फिल्मी परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद कोंकणा सेन शर्मा सिनेमा में करिअर बनाने को लेकर खास उत्साहित नहीं थीं. मगर फिल्मोद्योग में अनमनी-सी दाखिल होने वाली इस अभिनेत्री ने अब इस दुनिया में अपनी एक अलग ही लीक बना ली है. तृषा गुप्ता का आलेख
‘फिल्मों में आ जाने के बाद भी मैं सोचा करती थी कि मुझे एक ढंग की नौकरी करनी है. मैं क्लासीफाइड्स देखती रहती. फिर मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया. उसके बाद ये सब छोड़कर जाना उतना आसान नहीं था’कुछ ही दिन पहले की बात है. दिन के तीन बजे के करीब का वक्त रहा होगा. कोलकाता की लिटिल रसेल स्ट्रीट से गुजरते कई लोग न्यू केलिनवर्थ होटल के बाहर खड़ी एक महिला को देखकर पहले तो चौंकते और फिर उसे गौर से देखने लगते. उस महिला का पहनावा उस जगह और वक्त से मेल नहीं खा रहा था. लाल रंग की रेशमी साड़ी, गहरा मेकअप और भारी जूड़ा सत्तर के दशक की किसी नायिका जैसी लगती यह महिला थी हिंदी सिनेमा में आम लड़की के खास किरदारों का पर्याय बन चुकीं कोंकणा सेन शर्मा. दरअसल कोंकणा की मां और जानी-मानी फिल्मकार अपर्णा सेन यहां पर अपनी नई फिल्म इति मृणालिनी की शूटिंग कर रही थीं और कोंकणा का यह रूप इसी फिल्म का एक हिस्सा था. आमतौर पर ढीले-ढाले कुरते और जींस में ज्यादा सहज रहने वाली कोंकणा को कभी भारी-भरकम पहनावा बिल्कुल नहीं भाता था, मगर फिल्मों में आने के बाद ऐसी कई चीजें अब उनकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं.
2001 में बंगाली फिल्म एक जे आछे कन्या से अपनी चित्रपट यात्रा की शुरूआत करने वाली कोंकणा अपने अभिनय के लिए अब तक कई पुरस्कार बटोर चुकी हैं. मगर अभिनय को लेकर वे हमेशा से इतनी सहज नहीं थीं. जैसा कि वे बताती हैं, ‘शुरूआती दिनों में मैं बहुत सोचा करती थी कि यह क्यों पहन रही हूं या फिर ऐसा क्यूं कह रही हूं..मुझे इस पूरे तामझम से बड़ी शर्मिंदगी होती थी.’ मगर 25 फिल्मों के बाद आज कोंकणा बदल चुकी हैं. वे कहती हैं, ‘अगर मुझे कुछ करना है तो मैं कर देती हूं. मैं खुद को काम से अलग करके रखती हूं जो कि काम को करने का ज्यादा रचनात्मक दृष्टिकोण है.’ कोंकणा एक ऐसी मां की बेटी हैं जो मशहूर अभिनेत्री भी हैं और चर्चित फिल्म निर्देशिका भी. घर में हमेशा से फिल्मी माहौल रहा शायद इसलिए दूसरों की तरह उन्हें यह दुनिया ग्लैमरस नहीं लगती थी. इसे करीब से देखते हुए उन्होंने पाया कि यहां काम करने का मतलब है कड़ी मेहनत, वक्त का कोई ठिकाना न होना और कुछ हद तक अनिश्चितता भी. मगर इसके साथ ही फिल्मों को लेकर उनमें एक आकर्षण भी हमेशा मौजूद रहा.
