे में रिहायशी प्लॉट काटे जाने लगे हैं. जहरबुझा क्षेत्र बताने से भू-माफिया की इस कमाई पर रोक लग सकती है.