स्वेतलाना स्तालिन: भारतीय विदेश नीति का धर्मसंकट

स्वेतलाना स्तालिन रूस के तानाशाह शासक जोसफ स्तालिन की बेटी थी जिसकी शादी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य और  लखनऊ के पास स्थित कालाकांकर रियासत के कुंवर बृजेश सिंह से हुई थी.

पढ़ने-लिखने की शौकीन स्वेतलाना का साम्यवाद की तरफ शुरू से ही कोई खास झुकाव नहीं था; यहां तक कि वह अपने पिता को भी पसंद नहीं करती थी. 1953 में जोसफ स्तालिन की मृत्यु के बाद स्वेतलाना मॉस्को में शिक्षिका बन गई. इस समय तक वे रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थायी सदस्य थी. मॉस्को में ही 1963 में स्वेतलाना पहली बार भारतीय नागरिक बृजेश सिंह से मिली. आकर्षक और सौम्य व्यक्तित्व के धनी बृजेश उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य के तौर पर मॉस्को प्रवास पर थे. स्वेतलाना और बृजेश सिंह का मेलजोल बढ़ता गया और उन्होंने शादी करने का फैसला कर लिया. रूसी सरकार इस विवाह के खिलाफ थी और सरकार के इस रवैये ने स्वेतलाना को पूरी तरह से साम्यवादी शासन के खिलाफ कर दिया.

कहा जाता है कि सरकार के विरोध के बावजूद स्वेतलाना और बृजेश सिंह ने गुपचुप तरीके से शादी कर ली थी. मॉस्को प्रवास के दौरान ही 1966 में बृजेश सिंह की मृत्यु हो गई. स्वेतलाना  चाहती थीं कि उसके पति की अस्थियों का विसर्जन परंपरागत हिंदू रीतिरिवाजों से गंगा में किया जाए. इसके लिए 1967 में स्वेतलाना ने रूसी सरकार से भारत जाने की अनुमति मांगी. रूसी सरकार ने उसे भारत जाने की अनुमति तो दे दी मगर सिर्फ दो सप्ताह के लिए.

भारत आकर स्वेतलाना दो महीने तक कालाकांकर में बृजेश सिंह के परिवार के साथ रही. इस बीच रूसी सरकार की तरफ से कई बार उसे वापस लौटने के निर्देश मिलते रहे लेकिन साम्यवादी सरकार से आजिज आ चुकी स्वेतलाना रूस वापस जाना ही नहीं चाहती थी.  उसने तय किया कि वह अपनी बाकी जिंदगी भारत में ही बिताएगी.

स्वेतलाना ने भारत सरकार के समक्ष राजनीतिक शरण के लिए आवेदन दिया. लेकिन सरकार के लिए यह धर्म संकट की स्थिति थी, क्योंकि स्वेतलाना को शरण देने का मतलब था रूस की नाराजगी मोल लेना और शरण न देने पर भारत के गुटनिरपेक्ष देश होने की छवि पर प्रश्नचिह्न् लगाए जाते. आखिर में भारत सरकार ने रूस से अपने रिश्तों को तवज्जो देते हुए स्वेतलाना को शरण न देने का निर्णय किया.

स्वेतलाना के पास अब किसी दूसरे देश में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, इसीलिए उसने पहले तो भारत के अमेरिकी दूतावास में शरण ली और फिर वहां से वह सीधे अमेरिका चली गई. शीतयुद्ध के दौरान इस घटना को अमेरिकी विजय और रूसी पराजय के रूप में देखा गया. कहा जाता है कि बाद में भारत सरकार ने रूस की नाराजगी को कम करने के लिए स्वेतलाना से एक पत्र भी लिखाया था जिसके मुताबिक उसके अमेरिका जाने में भारत सरकार की कोई भूमिका नहीं थी.

पवन वर्मा