26/11 कहने से बात नहीं बनती

26 नवंबर, 2008 की रात मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को 26/11 कहते हुए शायद कुछ लोगों को आसानी होती हो, लेकिन मुझे असुविधा होती है. यह नामकरण मुंबई के इस हमले को आठ साल पहले न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुए हमले से जोड़ देता है जिसे अमेरिका 9/11 के रूप में याद करता है. लेकिन अमेरिका के लिए 9/11 सिर्फ एक सुबह हुए आतंकी हमले का नाम नहीं है, वह उसके लिए आतंकवाद की पूरी परिघटना को समझने का एक संदर्भ बिंदु भी है. 9/11 के बाद अमेरिका के लिए आतंकवाद और आतंकवादी- दोनों का मतलब बदल गया. इसी हमले के बाद उन दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति रहे जॉर्ज बुश ने आतंक के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय युद्ध की घोषणा की और यह चेतावनी भी उछाल दी कि जो इस युद्ध में अमेरिका के साथ नहीं है, वह आतंकवाद के साथ है. उन दिनों भारत ने बड़ी तत्परता से अमेरिका को सहयोग का प्रस्ताव भेजा और केंद्र की एनडीए सरकार यह उम्मीद करने लगी कि अमेरिका का अब पाकिस्तान से मोहभंग होगा और वह भारत के उन संकटों को समझेगा जो सीमा पार का प्रायोजित आतंकवाद भारत में पैदा कर रहा है.

अल क़ायदा की शाखाएं भले अमेरिका में हों, उसकी जड़ें वहां की जमीन में नहीं हैं. इसलिए अमेरिका के लिए यह आसान था कि वह अपनी सुरक्षा कुछ कड़ी करके, अपने नागरिकों की आजादी छीन कर, अपनी नागरिक स्वतंत्नता के मूल्यों को थोड़ा सिकोड़कर खुद को महफ़ूज कर ले

लेकिन अमेरिका को इसकी फुरसत नहीं थी. उसे अपने दोस्तों और दुश्मनों के पते पहले से मालूम थे. उसे पता था कि आतंक के खिलाफ इस लड़ाई में उसे फिलहाल भारत की नहीं, पाकिस्तान की ही जरूरत है. आखिर एक दौर में पाकिस्तान के साथ मिलकर ही उसने सोवियत संघ के विरुद्ध अफगानिस्तान में तालिबान को खड़ा किया था जो अल कायदा का सहोदर भले न हो, सगा जरूर है. तब से आज तक अमेरिका आतंक के विरुद्ध यह युद्ध कैसे लड़ रहा है, किन ताकतों की मदद ले रहा है, किन ठिकानों पर वार कर रहा है, यह दुनिया देखती रही है. भारत का भी यह भ्रम टूट चुका है कि अमेरिका उसका संकट दूर करने के लिए कोई लड़ाई लड़ेगा- या उसकी लड़ाई से भारत का भी कुछ भला हो जाएगा.

दरअसल, हमारे लिए समझने की जरूरत यही है कि 26/11- यानी मुंबई पर हुए हमले- 9/11 नहीं हैं. अमेरिका में आतंक की तारीख एक है, हमारे पास ऐसी तारीखें लगातार जमा होती गई हैं- हमारे कई 9/11 हैं. हमारे लिए मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, अहमदाबाद, बेंगलुरु , अयोध्या, लखनऊ, रामपुर आदि सिर्फ शहरों के नाम नहीं हैं, आतंकी मंसूबों के नक्शे भी हैं जो हाल के वर्षों में अंजाम दिए जाते रहे. और इसकी वजह सिर्फ यह नहीं है कि अमेरिका ने अपनी कानून व्यवस्था दुरुस्त कर ली और हम कर नहीं पाए. दरअसल, भारत और अमेरिका में आतंकवाद की कैफियतें अलग-अलग हैं और जब तक हम उन्हें ठीक से नहीं समझेंगे, अपने यहां के आतंकवाद का खात्मा नहीं कर पाएंगे.

