एक रुकी ट्रेन कुछ ठहरे सवाल

पश्चिम बंगाल के बांसतला नाम के एक अनजान स्टेशन पर करीब पांच घंटे तक भुवनेश्वर से दिल्ली आ रही राजधानी एक्सप्रेस रुकी रही. इन पांच घंटों के दौरान कोलकाता से दिल्ली तक अफरातफरी मची रही और मीडिया सांस रोक कर देखता रहा कि उसे कहीं और ज्यादा खौफनाक खबर तो मिलने वाली नहीं. आखिर एक पूरी ट्रेन नक्सलियों के कब्जे में है और वे मुसाफिरों के साथ कुछ भी कर सकते हैं.

माओवादियों ने जब हथियार उठाए नहीं थे तो किसी सरकार को विकास की क्यों नहीं सूझी तो इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, सवाल पूछने वाले पर नक्सली हिंसा का समर्थक होने की तोहमत भले मढ़ दी जाती है

लेकिन नक्सलियों ने कुछ नहीं किया. उन्होंने ट्रेन को जाने दिया. बस उस पर लिख दिया अपना संदेश- कि छत्नधर महतो अच्छा आदमी है, छत्नधर महतो संताल भाइयों का दोस्त है. मीडिया हैरान हुआ, कुछ मायूस भी- एक बड़ा अंदेशा एक राहत भरी सांस बन कर टल गया. वह समझ नहीं पाया कि नक्सलियों ने ऐसा क्यों किया ये नक्सली तो थानों पर हमला करते हैं, पुलिसवालों का अपहरण करते हैं, उनकी हत्या करते हैं, फिर उन्होंने इतने सारे मुसाफिरों को छोड़  क्यों दिया? सवाल यहीं खत्म हो गए क्योंकि मीडिया अपने दूसरे खेलों में लग गया.

दरअसल इस सवाल का जवाब न देश के गृह मंत्नी-प्रधानमंत्नी खोज पा रहे हैं, न मीडिया समझ पा रहा है कि देश में बढ़ते नक्सलवाद से कैसे निबटें. गृह मंत्नी और प्रधानमंत्नी आंकड़े दे-देकर बताते हैं कि नक्सली आतंकवादियों से भी खतरनाक हैं. उनकी हिंसा में कहीं ज्यादा लोग मरे हैं. वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं. गृह मंत्नी और प्रधानमंत्नी द्वारा प्रस्तुत यही सरलीकरण अखबारों में समाचार और विचार बनकर छप रहा है- नक्सलियों के विरुद्ध कार्रवाई जरूरी है, हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता, माओवादी आतंकवादियों से कम खतरनाक नहीं, उनके बीच सांठगांठ भी है.

इस राय के पक्ष में कई प्रमाण भी जुटे हुए हैं. नक्सलियों ने गढ़ चिरौली में 18 पुलिसवालों को मार डाला, खूंटी में स्पेशल ब्रांच के इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंद्वार का सिर काट लिया, दंतेवाड़ा में चार सिपाहियों की हत्या कर दी और बंगाल में दो पुलिस वालों को मार और एक को अगवा कर अपने साथियों को रिहा करवाया.

लेकिन इतनी साफ दिखाई देती हिंसा के समांतर एक दूसरी हिंसा भी है जो कहीं ज्यादा बारीक, बड़ी और खौफनाक है, यह देखने को मीडिया तैयार नहीं. राज्य की इस हिंसा पर उंगली उठाने को भी नहीं. अगर कोई यह पूछने की हिमाकत करे कि नक्सलियों को इस मोड़ तक लाने का जिम्मेदार कौन है, किनकी वजह से आदिवासी हथियार उठाने को मजबूर हुए, माओवादियों ने जब हथियार उठाए नहीं थे तो किसी सरकार को विकास की क्यों नहीं सूझी तो इस सवाल का जवाब नहीं मिलता, सवाल पूछने वाले पर नक्सली हिंसा का समर्थक होने की तोहमत भले मढ़ दी जाती है.

फिर इस तोहमत के अलावा यह नसीहत भी मिलती है कि माओवादी नहीं चाहते कि उनके इलाकों का विकास हो. यह भी कि अगर पहले विकास नहीं हुआ तो अब विकास होगा. यह सरलीकृत दृष्टि लेकिन खुद यह समझने को तैयार नहीं कि दरअसल यह विकास ही है जो आदिवासियों के विरुद्ध चल रही हिंसा का, उनके दमन का, उनके साधनों के दोहन का सबसे बड़ा जरिया बना हुआ है. नक्सली हिंसा की वजह से हुई चंद सौ या हजार मौतों का हवाला देने वाले लोग भूल जाते हैं कि इसी देश में बीते दस साल में करीब सवा लाख किसान खुदकुशी के लिए मजबूर हुए हैं. दरअसल इस विकास की वजह से हुई बेदखली ने माओवादी पैदा किए हैं. पश्चिमी मिदनापुर की लड़ाई भी इसी विकास की वजह से शुरू हुई, यह भूलना नहीं चाहिए. आखिर जिंदल इस्पात कारखाने का उदघाटन कर लौट रहे मुख्यमंत्नी बुद्धदेब भट्टाचार्य के काफिले के रास्ते में ही वह बारूदी सुरंग फटी, जिसके गुनहगारों को खोजने के लिए पुलिस लालगढ़ गई और महिलाओं से बदसलूकी करके लौटी.

इसी बदसलूकी के विरोध में बनी थी वह पुलिस संत्नास विरोधी जनसाधारण समिति जिसने पिछले हफ्ते राजधानी एक्सप्रेस रोक ली. ट्रेन चली तो बोगियों पर लिखे अक्षरों की शक्ल में एक संदेश लेकर चली- कि सरकार जिसे खूंखार नक्सली मानती है, उसे आदिवासी अपना दोस्त और भाई मानते हैं. दिल्ली में बैठा मीडिया इस इबारत का अर्थ समझने को तैयार नहीं और न राज्य की हिंसा का चरित्न समझने को तैयार है. क्या यह संसदीय राजनीति में लगभग अंधविश्वास की तरह पैठा विश्वास है जो मीडिया से एक आलोचक दृष्टि छीन लेता है और उसे वहीं तक देखने देता है जो सरकार दिखाती है?

उसकी नागर दृष्टि न इन इलाकों की तकलीफ का मर्म समझती है और न ही आदिवासियों की हथियार उठाने की मजबूरी का मतलब.

प्रियदर्शन

(लेखक एनडीटीवी इंडिया में समाचार संपादक हैं)