जो लोग ठाठ से जी सकते हैं उन्हें जीना चाहिए और अपने ठाठ-बाट पर कोई अपराध भावना नहीं रखनी चाहिए. अपने मध्यवर्ग में नए आए उपभोक्तावाद का यही औचित्य है
आखिर उनके पोते गोपालकृष्ण ने ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की लाज बचाई. दांडी कूच का 100 करोड़ का स्मारक और कोई एक हजार आठ सौ करोड़ की लागत से अमदाबाद से दांडी तक के उसी मार्ग को राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने के प्रस्ताव को प. बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने खारिज कर दिया है जिस पर चलकर महात्मा गांधी और उनके अठहत्तर सहयात्रियों ने नमक सत्याग्रह किया था जिसने भारत की ब्रिटिश सरकार ही नहीं पूरी दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया था. दांडी कूच और उसके मार्ग को आजादी के आंदोलन की धरोहर बनाकर स्थाई महत्व देने पर विचार करने वाली समिति के अध्यक्ष के नाते गोपालकृष्ण गांधी ने कहा कि ऐसा प्रस्ताव और विचार गांधीजी के विचार और जीवन से बिल्कुल असंगत होगा.
खासकर ऐसे वक्त जब आधे से ज्यादा भारत अकाल की चपेट में है और गुजरात में ही कोई कम समस्याएं नहीं हैं तब ऐसी चीजों पर इतना पैसा खर्च करना बिल्कुल अनुपातविहीन और असंगत होगा-और गांधी की आत्मा के विरुद्ध भी-गोपालकृष्ण गांधी ने कहा. तय हुआ कि एक सादा सा स्मारक बने जिस पर दांडी कूच करने वालों के नाम खुदे हों. प्रस्ताव यह था कि गांधी और उनके साथ कूच पर चले सत्याग्रहियों के भव्य मूर्तिशिल्प बनाए जाएं और उस सड़क को राष्ट्रीय राजमार्ग जिस पर सन् तीस में बारह मार्च से छह अप्रैल तक चलकर वे समुद्र किनारे दांडी पहुंचे थे. समिति ने कहा है कि उसे धरोहर मार्ग बना दिया जाए जिसका वहां रहने वाले सभी लोग इस्तेमाल कर सकें.
मैंने कहा कि गोपाल गांधी ने अपने दादा की लाज बचा ली तो इसलिए कि अभी जब इकनॉमी क्लास में मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं की हवाई यात्राओं का विवाद चला था तो न सिर्फ मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं को पाखंडी कहा गया था एक दो विचारवान अंग्रेजी अखबारों ने अपने संपादकीय पेजों पर सरोजनी नायडू का वह कथन भी दिया था कि गांधी को उनकी सादगी और गरीबी में रखने के लिए हमको कितना खर्च और तामझाम करना पड़ता है. वे तीसरे दर्जे में सफर करते हैं तो उनकी सुविधा और सुरक्षा के लिए हमें पूरा डब्बा ही खाली रखना पड़ता है. यानी आखिर तो गांधी की सादगी और गरीबी भी पाखंड थी क्योंकि उसके लिए दूसरों को इतना खर्च करना पड़ता था. इन जानकार और विचारवान लोगों ने सरोजनी नायडू की बात तो याद रखी लेकिन यह पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि इसके बावजूद गांधी ने कैसा जीवन जिया और उनका व्यवहार कैसा रहा. गांधी तक को पाखंडी बताने की कोशिश में लगे ये लोग पहले ही तय कर चुके हैं कि सादगी पाखंड और गरीबी अभिशाप है. जो लोग ठाठ से जी सकते हैं उन्हें जीना चाहिए और अपने ठाठ-बाट पर कोई अपराध भावना नहीं रखनी चाहिए. अपने मध्यवर्ग में नए आए उपभोक्तावाद का यही औचित्य है. गांधी उसे लजाते हैं तो वह अपने राष्ट्रपिता को ही पाखंडी कहता है.
