जीएम फसलों पर बनी सरकारी समिति ने तो बीटी बैंगन के पक्ष में राय दे दी है लेकिन इस बैंगन से जुड़े खतरों पर सवाल जस के तस हैं. सम्राट चक्रवर्ती की रिपोर्ट
महिको ने जनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक मोंसेंटो से खरीदी थी जिसका इस्तेमाल बीटी बैंगन के विकास में किया गया. मोंसेंटो भारतीय कृषि शोध संस्थानों को एबीएसपी-2 जैसी परियोजनाओं के जरिए वित्तीय सहायता देती है
सब्जियों के राजा बैंगन पर पिछले कुछ समय से बवाल मचा है. वजह है भारत में आनुवंशिक रूप से संवर्धित यानी जनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) बैंगन की व्यावसायिक खेती की तैयारी. संभावना जताई जा रही है कि इंसानी इस्तेमाल के लिए किसी जीएम फसल की सीधी बिक्री की इजाजत देने वाले पहले देशों की सूची में भारत जल्द ही शामिल हो सकता है. बीटी बैंगन उगाने के प्रस्ताव को मंजूरी देने या न देने के लिए सरकार द्वारा गठित जैव प्रोद्योगिकी नियामक समिति (जीईएसी) ने हाल ही में यह कहते हुए इसके भारत में उत्पादन की अनुमति दी है कि बीटी बैंगन बनाने और खाने के लिहाज से पूरी तरह सुरक्षित है. बीटी बैंगन समर्थक लॉबी का कहना है कि इससे खेती में कीटनाशकों के प्रयोग में कमी आएगी और फसल व जमीन को होने वाला नुकसान भी कम होगा.
उधर, किसान नेताओं, वैज्ञानिकों, पर्यारणविदों और योजना आयोग के कई सदस्यों का कहना है कि बीटी बैंगन भारत के लिए ‘टाइम बम’ साबित होगा जो देश में बड़े पैमाने पर कैंसर, पर्किसन और शरीर में दवाओं को बेअसर होने की वजह बनेगा. इस जीएम फसल पर अब अंतिम निर्णय केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय को करना है. इस मुद्दे पर वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश का कहना है कि अंतिम फैसला सभी पक्षों की राय जानने के बाद किया जाएगा.
दरअसल जीएम फसलों और सब्जियों के इस्तेमाल से जुड़ी बहस के केंद्र में वह तकनीक है जिसे जेनेटिक इंजीनियरिंग कहा जाता है. जीएम तकनीक को आप दो बिल्कुल अलग-अलग प्रजातियों के जींस यानी जीवन की बुनियादी इकाई में बदलाव की तकनीक कह सकते है, जैसे बैक्टीरिया या मछली में कोई खासियत पैदा करने वाले जीन को एक पूरी तरह से अलग प्रजाति ,जो कोई फसल या सब्जी हो सकती है, के भीतर डाल दिया जाए. इस प्रक्रिया में हमें जो नई प्रजाति (फल या सब्जी) मिलती है, उसमें उस बैक्टीरिया की विशेषताएं भी होती हैं. एक बीटी बैंगन, सामान्य बैंगन से इसी मामले में भिन्न है. बीटी बैंगन का विकास इस तरह किया गया है कि इसमें अपने आप ही एक रसायन (जो कीटनाशकों में भी पाया जाता है) पैदा होता है जो बैंगन में लगने वाले एक कीड़े को (शूट बोरर) मार देता है. समर्थक लॉबी इसे बैंगन की खूबी बता रही है.
लेकिन इसके पीछे कई खतरे भी छिपे हैं जिन्हें यह लॉबी पूरी तरह से नजरअंदाज करती है. पहली बात तो यही है कि ‘नया’ बैंगन खुद अपने भीतर कीड़े मारने के लिए जहरीला रसायन पैदा करता है और इसलिए बैंगन का इस्तेमाल करने से पहले इसे पानी से धोकर, जो कि आमतौर पर किया जाता है, जहरीले रसायन से मुक्त नहीं किया जा सकता. दूसरी बात यह कि कीटनाशकों का प्रभाव धूप के संपर्क में आने पर कम होता जाता है लेकिन बीटी बैंगन में कीटनाशक इसके भीतरी हिस्से में पैदा होता है जहां धूप नहीं पड़ती.
अंतरराष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिक भी मानते हैं कि जीएम फसलें कई मायनों में खतरनाक हैं. साक इंस्टीटच्यूट ऑफ बायोलॉजिकल स्टडीज (सेन डियागो, अमेरिका) के प्रोफेसर डेव शूबर्ट के मुताबिक इसकी पहली वजह यह है कि जीएम फसलों में कार्सिनोजंस (कैंसर पैदा करने वाले रसायन) और टैरेटोजंस (जन्मजात बीमारियों के लिए जिम्मेदार रसायन) पैदा करने का गुण होता है. इसके अलावा जीएम पौधे में रसायनों का पैदा होना एक अनियंत्रित प्रक्रिया होती है. नतीजतन पौधे ऐसे जहरीले रसायनों की फैक्टरी बन जाते हैं जो कैंसर और पार्किसन जैसी बीमारियां फैला सकते हैं.
