टेस्ट क्रिकेट द्रविड़ के मिजाज से मेल खाता है. जैसे उनसे पहले गावस्कर और उनसे भी पहले विजय हजारे और मर्चेंट के मिजाज से खाता था. ऐसे में यह कल्पना करना आसान है कि द्रविड़ का असली रूप खेल के इस लंबे संस्करण में ही दिख सकता है. मगर अपनी शुरुआती प्रतिकूलता पर विजय पाकर उन्होंने एकदिवसीय क्रिकेट में सफलता के जो झंडे गाड़े वह दिखाता है कि उनके दिल और दिमाग का तालमेल कितना जबर्दस्त है. गावस्कर ऐसा नहीं कर पाए थे.
इस बात पर बहस हो सकती है कि सबसे बड़ा भारतीय बल्लेबाज कौन है या किस स्पिनर को नंबर वन कहा जाना चाहिए मगर इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय टीम में अब तक द्रविड़ सर्वश्रेष्ठ स्लिप फील्डर रहे हैं जिनके नाम आउटफील्ड में सबसे ज्यादा कैच लेने का विश्व रिकॉर्ड है
द्रविड़ को खेल के इस छोटे संस्करण में स्वीकार्यता पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी. शुरुआती दिनों में उनके तरकश में शॉट तो होते थे मगर एक पारंपरिक क्षेत्ररक्षण व्यूह बनाकर उन्हें काबू किया जा सकता था. वे बॉल को उठाकर नहीं मारते थे और तेज पिचों पर उठती गेंदों को तेंदुलकर और गांगुली की तरह उनकी उछाल पर नहीं खेलते थे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के अपने पहले साल में एकदिवसीय मैचों में द्रविड़ का उच्चतम स्कोर 90 रहा. उन्होंने 20 मैच खेले और उनका औसत रहा 28 जिसे ठीक-ठाक कहा जा सकता है. अगले साल उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ एक शतक जमाया और उनका औसत बढ़कर 40 हो गया. मगर इसके बाद उनसे साथ एक छल हुआ जो भारतीय क्रिकेट में नई बात नहीं है. उनसे कहा गया कि जब टीम में तेंदुलकर, अजहरुद्दीन, गांगुली, अजय जडेजा जैसे बल्लेबाज हैं तो उनकी भूमिका यह है कि वे एक छोर थामे रखें और 50 ओवर तक बल्लेबाजी करें.
द्रविड़ ने इन निर्देशों का पालन किया, इतनी अच्छी तरह किया कि उनका स्ट्राइक रेट गिर गया और विडंबना देखिए कि उन्हें इसी वजह से टीम से बाहर कर दिया गया. उनपर एक ठप्पा लगाकर उन्हें खारिज कर दिया गया. ठप्पा यह था कि उनकी रन गति धीमी है और इसलिए वे एकदिवसीय क्रिकेट में फिट नहीं हो सकते. मगर द्रविड़ ने कड़ी मेहनत की और टीम में फिर से जगह पाने में कामयाब रहे. 1999 का विश्व कप सामने था और इसमें उन्होंने खुद को एक शानदार एकदिवसीय बल्लेबाज के रूप में स्थापित कर लिया. अब उनके बल्ले से निकले शॉट सीमा पार पहुंच रहे थे और उन्हें उठाकर शॉट मारने में कोई हिचक नहीं हो रही थी. नतीजतन 461 रनों के साथ वे टूर्नामेंट के अगुवा बल्लेबाज के रूप में उभरे. इस दौरान उनका औसत 66 था और स्ट्राइक रेट 86. टूर्नामेंट में उन्होंने दो शतक लगाए थे.
जल्दी ही बल्लेबाजी क्रम में उन्होंने खुद को एक लचीले विकल्प के रूप में स्थापित कर लिया. वे पारी की शुरूआत भी कर सकते थे, नंबर तीन पर भी खेल सकते थे और अगर लक्ष्य का पीछा करते हुए मानसिक रूप से सुरक्षित रहने की जरूरत पड़ी तो और भी नीचे के क्रम में आ सकते थे. अनिच्छा के बावजूद उन्होंने विकेटकीपिंग भी की क्योंकि इससे टीम में जरूरत के मुताबिक एक अतिरिक्त गेंदबाज या बल्लेबाज की जगह हो जाती थी. एकदिवसीय क्रिकेट ने विश्वनाथ और द्रविड़ के बीच अंतर भी पैदा किया. विश्वनाथ अपने करिअर के बाद के वर्षों में शैली के लिहाज से लगातार पारंपरिक होते चले गए थे. यह एक ऐसा परिवर्तन था जिसे बढ़ती उम्र और धीमी प्रतिक्रिया ने उनपर थोप दिया था. उन्होंने लेग की बजाय मिडिल स्टंप पर गार्ड लेना शुरू कर दिया था और वे सीधे बल्ले से ज्यादा खेलने लगे थे. द्रविड़ इससे बिल्कुल उल्टी दिशा में गए. उन्होंने अपने कुछ ऐसे छिपे पहलू खोज निकाले जो एकदिवसीय क्रिकेट पर बिल्कुल फिट बैठते थे. उन्होंने परंपरा की बेड़ियों से धीरे-धीरे खुद को मुक्त किया और खेल को और भी सृजनात्मक तरीके से खेलना शुरू किया. वैसे भी अगर गेंदबाज और विकेटकीपर को छोड़ दें तो मैदान पर नौ जगहों पर ही तो क्षेत्ररक्षक लगाए जा सकते हैं. खाली जगहें तमाम होती हैं. मिड ऑन और मिड विकेट के बीच की जगह तो द्रविड़ की पसंदीदा बन गई. कवर प्वाइंट के बाईं तरफ की खुली जगह भी उन्हें रास आई. अगर कप्तान फील्डरों की जगह में बदलाव करते तो उनके तरकश में तब भी पर्याप्त हथियार होते जिनसे वे रन बटोर लेते.
तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी खेल में दुर्लभता से ही पैदा होते हैं और जब वे जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि उनकी जगह को कभी नहीं भरा जा सकता. उनकी कोई विरासत नहीं होती. विरासत गावस्कर और द्रविड़ सरीखे खिलाड़ी छोड़ते हैं
जब द्रविड़ ने कप्तानी की कमान संभाली तो उन्होंने खेल का आनंद लेने की अहमियत पर जोर दिया. यह बढ़िया रणनीति थी. उनका कहना भी था कि सहजता के बिना अच्छा नहीं खेला जा सकता. और जब इंग्लैंड के दौरे के बाद तत्कालीन बोर्ड मुखिया के साथ झड़पों की वजह से उन्होंने कप्तानी छोड़ी तो वे तेंदुलकर का ही अनुसरण कर रहे थे. तेंदुलकर ने भी कप्तानी छोड़ दी थी. इसलिए नहीं कि उन्हें यह पसंद नहीं थी बल्कि इसलिए कि इसके साथ जुड़ी राजनीति से उन्हें नफरत थी. इस बात पर बहस हो सकती है कि सबसे बड़ा भारतीय बल्लेबाज कौन है या किस स्पिनर को नंबर वन कहा जाना चाहिए मगर इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती कि भारतीय टीम में अब तक द्रविड़ सर्वश्रेष्ठ स्लिप फील्डर रहे हैं जिनके नाम आउटफील्ड में सबसे ज्यादा कैच लेने का विश्व रिकॉर्ड है. उनके इस पहलू का ज्यादा जिक्र नहीं हुआ है. कैच लेने की उनकी शैली भी किसी कला से कम नहीं. अपने सटीक पूर्वानुमान के बूते वे तुरंत पोजीशन में आ जाते हैं और कैच कितना भी मुश्किल हो इसकी वजह से अक्सर उन्हें रोमांचक छलांग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती. स्लिप में खड़े द्रविड़ का संतुलन देखने लायक होता है. पोजीशनिंग की कला का अध्ययन उन्हें देखकर किया जा सकता है. खासकर स्पिनरों के साथ. 100 के करीब कैच तो उन्होंने कुंबले और हरभजन की गेंदों पर पकड़े हैं. इससे पता लगता है कि भारत के दो सफलतम स्पिनरों के करिअर को आकार देने में उन्होंने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसलिए जब द्रविड़ खेल को अलविदा कहेंगे तो टीम में दो शून्य पैदा होंगे. पहला मध्यक्रम में एक शानदार बल्लेबाज की कमी का और दूसरा स्लिप में अब तक के सर्वश्रेष्ठ फील्डर का.
यह सब देखते हुए स्वाभाविक रूप से उनकी तुलना हैमंड के साथ होती है. हैमंड भी एक मनोहर बल्लेबाज थे जिनके पास सबसे मशहूर कवर ड्राइव थी और वे स्लिप के असाधारण फील्डर भी थे. हैमंड भी अपने दौर के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज होते मगर उनसे कम मनोहर मगर ज्यादा प्रभावी ब्रैडमैन के चलते ऐसा नहीं हो पाया. द्रविड़ पुराने मिजाज के आधुनिक खिलाड़ी हैं.
क्रिकेट उन चंद खेलों में से एक है जहां पुराने मिजाज का यानी ओल्ड फैशंड होना तारीफ के तौर पर लिया जाता है. दूसरे खेलों में ऐसा नहीं होता. उदाहरण के तौर पर यदि आप रफेल नाडाल को ओल्ड फैशंड कहेंगे तो यह उनका अपमान हो जाएगा. दरअसल भाषा में यह शब्द इस तरह से ढल गया है कि इसके मायने जिद्दी, कठोर या किसी नकारात्मक बात से लगाए जाने लगे हैं. मगर द्रविड़ के मामले में यह शब्द एक ऐसे खिलाड़ी को दर्शाता है जिसने आधुनिक चुनौतियों से निपटने के लिए पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल किया, एक ऐसा खिलाड़ी जो खेल का व्याकरण समझता है और इसका प्रयोग आदर्श निबंध जैसी पारियां लिखने में करता है.
