अस्तित्व से जुड़े यक्षप्रश्न

भारत और चीन का मानना है यदि उन्होंने बिना किसी बाहरी सहयोग के अपनी ऊर्जा जरूरतों और इस तरह से उत्सर्जन को कम किया तो इसके दूर नहीं बल्कि निकटगामी परिणाम उनके लिए अत्यंत दुखदायी साबित होने वाले हैं

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति ही कुछ ऐसी है कि इसमें देशहित के नाम पर बड़े-बड़े पर-देशहित तो क्या विश्वहित भी कुर्बान किए जा सकते हैं. आजतक ऐसा ही परमाणु अप्रसार पर हुआ है, जिसमें कुछ बड़े देशों द्वारा अपनी दादागिरी बनाए रखने के लिए विश्वविनाशक हथियारों के समूल नाश की बजाय उन्हें अपने तक ही सीमित रखने के प्रयास किए जा रहे हैं, और ऐसा ही पर्यावरण परिवर्तन के मुद्दे पर भी हो रहा है जो कि एक दिन समूचे विश्व के ही विनाश का कारण बन सकता है. क्योटो संधि जिसकी मियाद 2012 में खत्म हो रही है उसकी जगह किस तरह का विश्व-समझौता लेगा इसपर फैसले के लिए दो साल पहले बाली में 2009 के अंत तक की समय सीमा निर्धारित की गई थी. यह समयसीमा समाप्त होने को है, सारे देशों को दिसंबर में नई संधि पर फैसले के लिए कोपेनहेगन में मिलना भी है परंतु  सहमति के कोई आसार ही नहीं नजर आ रहे हैं.

क्योटो संधि पर सहमति 1997 में और यह बनी थी कि चूंकि विकसित देशों में अंधाधुंध औद्योगीकरण के चलते विश्व पर्यावरण को जबर्दस्त नुकसान हुआ है इसलिए उन्हें न केवल इसके लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 1990 के स्तर से 5.2 फीसद कम करना होगा बल्कि कोई दबाव न होते हुए भी विकासशील देश ऐसा कर सकें इसके लिए उन्हें आर्थिक और तकनीकी प्रोत्साहन भी देने होंगे. मगर अमेरिका, रूस और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों की हीलाहवाली के चलते यह संधि पूरे आठ साल तक लटकी रही और 2005 में ही लागू हो पाई. चूंकि क्योटो संधि को लागू होने में पूरे आठ साल लग गए थे इसीलिए भी शायद नई व्यवस्था को समय रहते स्थापित किये जाने पर जोर दिया जा रहा है ताकि क्योटो संधि के खत्म होते ही या उसके आसपास इसे लागू किया जा सके.

विकसित देशों का तर्क है कि चूंकि चीन और भारत सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करने वालों में हैं और इसे भविष्य में बढ़ना ही है इसलिए क्योटो संधि के उलट नई व्यवस्था में उन जैसे तमाम देशों पर भी खुद की कीमत पर उत्सर्जन कम करने की बाध्यता लागू होनी चाहिए. जबकि विकासशील देशों के समूह जी-77 और चीन का मानना है कि अभी तो उनकी मुख्य समस्याएं अपने नागरिकों के लिए रोजी-रोटी और ठीकठाक सा जीवन सुनिश्चित करने की है और ऐसी हालत में यदि उन्होंने बिना किसी बाहरी सहयोग के अपनी ऊर्जा जरूरतों और इस तरह से उत्सर्जन को कम किया तो इसके दूर नहीं बल्कि निकटगामी परिणाम उनके लिए अत्यंत दुखदायी साबित होने वाले हैं. इसके अलावा विकसित देशों के विकास की कीमत वे क्यों अदा करें?

पक्ष-विपक्ष में चाहे कितने भी तर्क-प्रतितर्क दिये-लिए जाएं मगर सच यह है कि इस दिशा में जितनी जल्दी हो सके, युद्ध स्तर पर ठोस उपाय किए जाने की जरूरत है. विकासशील देशों को यह समझना होगा कि ऐसा न करने के सबसे भयावह और सबसे पहले परिणाम उन्हें ही झेलने होंगे और विकसित देशों को यह कि यह समस्या उन्हीं की जायी है और इसके कमोबेश उतने ही भयावह परिणाम उन्हें भी भुगतने ही होंगे. कल नहीं तो परसों!

संजय दुबे