बीटी बैंगन में जहरीले रसायन पैदा करने वाला जीन अगर हमारे शरीर के भीतर रहने वाले और हमारे लिए फायदेमंद प्राकृतिक बैक्टीरिया के भीतर घुस गया तो हमारे भीतर ही वही जहर पैदा होने लगेगा
जीएम फसलों के दुष्प्रभावों की बात करने वाले प्रो. डेव अकेले नहीं हैं. इस वैज्ञानिक बिरादरी में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रो. इग्नासियो चैपेला, न्यूयॉर्क की सिटी यूनिवर्सिटी के प्रो. बैरी कॉमनर और भारत में सेंटर फॉर सेल्युलर एण्ड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के संस्थापक निदेशक डा. पीएम भार्गव भी शामिल हैं. ये वैज्ञानिक जिस खतरे की बात कर रहे हैं उसका असर देखने के लिए ‘लांग टर्म फीडिंग स्टडीज’ का सहारा लिया जाता है. मसलन कम-से-कम 50 चूहों को लिया जाए और दस साल की अवधि के दौरान उनकी कई पीढ़ियों को जीएम खाद्य खिलाकर देखा जाए कि उनमें कौन-सी बीमारियां या लक्षण पैदा होते हैं. कुछ देशों में इस तरह के जो अध्ययन हुए हैं उनमें देखा गया है कि चूहों की प्रजनन क्षमता कम हो गई या उन्हें कई तरह की गंभीर एलर्जियां हो गईं.
मगर भारत में इसके इस्तेमाल को मंजूरी देने वाली सरकारी एजेंसी जीईएसी ने इस तरह का कोई शोध नहीं करवाया. बल्कि उसने तो जीएम बैंगन को विकसित करने वाली फर्म महिको के अध्ययन और अनुसंधान को ही मंजूरी का आधार बना लिया. एक अरब लोगों की जिंदगी से जुड़े मसले के लिए इस फर्म ने सिर्फ 10 चूहों पर प्रयोग किया था और प्रयोग अवधि मात्र तीन महीने थी. इससे किसी तरह का नकारात्मक परिणाम मिलने की उम्मीद नहीं थी. यह मिला भी नहीं. पर जीईएसी को कोई आपत्ति नहीं है. तहलका से बातचीत में इसके को-चेयरमैन डा. अजरुला रेड्डी का कहना था, ‘ बीटी बैंगन से नुकसान का कोई ठोस सबूत नहीं है.’ यह पूछे जाने पर कि क्या बीटी बैंगन सुरक्षित है? उनका जवाब था, ‘इसके लिए कई स्तरों पर शोध की जरूरत होती है, बीटी बैंगन के लिए इस तरह के अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं.’ तो फिर इसे भारत में बिक्री की अनुमति क्यों दी गई? इस पर रेड्डी कहते हैं कि बीटी बैंगन विकसित करने वाली फर्म ने सरकार द्वारा तय किए सारे मानकों को पूरा किया था इसलिए. जीएम फसलों का एक और खतरा है जिसे हॉरिजांटल जीन ट्रांसफर (एचजीटी) कहते हैं. एचजीटी एक कुदरती प्रक्रिया है जिसमें एक प्रजाति का जीन दूसरी प्रजाति जो कि कोई पौधा, मानव शरीर या जानवर भी हो सकता है, के जीन में प्रवेश करने और अनुकूलित होने का रास्ता तलाश करता है. ऐसा ही जीएम फसलों के मामले में भी हो सकता है. उदाहरण के लिए, बैंगन में जहरीले रसायन पैदा करने वाला जीन अगर हमारे शरीर के भीतर रहने वाले और हमारे लिए फायदेमंद प्राकृतिक बैक्टीरिया के भीतर घुस गया तो हमारे भीतर ही वही जहर पैदा होने लगेगा. और यदि बैंगन के भीतर मौजूद एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीन हमारे जीन के साथ घुलमिल जाए तो इसका मतलब होगा कि बीमारियों में शरीर पर दवाओं का बेअसर होना.
2005 में पर्यावरणविद अरुणा रॉड्रिग्ज के नेतृत्व में कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि भारत में जीएम फसलों की सुरक्षा का प्रमाणन करने वाला तंत्र पारदर्शी नहीं है और इसमें कई खामियां हैं. इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में कहा था कि जीईएसी को महिको द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़े सार्वजनिक किए जाएं. लेकिन महिको आंकड़े सार्वजनिक करने से बचती रही. आखिर में जब उसे कोर्ट की अवमानना की धमकी दी गई तब जाकर अगस्त 2008 में उसने ये आंकड़े सार्वजनिक किए. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से फरवरी 2008 में जीईएसी पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किए गए डा. पीएम भार्गव कहते हैं, ‘जीईएसी को किसी भी विश्वसनीय प्रयोग के आंकड़े नहीं मिले. पहली बात, सारे परीक्षण महिको ने किए थे और इसके लिए इस्तेमाल किए गए बीज भी इसी कंपनी के थे. इनका किसी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा सत्यापन नहीं हुआ इसलिए इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. दूसरी बात, सभी परीक्षण कम अवधि के थे जबकि इस तकनीक से जुड़े कई खतरे लंबी अवधि में ही देखने को मिलते हैं. तीसरी बात, कई जरूरी परीक्षण महिको ने किए ही नहीं जबकि यह तथ्य है कि एक प्रजाति के जीन को दूसरे में प्रत्यारोपित करने से कोशिकाओं में तेजी से बढ़ोतरी होने लगती है जिससे कैंसर की आशंका बढ़ जाती है. इसे परखने के कई आसान तरीके हैं, लेकिन ऐसा कोई भी परीक्षण नहीं किया गया.