अमेरिका में जिन आतंकियों ने विमानों का अपहरण कर उन्हें अमेरिका के सबसे मजबूत आर्थिक और सामरिक प्रतीकों से टकरा दिया, उनका गुस्सा अमेरिका की वर्चस्ववादी नीतियों और इस्लामी दुनिया को लेकर अमेरिका के तथाकथित शत्नुतापूर्ण रवैये से था. इस लिहाज से अल क़ायदा की शाखाएं भले अमेरिका में हों, उसकी जड़ें वहां की जमीन में नहीं हैं. इसलिए अमेरिका के लिए यह आसान था कि वह अपनी सुरक्षा कुछ कड़ी करके, अपने नागरिकों की आजादी छीन कर, अपनी नागरिक स्वतंत्नता के मूल्यों को थोड़ा सिकोड़कर खुद को महफ़ूज कर ले.

भारत के लिए यह काम इतना आसान नहीं है. इसका वास्ता सिर्फ पुलिस और प्रशासन की उस लुंज-पुंज व्यवस्था से नहीं है जिसका अपना वर्गीय चरित्न है और जिसकी वजह से वह या तो मजबूत लोगों के दलाल की तरह काम करती है या फिर कमजोर लोगों के दुश्मन की तरह – इसका वास्ता उस जटिल सामाजिक- राजनीतिक विडंबना से भी है जो बीते 60 साल में बदकिस्मती से भारत में विकसित होती चली गई है. इसी विडंबना के नतीजे में हमारे पास कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर तक का अलगाववाद है और नक्सलवाद-माओवाद से लेकर दलितवाद तक का असंतोष. कुछ प्रशासन की अपनी औपनिवेशिक विरासत और समझ के चलते और कुछ अमेरिका-यूरोप का मुखापेक्षी होने की आदत की वजह से, हम इन सबको एक ही डंडे से हांकना चाहते हैं- बिन यह समझे कि इन समस्याओं की जड़ें कहीं हमारे समाज में हैं और उन्हें खत्म किए बिना हम आतंकवाद या किसी भी समस्या के विरुद्ध अपना युद्ध नहीं लड़ पाएंगे. और मामला सिर्फ आतंकवाद का नहीं है. ध्यान से देखें तो भारतीय लोकतंत्न को जो सबसे बड़ी चुनौतियां मिल रही हैं, उन सबके जवाब हम एक ही तरीके से देना चाहते हैं. दरअसल यह भारतीय सुरक्षा तंत्न की कमजोरी है कि यह जवाब भी वह ठीक से नहीं दे पाता. यह अक्षमता उसे कुछ ज्यादा क्रूर और अमानवीय ही बनाती है. असली गुनाहगार या तो उसके ऊपर होते हैं या उससे दूर और उसका गुस्सा नकली और कमजोर गुनाहगारों पर निकलता है.

हम अब तक एक ऐसा भारत बना नहीं पाए जिसमें सबको बराबरी और इंसाफ़ का भरोसा हो. इस भारत में आदिवासी बेदखल हैं, दलित उपेक्षित और मुसलमान असुरक्षित. इससे पैदा हताशा का फायदा कहीं माओवाद को मिलता है कहीं आतंकवाद कोसुरक्षा तंत्न की इस विफलता का वास्ता कहीं ज्यादा बड़ी राजनीतिक विफलता से है. हम अब तक एक ऐसा भारत बना नहीं पाए जिसमें सबको बराबरी और इंसाफ़ का भरोसा हो. इस भारत में आदिवासी बेदखल हैं, दलित उपेक्षित और मुसलमान असुरक्षित. इससे पैदा हताशा का फायदा कहीं माओवाद को मिलता है कहीं आतंकवाद को. संकट यह है कि जो सरकारें बड़ी पूंजी के एजेंट की तरह आदिवासियों और किसानों की जमीन छीन कर सेज बनवाती हैं, जो अपराधियों और काले पैसे वालों के गठजोड़ से चुनाव नियोजित करती है, जो खड़ी-खड़ी बाबरी मस्जिद का टूटना देखती हैं या उसमें सहयोग करती हैं, जो 2002 के दंगाइयों के साथ खड़ी दिखती हैं, जो फर्जी मुठभेड़ें करने वाले अफसरों को इनाम देती हैं, वही नक्सलवादियों के विरुद्ध युद्ध की दुंदुभि बजाती हैं और वही आतंकवादियों के सफाये की घोषणा करती हैं. ऐसी सरकारें न लोक का भरोसा हासिल कर पाती हैं न तंत्न को चुस्त-दुरुस्त बना पाती हैं.