1983 में बनी एक बंगाली फिल्म इंदिरा में कोंकणा ने एक छोटे-से लड़के की भूमिका निभाई. तब वे चार साल की थीं. इसके बाद 1989 में अपर्णा ने उन्हें अपनी फिल्म पिकनिक में एक भूमिका दी. जैसा कि अपर्णा याद करती हैं, ‘वह इतनी सहज थी कि शबाना आजमी ने कहा, अगर तुम्हें लगता है कि वह अभिनेत्री के अलावा कुछ और बनेगी तो फिर से सोचना.’ 15 साल की उम्र में कोंकणा ने फिल्म आमोदिनी में एक किशोर सौतेली मां की भूमिका निभाई. 1994 में आई इस फिल्म का निर्देशन किया था उनके दादा चिदानंद दासगुप्त ने जो फिल्म आलोचक और सत्यजीत रे के अच्छे मित्र थे. मगर जितना ही अपर्णा उन्हें कहतीं कि वे अभिनय के बारे में गंभीरता से सोचें, कोंकणा उतना ही इसका विरोध करतीं. हंसते हुए वे बताती हैं, ‘जब मां और सबने कहा कि मैं अच्छी अभिनेत्री हूं तो मुझे लगा कि सब ऐसे ही कह रहे हैं. वैसे भी मेरी ये आदत रही है कि मैं वह नहीं करती जो लोग मुझसे करने को कहते हैं.’ अभिनय मजेदार अनुभव हो सकता है इसका अहसास कोंकणा को पहली बार तब हुआ जब उन्होंने बीए में दिल्ली स्थित सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाखिला लिया. वे बताती हैं कि यहां उन्होंने कई नाटकों में हिस्सा लिया और उन्हें इसमें खूब मजा आया.
अपर्णा ने जब कोंकणा से कहा कि ‘तुम ये मोजे अपनी सहेली को ही क्यों नहीं दे देतीं’, तो कोंकणा का जवाब था, ‘अगर मैं ऐसा करूंगी तो उसे पता चल जाएगा कि मैं नाराज हूं. दोस्त ज्यादा जरूरी हैं या मोजे?’फिर एक दिन फिल्मकार सुब्रतो सेन ने उन्हें अपनी फिल्म एक जे आछे कन्या में काम करने का ऑफर दिया. इसमें उन्हें मानसिक रूप से असंतुलित एक लड़की की भूमिका करनी थी. कोंकणा कहती हैं, ‘मैंने यह फिल्म मजाक-मजाक में कर ली. मैंने कभी नहीं सोचा था कि इसका मेरी जिंदगी पर ऐसा असर पड़ेगा. मैंने इतनी दूर की नहीं सोची थी. मैं अब भी दूर की नहीं सोचती.’ इस फिल्म की पूरी शूटिंग कोंकणा ने गर्मियों की छुट्टियों के दौरान की. ऐसा करना संयोग से ज्यादा मजबूरी थी क्योंकि उनके ही शब्दों में ‘सेंट स्टीफेंस में उपस्थिति के मामले में बड़ी सख्ती रहती है.’ इसके बाद वे फिर से कॉलेज लौट गईं. इस दौरान फिल्म हिट हो गई और परिवार के करीबी मित्र रिततुपर्णो घोष, जो कि काफी समय से कोंकणा के साथ फिल्म बनाने की सोच रहे थे, ने उन्हें लेकर फिल्म तितली बनाने का फैसला किया. कोंकणा बताती हैं, ‘कई मायनों में यह अनुभव घर जैसा ही था. रितु मामा निर्देशक थे और इसमें मां भी एक्टिंग कर रहीं थीं. फिल्म बनाने से ज्यादा ये पिकनिक मनाने जैसा था.’
लेकिन कोंकणा की जिंदगी का सबसे अहम मोड़ साबित हुई 2002 में आई मिस्टर एंड मिसेज अय्यर जिसका निर्देशन उनकी मां ने ही किया था. अपर्णा द्वारा ही लिखी गई इस फिल्म का मुख्य चरित्र एक तमिल गृहिणी थी जिसके पूर्वाग्रहों और मानवता में सांप्रदायिक दंगों के दौरान टकराव होता है. शुरूआत में कोंकणा इस फिल्म में काम नहीं करना चाहतीं थीं. उन्होंने अपनी मां से कहा कि उन्हें इस फिल्म में किसी दक्षिण भारतीय लड़की को ही लेना चाहिए. मगर अपर्णा फैसला कर चुकीं थीं. कोंकणा बताती हैं, ‘उन्होंने मुझे चेन्नई भेज दिया. मेरा काम एक रिसर्च असिस्टेंट की तरह था. मुङो कुछ डॉयलॉग्स का अनुवाद करवाना था और पहनावे का अध्ययन करना था.’ कोंकणा चेन्नई से लौटीं तो पूरी तरह से किरदार में डूबी हुईं थीं. इसके बाद उन्होंने शूटिंग का पूरी तरह से आनंद लिया. मगर अब भी पूरी तरह से निश्चित नहीं थीं कि उन्हें फिल्मों में ही करिअर बनाना है. वे कहती हैं, ‘फिल्मों में आ जाने के बाद भी मैं सोचा करती थी कि मुझे एक ढंग की नौकरी करनी है. मैं क्लासीफाइड्स देखती रहती. फिर मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया. उसके बाद ये सब छोड़कर जाना उतना आसान नहीं था. मुझे अमू, पेज थ्री जैसे ऑफर्स मिल रहे थे और मेरी ऐसी कोई दूसरी महत्वाकांक्षा भी नहीं थी. देखा जाए तो मुझे पता ही नहीं था कि मैं कुछ और करूंगी भी तो कैसे करूंगी.’ अब कोंकणा अभिनय क्षेत्र की शुक्रगुजार हैं कि इसकी वजह से उनकी जिंदगी को एक मकसद मिला. मगर वे सावधान भी रहती हैं कि कहीं यह उनकी असली पहचान को ही न ढक ले. वे कहती हैं, ‘यह बहुत उबाऊ भी हो सकता है. आप एक जीता-जागता पुतला होते हैं. कोई दूसरा आपको बताता है कि आपको क्या बोलना है, पहनना है, करना है.’