हर पेशे में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपने साथियों के लिए आदर और प्रेरणा की वजह होते हैं. यह सिर्फ क्षमताओं की बात नहीं होती बल्कि इसका लेना-देना स्वभाव, अनुशासन और विपरीत परिस्थितियों में संकट से बाहर निकलने और निकालने की योग्यता से भी होता है. पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से द्रविड़ भारतीय क्रिकेट में यह भूमिका निभाते आ रहे हैं. इसे देखते हुए यह बिल्कुल स्वाभाविक लगता है कि जब भी कल की बड़ी उम्मीदें लड़खड़ाने लगती हैं तो वर्तमान और भविष्य के बीच के पुल को मजबूत करने के लिए द्रविड़ सामने आते हैं. हाल ही में ऐसा तब हुआ जब दो साल तक एकदिवसीय क्रिकेट से दूर रखे जाने के बाद उन्हें चैंपियंस ट्रॉफी के लिए एकदिवसीय टीम में शामिल किया गया. मगर साफ था कि उनकी भूमिका उन्हें अच्छे से नहीं समझाई गई थी. क्या यह एक अस्थायी इंतजाम था क्योंकि टूर्नामेंट दक्षिण अफ्रीका की उछाल भरी पिचों पर खेला जा रहा था जहां आईपीएल के पहले एपिसोड के कई युवा स्टार ढेर हो चुके थे? या इसका मतलब यह था कि वे 2011 के विश्वकप के दौरान टीम में होंगे? या फिर ऐसा यूं ही किया जा रहा था?
चैंपियंस ट्रॉफी में तो द्रविड़ ने अच्छा प्रदर्शन किया मगर आसान घरेलू विकेटों पर उन्हें कहीं बड़ी चुनौती मिली और उन्हें नौजवानों के लिए जगह छोड़नी पड़ी. यह देखकर खराब लगता है कि अपने करिअर के शुरुआती और आखिरी दोनों छोरों पर द्रविड़ जैसे खिलाड़ी को इस तरह खिलाया गया. करिअर के मध्य दौर में तो कोई ऐसा सोच भी नहीं सकता था. इंग्लैंड के दौरे पर उनके लिए जो गड्ढ़ा खोदा गया था उससे बाहर निकलने में द्रविड़ को दो साल लग गए. वक्त बुरा हो तो साथी भी साथ छोड़ देते हैं. इस सीरिज के बाद कुछ जूनियर खिलाड़ियों ने भी उनकी आलोचना की थी. उनकी बल्लेबाजी का वह आत्मविश्वास गायब हो गया था. यहां तक कि उनकी फील्डिंग भी खराब हो गई. 14 पारियों में वे कोई शतक नहीं बना सके और उनका औसत फिसलकर 38 पर आ गया. लगातार यह कहा जाने लगा कि उनका वक्त खत्म हो गया है. कइयों ने उन्हें लड़ने की बजाय सम्मानजनक तरीके से संन्यास की सलाह भी दी. मगर शायद वे द्रविड़ की प्रकृति को भूल गए थे. भूल गए थे कि द्रविड़ को सबसे ज्यादा प्रेरणा ही तब मिलती है जब कोई कहे कि तुम इस लायक नहीं हो.
दक्षिण अफ्रीका और इंग्लैंड के खिलाफ उनके शतक आलोचकों को शांत करने में नाकामयाब रहे. मगर इसके बाद न्यूजीलैंड सीरिज में भी जब उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया तो सब खामोश हो गए. फिर अहमदाबाद और कानपुर की पारियों में उसी पुराने द्रविड़ की झलक दिखी. उसी सफाई, आक्रमण और नियंत्रण की जिसके बल पर वे अपने बेहतरीन वर्षों में गेंदबाजों को पस्त करते रहे थे. अचानक ही 36 की उम्र में दो महान भारतीय खिलाड़ियों को एक नया जीवन मिल गया है. ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रनों की असाधारण पारी ने इस बहस को फिलहाल तो विराम दे दिया है कि 2011 में होने वाले विश्वकप के लिए तेंदुलकर टीम में होंगे अथवा नहीं. द्रविड़ भी हो सकते हैं मगर यदि ऐसा नहीं होता तो भी उन्हें ज्यादा निराशा नहीं होगी. क्योंकि उनके बल्ले से अब फिर से रनों की बरसात होने लगी है. और ये रन उसी तरीके से बन रहे हैं जिसमें उन्हें सबसे ज्यादा आनंद आता है.
तेंदुलकर सरीखी प्रतिभा की महानता को आंकना मुमकिन नहीं. द्रविड़ की महानता न सिर्फ समझ में आती है बल्कि आश्वस्त भी करती है. तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी खेल में दुर्लभता से ही पैदा होते हैं और जब वे जाते हैं तो यह मान लिया जाता है कि उनकी जगह को कभी नहीं भरा जा सकता. उनकी कोई विरासत नहीं होती. विरासत गावस्कर और द्रविड़ सरीखे खिलाड़ी छोड़ते हैं. अपनी सही कीमत और भारतीय क्रिकेट में अपने योगदान को जानने के लिए द्रविड़ को शायद अभी इंतजार करना होगा. वे असीमित धैर्य वाले इंसान हैं और लगता भी नहीं कि उन्हें कोई जल्दी है.