आतंक का ऑक्सीजन बनता मीडिया

यदि समाचार चैनलों ने 26/11 से कोई एक सबक सीखा है तो वह यह कि खून का बहना ही सबसे बड़ी सुर्खी है

जाने-माने पत्नकार वीर संघवी ने 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमलों के दौरान समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका पर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा है कि मीडिया ने अपनी गलतियों से सबक लिया है. उनका दावा है कि अगर भविष्य में ऐसा कोई आतंकवादी हमला फिर हुआ तो मीडिया इस बार वे गलतियां नहीं दोहराएगा.

लेकिन 26/11 के बाद पिछले एक साल में और खासकर इस साल उसकी बरसी पर मीडिया और उसमें भी टीवी चैनलों के कवरेज को देखकर ऐसी कोई उम्मीद नहीं बंधती. इस कवरेज को देखकर नहीं लगता कि टी.वी चैनलों ने कोई सबक सीखा है. वीर संघवी से शर्त लगाने की इच्छा होती है कि अगर दुर्भाग्य से फिर कोई आतंकी हमला हुआ तो टी.वी चैनल वही गलतियां दोहराएंगे. असल में, चैनलों ने 26/11 से सिर्फ एक सबक सीखा है. वह यह कि अगर खून बहा है तो यही सुर्खी है (इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स). यानी आतंक बिकता है. आतंक टी.आर. पी. की गारंटी बन गया है. सच पूछिए तो चैनलों को खून का स्वाद लग चुका है. आतंक उनके लिए एक लुभावना फॉर्मूला बन गया है. खासकर हिंदी समाचार चैनलों को लगता है कि दशर्कों को डराकर चैनल के साथ बांधे रखा जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि 26/11 की तकलीफदेह और सुन्न कर देनेवाली स्मृतियां लोगों को डराती, चौंकाती और परेशान करती हैं.

यही कारण है कि चैनल इस या उस बहाने 26/11 के जख्म को हमेशा हरा रखने की कोशिश करते हैं. पिछले एक साल में कभी 26/11 के आतंकवादियों और उनके पाकिस्तानी आकाओं के एक्सक्लुसिव टेप सुनाने, गिरफ्तार कसाब की कहानी बताने और लगभग दैनिक तौर पर कभी लश्कर और कभी अन्य आतंकवादी जमातों की अगले हमलों की तैयारियों की सच्ची-झूठी रिपोटरें के बहाने आतंकवाद हिंदी चैनलों के प्राइम टाइम का एक स्थायी विषय बन चुका है. रही-सही कसर चैनलों में तथ्य को गल्प और गल्प को तथ्य की तरह पेश करने वाले भाषा के जादूगर और फेफड़े के जोर से चिल्लाते एंकर पूरा कर देते हैं. चैनलों पर लगभग रोज उबकाई की हद तक पाकिस्तान की पिटाई-धुलाई के साथ अल कायदा, ओसामा और तालिबान का हौव्वा खड़ा किया जाता है.

ऐसे में, चैनल 26/11 की बरसी को भुनाने में कैसे पीछे रह सकते थे? हालांकि इस बरसी से पहले केंद्र सरकार ने सभी समाचार चैनलों को एक निर्देशनुमा सलाह भेजकर अपील की थी कि वे 26/11 की बरसी पर अपने कार्यक्रमों और रिपोर्टों में संतुलन और जिम्मेदारी का ध्यान रखें. सरकार ने साफ-साफ कहा कि 26/11 के आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों के शवों, घायलों के खून और चीत्कार, रिश्तेदारों के दर्द आदि के दृश्यों को बार-बार दिखाने से न सिर्फ उस त्नासद और दुखद घटना की यादें ताजा होंगी बल्कि  लोगों में डर और असुरक्षा का भाव पैदा करने का आतंकवादियों का बुनियादी मकसद भी पूरा होगा.

लेकिन किसी भी चैनल ने इस सलाह का ध्यान नहीं रखा और उन 60 घंटों को याद करने के बहाने वह सब फिर-फिर दिखाया जो नहीं दिखाने के लिए कहा गया था. इन कार्यक्रमों में तथ्य और तर्क कम और भावनाएं और अतिरेक ज्यादा था. हमेशा की तरह इंडिया टी.वी सबसे आगे रहा जिसने उस आतंकवादी हमले को एक बार फिर फिल्मी अंदाा में रीक्रियेट किया. लेकिन इंडिया टी.वी. ही क्यों, बाकी हिंदी चैनल भी पीछे नहीं थे. सबने यहां तक कि सोबर और संतुलित माने जाने वाले अंग्रेजी चैनलों ने भी पूरी नाटकीयता से उन 60 घंटों को पेश किया. शहीदों की याद में एक बार फिर पिछली बार की तरह मास हिस्टीरिया जैसा माहौल बनाने की कोशिश की गई. टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी तो ऐसा लगता है कि 26/11 से आगे बढ़े ही नहीं हैं. यदि उनकी चलती तो 26/11 के बाद भारत ने पाकिस्तान पर हमला बोल दिया होता. हालांकि ऐसा हुआ नहीं लेकिन अर्नब पर इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा है और पाकिस्तान के खिलाफ उनका अभियान जारी है.

लेकिन जाने-अनजाने ऐसा करके चैनल आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं. याद रखिए आतंकवादियों का सबसे बड़ा उद्देश्य प्रचार पाना होता है. पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्नी मार्गरेट थैचर के शब्दों में कहें तो आतंकवाद के लिए प्रचार ऑक्सीजन की तरह है. इसीलिए आतंकवाद को प्रोपेगंडा बाई डीडमाना जाता रहा है. मुंबई पर हमला करने वाले आतंकवादियों का मकसद भी दो समुदायों और देशों के बीच नफरत पैदा करने से लेकर युद्ध भड़काने के अलावा प्रचार पाना भी था. मीडिया 26/11 को इस तरह और इस हद तक याद कर उन आतंकवादियों की ही तो मदद नहीं कर रहा है?

आनंद प्रधान