फिर भी कोंकणा को फिल्में अपनी तरफ खींचती हैं. एक बार उन्हें न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के एक फिल्म स्टडीज प्रोग्राम के लिए चुन लिया गया था. वे कहती हैं, ‘मगर मुङो स्कॉलरशिप नहीं मिली और यह बहुत महंगा था.’ 2005 में उन्होंने एक लघुफिल्म का निर्देशन किया. नामकोरोन नाम की यह फिल्म कोलकाता के दो जेबकतरों की जिंदगी पर थी. क्या आगे चलकर वे निर्देशक बनना चाहती हैं? जवाब आता है, ‘यह कहना तो ऐसा ही होगा जसे मैं कहूं कि मैं एक उपन्यासकार बनना चाहती हूं. मगर ये इस तरह से नहीं होता. अगर ये होना होगा तो हो ही जाएगा.’ यानी फिलहाल इस काम में उनकी ज्यादा दिलचस्पी नहीं. मगर यह देखना उन्हें जरूर दिलचस्प लगता है कि किस तरह अभिनय आपके शरीर और खुद के साथ आपका संबंध बदल देता है.
पद्मिनी रे मरे कोंकणा की बचपन की दोस्त हैं. वे उन्हें बिखरे बालों वाली एक ऐसी शर्मीली लड़की के तौर पर याद करती हैं जिसकी बड़ी और भूरी आंखों से जिज्ञासा और मासूमियत झांकती थी. जब एक बार उनसे मजाक में कहा गया कि पद्मिनी के डॉक्टर पिता ऑपरेशन करके लोगों का दिल निकाल देते हैं तो तब 11 साल की कोंकणा की प्रतिक्रिया यूं थी, ‘अगर वे दिल निकाल देते हैं तो क्या उसके बाद भी वे लोग दूसरों को प्यार कर सकते हैं?’ पद्मिनी के मुताबिक कोंकणा में बचपना काफी समय तक रहा और झिझक के कारण वे अपनी कोमल भावनाओं को लंबे समय तक दिल में ही रखे रहीं. वे कहती हैं, ‘बचपना कोंकणा में अब भी है. वे अभी भी किसी बच्चे की तरह हैरान होती हैं. मगर साथ-ही-साथ उनमें एक खास समझदारी भी है.’ अपर्णा याद करती हैं कि किस तरह सात साल की उम्र में उनकी बेटी एक सहेली की शिकायत किया करती थी जो उसके पसंदीदा मोजे मांग लेती और उन्हें गंदा कर देती. अपर्णा ने जब कोंकणा से कहा कि ‘तुम ये मोजे अपनी सहेली को ही क्यों नहीं दे देतीं’, तो कोंकणा का जवाब था, ‘अगर मैं ऐसा करूंगी तो उसे पता चल जाएगा कि मैं नाराज हूं. दोस्त ज्यादा जरूरी हैं या मोजे?’ आज 29 की उम्र में भी कोंकणा को पहले की तरह ही पता है कि उनके लिए सबसे ज्यादा अहम वे लोग हैं जो उनकी जिंदगी में हैं. इनमें से एक हैं उनकी मां जिनका उन पर काफी असर है और जिन्होंने पसोपेश में पड़ी अपनी बेटी को अक्सर दिशा दी. विज्ञान लेखक और पत्रकार उनके पिता मुकुल शर्मा के साथ उनका बचपन खेल, गिटार और यात्राओं के बीच काफी मजे में बीता. उनकी बड़ी बहन कमलिनी उनसे आठ साल बड़ी हैं और उनके लिए दूसरी मां जैसी भी. खासकर तब से जब से मुकुल और अपर्णा अलग-अलग हो गए. कोंकणा तब सिर्फ सात साल की थीं. वे कहती हैं, ‘ साथ रहते हुए नाखुश रहने से अच्छा है कि वे अलग रहते हुए खुश हैं.’ अपने सौतेले पिता और अमेरिका में अंग्रेजी के प्रोफेसर कल्याण रे से भी उनकी अपने पिता जैसी ही पटती है. वे कहती हैं, ‘मेरे लिए जिंदगी का मतलब है साझा अनुभव.’ कुल मिलाकर कोंकणा एक अजीब सा मिश्रण हैं. उनमें साफगोई है मगर आक्रामकता नहीं. अपर्णा कहती हैं, ‘यहां तक कि वे अगर बहुत गंभीर किरदार को निभा रही हों तो भी वे बहुत ज्यादा संजीदा नहीं होतीं. उनके अभिनय में दिखावा नहीं है.’
अपनी आम छवि के उलट कोंकणा कभी-कभार ही गंभीर होती हैं. पेज थ्री, लाइफ इन अ मेट्रो और वेकअप सिड जैसी फिल्मों में लगातार उन्हें बड़े शहर में अपना मुकाम बनाने के लिए संघर्ष कर रही छोटे शहर की लड़की के तौर पर दिखाया गया है. सुब्रतो सेन कहते हैं, ‘उन्हें आम लड़की की भूमिकाएं ही मिली हैं मगर मुझे लगता है कि वे ग्लैमरस भूमिकाओं में भी उतनी ही जंचेंगी.’ कोंकणा भी कहती हैं, ‘लगातार गंभीर किरदार करना थोड़ा उबाऊ हो गया है. मैंने दूसरी तरह की भी भूमिकाएं कीं जैसे कि मिक्स्ड डबल्स या दोसार में, मगर उनकी ज्यादा चर्चा ही नहीं हुई.’ हालांकि वे खुद भी मानती हैं कि उन्हें सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं अपनी मां की फिल्मों में ही मिली हैं, पहले मिस्टर एंड मिसेज अय्यर, फिर 15 पार्क एवेन्यू और अब इति मृणालिनी जिसमें उन्होंने 70 के दशक की एक बंगाली अभिनेत्री की भूमिका निभाई है. कोंकणा बताती हैं, ‘मृणालिनी की भूमिका चुनौती है क्योंकि मैं ऐसे किरदारों से बचती रही हूं जो शर्मीले, असहाय या फिर सीधे होते हैं. ये भावनाएं मेरे लिए अजनबी हैं.’
कोंकणा का दोटूकपन मुंबई जैसी जगह में पचाना मुश्किल है जहां आपको बहुत कुछ ओढ़कर चलना पड़ता है. मगर लगता है कि वे मुंबई की अपनी नई दुनिया में अच्छी तरह से रम गई हैं. अपने ब्वॉयफ्रेंड रणवीर शौरी के साथ मिलकर उन्होंने गोरेगांव में एक फ्लैट लिया है. वे दोनों अपने खाली समय में अपनी मनपसंद फिल्में देखते हैं या फिर दोस्तों के साथ घूमते-फिरते हैं. कोंकणा बताती हैं, ‘इंडस्ट्री में मेरे चंद ही दोस्त हैं, संध्या मृदुल, तारा शर्मा, रजत कपूर, विनय पाठक और उनका गैंग. वैसे भी मुझे जगहों की याद नहीं आती. मैं जहां भी रहती हूं वही जगह मेरे लिए कोलकाता हो जाती है.’ बात सही है. कोंकणा कहीं भी हों कोलकाता उनके साथ रहता है. चाहे वह वहां के विवेकानंद पार्क से खरीदा गया फुचका मसाला हो या फिर मधुबन पान मसाला जिसके बिना वे नहीं रह सकतीं.’