मुंबई हमलों की पहली बरसी पर प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह ने बड़ी भावुकता से कहा कि  हम कुछ भूलेंगे नहीं. लेकिन उन्हें किसी ने याद नहीं दिलाया कि हमलों के बाद महाराष्ट्र के जिस गृहमंत्नी का इस्तीफा लिया गया, उसे दुबारा उसी पद पर बिठा दिया गया. जाहिर है, हम भूल चुके हैं. या तो वह इस्तीफा एक राजनीतिक मजबूरी था या फिर मंत्नी की बहाली. यानी सरकार ने और पार्टी ने तब भी और अब भी जो फैसला किया, उसमें राजनीति की जरूरत ज्यादा रही, मुंबई का सवाल कम या सरोकार कम. 

जब ऐसे वास्तविक सवाल और सरोकार नहीं बचते तभी हम उधार के मुहावरों में सोचते हैं और सुरक्षा और स्मृति के आडंबर रचते हैं. मुंबई पर हुए आतंकी हमले की पहली बरसी पर मुंबई और देश भर में जो सरकारी-गैरसरकारी आयोजन हुए, उनमें भी यह आडंबर दिखता रहा. इस आडंबर में यह कहने का रिवाज फिर दिखा कि मुंबई बीते साल के हमलों और जख्मों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ चुकी है. हकीकत यह है कि जख्म उन्हीं के सूखे हैं जिन्हें कोई खरोंच नहीं आई. वरना जिन लोगों की जिंदगी में किसी जलजले की तरह तीन दिन आए, वे अब भी सोते-जागते उनका पीछा करते हैं. आख़िर क्यों कोई कविता करकरे अपने दिवंगत पति की खोई हुई बुलेट प्रूफ जैकेट का पता लगाना चाहती है और क्यों कोई विनीता कामटे ‘द लास्ट बुलेट’ जैसी किताब लिखकर अपनी हताशा जाहिर करती है? दरअसल, जब हम कविता करकरे या विनीता कामटे या उन जैसे सैकड़ों दूसरे लोगों की तकलीफ़ समझेंगे तब हमारे लिए मुंबई के हमलों का मर्मभेदी अर्थ खुलेगा और तभी हम 26/11 जैसा फैशनेबल मुहावरा गढ़ने की जगह इसके प्रतिकार और प्रतिरोध के सच्चे रास्ते सोच पाएंगे.

लेकिन सच यह है कि सरोकारों की इस कड़ी में कविता करकरे, विनीता कामटे या मुंबई पर हुआ हमला बाद में आएगा, उसके पहले देश के न्यायवंचित वर्गों की याद आएगी जिनके साथ हमारा जुड़ाव बन सका तो आतंकवाद या नक्सलवाद को कहीं ज्यादा तीखे प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा. 

क्या विडंबना है कि मुंबई के हमलावर नाव से आए थे. नावें अक्सर तबाही से बचाव का एक पुराना सपना रही हैं- कि जब धरती हिलेगी या खत्म हो रही होगी तो हम एक नाव बना लेंगे और उसमें सबको बिठा लेंगे- दुर्भाग्य है कि हमने अपने समाज के सारे समुदायों को बिठाने वाली ऐसी नाव नहीं बनाई है. अगर बनाई होती तो कोई आतंकी बाहर से किसी नाव पर बैठकर आने का दुस्साहस नहीं कर पाता.     

प्रियदर्शन