क्या गांधी ने कभी कहा था कि मेरी सुविधा और सुरक्षा के लिए वह पूरा डब्बा खाली रखा जाय जिसमें मैं यात्रा करता हूं? आप पाएंगे कि गांधी ने इसका विरोध किया और इसके बावजूद उन्हीं के साथियों व मानने वालों ने ऐसा किया
क्या गांधी ने कभी कहा था कि मेरी सुविधा और सुरक्षा के लिए वह पूरा डब्बा खाली रखा जाय जिसमें मैं यात्रा करता हूं? आप पाएंगे कि गांधी ने इसका विरोध किया और इसके बावजूद उन्हीं के साथियों व मानने वालों ने ऐसा कियाजहां गांधी की अंत्योष्टि की गई थी दिल्ली के उस राजघाट को स्मारक के नाते बनाए रखने और उससे लगे दूसरे नेताओं के स्मारकों के जगह घेरने की बात उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने भी कही है. वे अपनी, कांशीराम और दूसरे दलित नेताओं की मूर्तियां लगाने के लिए दिल्ली के पास के नोएडा और लखनऊ में बड़े-बड़े पार्क बनवा रही हैं. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग कारणों से उसे रोक रखा है. लेकिन बहन मायावती ने गरीब उत्तर प्रदेश की जनता के कोई ढाई हजार करोड़ रुपए इन मूर्तियों और पार्कों पर खर्च करने को इसी से तो उचित ठहराने की कोशिश की है कि राजघाट और उससे लगे स्मारकों पर कितना खर्च होता है और उनने कितने अरबों की जमीन घेर रखी है. मायावती भले ही अपने को महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से बड़ी नेता समझती हों और उनके इस दावे को दलित चिंतक ताली बजाकर मंजूर करते हों, अपनी और कांशीराम की मूर्तियों पर जनता के इस पैसे के खर्च को कौन उचित बताएगा? लेकिन महात्मा गांधी मायावती के सबसे प्रिय निशाने हैं और उस पर वार करने का मौका वे बेचारी नहीं चूकती. अपना आत्मभोगी और स्वयंसिद्ध मध्यवर्ग भी गांधी के उदाहरण को मिटाना जरूरी समझता है.
इन दोनों के लिए गोपालकृष्ण गांधी ने उस अविनाशी गांधी को कुछ मूर्त करने की कोशिश की है जो मूर्तियों, स्मारकों, मार्गों, संग्रहालयों और पोथियों से परे है. खुद गांधी ने कहा था- ‘मेरे लिखे हुए की मेरे शरीर के साथ ही अंत्येष्टि कर दी जानी चाहिए. मैंने जो किया है वही टिकेगा मेरा बोला या लिखा हुआ नहीं.’ दांडी कूच भी तो गांधी का किया हुआ है इसलिए उसे टिकाए रखने के लिए मूर्तियों और राजमार्ग की जरूरत नहीं है. वह एक कृतज्ञ राष्ट्र के इस तरह टिकाए नहीं टिकेगा. दांडी कूच अन्यायी कानून को तोड़ने और तोड़ने में हर उस व्यक्ति को लगाने के लिए हुआ था जो उससे प्रभावित होता है. नमक ऐसी चीज है जिसका इस्तेमाल हर आदमी तो करता ही है पशु भी करते हैं. ऐसी सर्वव्यापी और सार्वकालिक वस्तु को आजादी के आंदोलन से जोड़ना ही गांधी विचार और कर्म की विशिष्टता है. दांडी कूच और नमक सत्याग्रह ने इसीलिए दुनिया को हिला दिया. गांधी ने इस देश के नमक को जगा दिया. अन्यायी कानून को तोड़ने में हर व्यक्ति को लगा देना ही दांडी कूच का अविनाशी संदेश है. इसलिए उसका सा स्मारक तो यही है कि क्या इस देश के सभी लोग मिलकर अन्यायी कानूनों को तोड़ रहे हैं? अगर हां तो वे दांडी कूच कर रहे हैं.
गांधी के काम की गांधीय कसौटी तो यही है. उनके पोते गोपाल गांधी ने इस अविनाशी तत्व को पत्थर बनने से रोक लिया. उनने अपने दादा का कुछ नमक चुकाया है लेकिन क्या इससे सरोजनी नायडू और मायावती की नसीहत कुछ कम होगी? शायद नहीं. क्योंकि जो उसका इस्तेमाल कर रहे हैं वे गांधी को समझने के लिए नहीं अपनी बात समझने के लिए कर रहे हैं. रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करने की ही बात लीजिए. क्या गांधी ने कभी कहा था कि मेरी सुविधा और सुरक्षा के लिए वह पूरा डब्बा खाली रखा जाय जिसमें मैं यात्रा करता हूं? आप पाएंगे कि गांधी ने इसका विरोध किया और इसके बावजूद उन्हीं के साथियों व मानने वालों ने ऐसा किया. इसकी सच्चाई समझना हो तो एक किस्सा सुनिए.