इन सब मुद्दों पर जब हमने महिको से बात की तो उसका दावा था कि सुरक्षा को लेकर उसने बीटी बैंगन पर हर तरह के वैज्ञानिक परीक्षण किए हैं. कंपनी के मुताबिक इस बारे में उसका अनुसंधान किसी भी प्रतिष्ठित वज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित होने लायक है. तहलका ने जब इस मुद्दे पर डा. एसबी डोंगरे, जो जीईएसी और बीटी बैंगन पर बनी विशेषज्ञ समिति (ईसी) के सदस्य और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रतिनिधि हैं, से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने जोर देते हुए कहा कि कोई भी टिप्पणी सिर्फ जीईएसी के चेयरमैन से ली जाए. इसके अलावा जब हमने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के पूर्व सदस्य और जीईएसी व ईसी के सदस्य डा. वसंत मुथुस्वामी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने भी कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
तो क्या हमें महिको की बात पर यकीन करना चाहिए. गौर करें कि भारत की इस सबसे बड़ी बीज कंपनी की 26 फीसदी हिस्सेदारी दिग्गज अमेरिकी कंपनी मोंसेंटो के पास है जो उसने 1998 में खरीदी थी. महिको ने जनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक मोंसेंटो से खरीदी थी जिसका इस्तेमाल बीटी बैंगन के विकास में किया गया. रॉड्रिग्ज बताती हैं कि मोंसेंटो भारतीय कृषि शोध संस्थानों को एबीएसपी-2 जैसी परियोजनाओं के जरिए वित्तीय सहायता देती है.
सरकारी और निजी क्षेत्र के सहयोग से चलने वाली इस योजना में मोंसेंटो भागीदार है. इस परियोजना के तहत भारत के दो विश्वविद्यालयों-तमिलनाडु एग्रीकल्चर रिसर्च यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस, धारवाड़ को कंपनी से काफी पैसा मिल रहा है. उल्लेखनीय है कि ये संस्थान जीएम तकनीक के बड़े समर्थक हैं और इन फसलों के कथित ‘पक्षपाती’ परीक्षणों में शामिल भी रहे हैं.
तहलका से बातचीत में डा. भार्गव बताते हैं, ‘मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हुई कि वे (जीईएसी) मोंसेंटो की बात को ईश्वर की बात मानते हैं और सोचते हैं कि उसके खिलाफ हर बात को अनसुना किया जाए. जीएम फसलों के दुष्प्रभावों के बारे में काफी वैज्ञानिक लेख उपलब्ध हैं लेकिन ऐसे किसी मुद्दे पर मैंने वहां (जीईएसी) चर्चा होते नहीं देखी.’ उधर, मोंसेंटो पक्षपात की बात से इनकार करते हुए तर्क देती है कि निजी और सरकारी, दोनों कंपनियों के उत्पादों को एक ही मानदंडों वाली नियामक जांच से गुजरना पड़ता है.
अब सवाल यह है कि क्या हमें खाद्य सुरक्षा के लिहाज से वास्तव में बीटी बैंगन की जरूरत है? बिल्कुल नहीं. हमारे देश में बैंगन का इतना ज्यादा उत्पादन होता है कि राज्य सरकारें कीमतें गिरने से रोकने के लिए बैंगन की सरकारी खरीद करती हैं. और इसके अलावा हमारे पास कीटनाशकों के विकल्प के रूप में जैव रसायन भी हैं. पिछले दिनों ही आंध्रप्रदेश ने बिना कीटनाशकों का इस्तेमाल किए सफलतापूर्वक 20 लाख एकड़ में फसलें (जिसमें बैंगन भी शामिल है) पैदाकर साबित किया है कि हमारे यहां जीएम फसलों की कवायद कितनी निर्थक है. फिलहाल इस मामले की कमान पर्यावरण और वन मंत्रालय के हाथ में है. जो आगे तय करेगा कि इस तथाकथित बेहतर बैंगन को भारतीयों की रसोई में पहुंचाया जाए या नहीं.
यह भी गौर करते चलें कि इस तकनीक को खोजने वाले और इसका सबसे ज्यादा प्रयोग करने वाले अमेरिका में किसी भी जीएम फसल का इस्तेमाल इंसानी खाने में नहीं किया जाता.