पुस्तक : शिकार
लेखक : हृदयेश
कीमत : 125 रुपए
प्रकाशक : हार्पर कॉलिंस हिन्दी
ये साहित्य की मुख्य धारा की – यदि कोई मुख्य धारा है, तो – कहानियाँ नहीं जान पड़तीं. ये उस तरह की कहानियाँ हैं, जिस तरह की फ़िल्में अस्सी के दशक में ख़ूब बनी थीं और जिन्हें महिला पत्रिकाओं और लोकप्रिय अख़बारों के पारिवारिक परिशिष्टों ने ख़ूब भुनाया है. इस किताब को पढ़ते हुए मुझे कुछ समय पहले आई एक फ़िल्म ‘मॉर्निंग वॉक’ की याद आई. वह एक घिसी पिटी कहानी पर बनी उबाऊ फ़िल्म थी, बाग़बान का ख़राब वर्जन.
हमारे समय के तथ्यों के ज़िक्र के बावज़ूद हृदयेश की कहानियाँ कम से कम तीन दशक पहले के समाज की कहानियाँ हैं. इस बात को यूँ भी कहा जा सकता है कि वे सामाजिक परिस्थितियाँ आज भी हैं, लेकिन उन्हें कई बार अलग अलग तरह से अलग अलग लोग कह चुके हैं और फ़िलहाल कहीं ज़्यादा ज़रूरी समस्याएँ ख़ुद को कहलवाना चाहती हैं. अब कोई लेखक बदलते समय की नब्ज़ पर से अपनी उंगलियाँ हटाकर बैठा है तो उसके लिखने का व्यक्तिगत या सामजिक लाभ मुझे नज़र नहीं आता.
अब प्रश्न यह कि क्या इस संग्रह की कहानियाँ, कहानियाँ भी हैं? वे जहाँ से शुरु होती हैं, ठीक उसी बिन्दु पर ख़त्म होती हैं. बीच में कहानी का मुख्य पात्र या तो सड़क पर घूमकर लोगों से बतियाता है या शहर के सारे मन्दिर देखकर उनके बारे में बताता है या जेल में घूमकर कैदी देखता है. ये मधुर भंडारकर की फ़िल्मों की तरह वर्णनात्मक कहानियाँ हैं. विशेषकर ‘मेरे नगर के मन्दिर’ और ‘बड़ी दुनिया का आईना बनी छोटी दुनिया’ स्कूल के बच्चों के उन निबन्धों की तरह आगे बढ़ती हैं, जिनका शीर्षक ‘जब मैंने ताजमहल देखा’ जैसा कुछ होता है.
इन कहानियों का मुख्य पात्र टीवी विज्ञापनों और उपभोग की संस्कृति के बारे में लगातार बोलते रहकर समय के साथ चलता दिखने की कोशिश तो करता है, लेकिन पत्नी खो चुके वृद्ध का बेटे-बहू के साथ रहना और रोज़ बाज़ार जाकर सब्ज़ी खरीदना ही यदि किसी कहानी का केन्द्रीय विषय है तो मेरे ख़याल से वह किसी भी समय में उतनी ही अनावश्यक है. इसीलिए ये सब कहानियाँ अपने लेखक से अधिक सजग और उत्तरदायी होने की माँग करती हैं.
हृदयेश का मुख्य पात्र अक्सर नींद में किसी नई ज़गह पहुँच जाता है और जब वह जागता है तो पाता है कि वह एक सपने में था. उनका लेखक भी इसी तरह अपनी दुनिया में खोया हुआ है. ‘जन्नत की हकीकत’ का नायक सपने में स्वर्ग में पहुँच गया है, जहाँ वह हिन्दी के लेखक-लेखिकाओं से मिलता है. यह कहानी साहित्य की छोटी सी दुनिया को अपने खेलने का मैदान बनाती है और यदि आप उन दस-बीस लोगों को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानते तो आपको इस लम्बी कहानी का कोई औचित्य समझ नहीं आएगा. यह कहानी भड़ास निकालने और पुरस्कार न पाने का ज़रिया बनकर ही रह गई है.
कहीं कहीं उनका नायक समाज के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा फ़िक्रमन्द दिखता है और इस चक्कर में अपने प्रति सहानुभूति जुटाने का (असफल) प्रयास करता है, इसीलिए उसकी ईमानदारी पर सन्देह होता है. वह कहानी को आगे बढ़ाने की बजाय अपना दर्शन, अपनी सोच और उपदेश आप पर थोपने की कोशिश करता है, इसीलिए ‘शिकार’ की कहानियाँ कुढ़न पैदा करती हैं और कहीं कहीं जुगुप्सा भी. वैसे यह कहानी-संग्रह यदि डायरी के कुछ पन्नों या संस्मरणों के नाम से प्रकाशित होता तो यह आलोचना कुछ सुखद हो सकती थी.
गौरव सोलंकी