भारत के वायसरॉय को महात्मा गांधी से कुछ जरूरी बातें जल्दी ही करनी थीं. उनने मालूम किया तो पता चला कि गांधी पुणे में हैं. उन्हें पुणे से दिल्ली बुलवाने के लिए वायसरॉय ने विशेष रेलगाड़ी यानी एक इंजन में एक डिब्बा लगवा कर पुणे भिजवाया. गांधी अपने साथियों के समेत दिल्ली आए. आते ही उनने अपने और अपने सभी साथियों के पुणे से दिल्ली आने के तीसरे दर्जे के किराए का हिसाब लगवाया और जो रकम बनी वो वाइसरॉय के दफ्तर में अपने एक साथी को हाथों भिजवा दी. वाइसरॉय का सचिव उसे देखते ही आग बबूला हो गया. उसने गांधी के साथी से कहा- तुम्हारा बुढ़ऊ समझता है कि उसे यहां बुलाने में हमने इतना सा खर्च किया है? तुम जानते हो पुणे रेलगाड़ी भेजने और उसे वापस दिल्ली लाने में कितना पैसा खर्च होता है? ले जाओ इसे और अपने बुढ़ऊ को दे दो. वह गांधी के पास आ गया. सचिव की सारी बातें सुनने समझने के बाद गांधी ने उसे कहा कि उन्हें कहो गांधी अपनी मर्जी से और अपने कार्यक्रम के मुताबिक आता तो इतना ही किराए पर खर्च करता. चूंकि वायसरॉय को जल्दी थी और जरूरी बात करनी थी इसलिए उनने विशेष रेलगाड़ी भिजवाई. वे वायसरॉय हैं अपने काम पर कितना ही खर्च कर सकते हैं. मैं तो इतने ही किराए पर आता हूं और अपना किराया जरूर देता हूं. इसलिए मेरा किराया मंजूर किया जाय. और रेलगाड़ी भेजने का खर्च वायसरॉय भरें.
गांधी का साथी फिर वायसरॉय के दफ्तर पहुंचा और गांधी की दलील सचिव को सुना दी. बात इतनी सही और सच थी कि सचिव उसे काट नहीं सकता था. गांधी को दिल्ली बुलाना और जल्दी बुलाना वायसरॉय के लिए जरूरी था. गांधी अपना पहले से तय कार्यक्रम रद्द करके आए थे और वे अपना किराया जरूर देते थे. सचिव को गांधी का भेजा किराया लेना पड़ा. अब समस्या यह कि उसे जमा कहां करवाएं? वह पैसा रेलवे कर्मचारी कल्याण कोष में जमा किया गया.
एक और दुर्घटना लीजिए.
बीस जनवरी 1948 के दिन गांधी प्रार्थना सभा में बोल रहे थे कि बिड़ला हाउस में बम फटा. जहां से वे बोल रहे थे वहां से कोई पच्चीस गज की दूरी पर बम फटा जो उन पर फेंका गया था. इतिहास जानता है कि बम नाथूराम गोडसे के एक शरणार्थी साथी मदनलाल ने फेंका था. गांधी पल भर भी विचलित नहीं हुए. वे समझे थे कि धमाका सैनिक कवायद में हुआ होगा. उनने लोगों से कहा- सुनो, सब सुनो. कुछ भी हुआ नहीं है. और बोलते रहे. दूसरे दिन उन्हें पता चला कि बम उन पर फेंका गया था और बम फेंकने वाला कुछ बिन फूटे बमों के साथ पकड़ा गया. दूसरे दिन की प्रार्थना सभा में उनने कहा कि मुझे तो कोई अंदाज ही नहीं था. भगवान ही जानता है कि उन्हें मालूम होता कि बम उन पर फेंका गया है और फिर उसके फटने पर वे क्या करते. इसलिए मेरी तारीफ की कोई जरूरत नहीं है, उन्हें तो प्रमाणपत्र तभी दिया जा सकता है जब वे ऐसे बम के फटने से मरें और फिर भी उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहे और बम फेंकने वाले के लिए मन में कोई मलाल न हो.
उनने सरदार पटेल गृहमंत्री की कोई सुरक्षा मंजूर नहीं की. भगवान ही मेरा रक्षक है. मैंने अपने को उसे सौंप दिया है. वह चाहेगा तो कोई मुझे मार नहीं सकता. वह मारेगा तो कोई बचा नहीं सकता. उनने ऐसा कई बार कहा था. तीस जनवरी को प्रार्थना सभा में जाते हुए नाथूराम गोडसे ने बिल्कुल पास और सामने से तीन गोलियां मारीं. वे हे राम कहते हुए गिरे बिल्कुल वैसे ही जैसा कि चाहते थे.
कौन उनकी सुविधा और सुरक्षा करना चाहता था? हम! और हमारी व्यवस्था जो गांधी को मंजूर नहीं थी. लेकिन उसके लिए हम गांधी को दोषी मानते हैं. पाखंडी कहते हैं. राष्ट्रपिता का नमक चुका रहे हैं ना!
प्रभाष जोशी