अपनी जड़ों से उखड़ना आसान नहीं होता, मगर हर साल शरणार्थी बनकर भारत आने वाले लगभग 100 पाकिस्तानी हिंदुओं की कहानियां सुनकर लगता है कि उनके पास कोई और रास्ता भी नहीं. धार्मिक पूर्वाग्रह और जान का डर उन्हें घर-बार छोड़कर यहां आने और जिंदगी अधर में बिताने पर मजबूर कर रहा है, बता रही हैं निशा सूजन, सभी फोटो शैलेंद्र पांडेय
‘पाकिस्तान में अपने घर के भीतर भी हमें जान का डर रहता था. यहां हम रात को चैन की नींद सोते हैं’
प्रीतम और प्यारी एक साल पहले जोधपुर आए
प्रीतम कभी पाकिस्तान में एक लेडी डॉक्टर के क्लीनिक में कंपाउडर थे. वहीं पैदा हुए इस शख्स का डर हिंदुओं के खिलाफ हमलों की अफवाहों से उपजा. वो राशन की दुकान से कम से कम सामान खरीदते ताकि हिंदुओं को लूटने या उनकी हत्या करने वाले तत्वों की निगाह में न आएं. फिर एक दिन एक मुसलमान ने अपनी पत्नी के साथ अवैध संबंध का आरोप लगाकर सरेआम उन्हें गोली मारने की धमकी दी. ये आखिरी चोट थी. प्रीतम ने बचत का पैसा वीजा जुटाने में खर्च किया और परिवार सहित भारत आ गए.
‘यहां दिक्कत तो हो रही है मगर हम वापस पाकिस्तान जाने के बारे में नहीं सोच सकते. वहां हमारे बच्चे सुरक्षित नहीं थे’
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अजमल राम, इसी साल भारत आए |
करीब दो साल के भीतर अजमल के परिवार के दो बच्चे गायब हो गए. जब उनकी खोज-खबर मिली तो पता चला कि उन्होंने अपनी मर्जी से इस्लाम अपना लिया है. उनके मां-बाप को उन्हें वापस घर नहीं ले जाने दिया गया. हालात ऐसे थे कि अजमल के परिवार की पुलिस के पास जाने की हिम्मत तक नहीं हुई. बेहतर जिंदगी की उम्मीद में वे परिवार सहित भारत चले आए. चार महीने पहले इस बड़े परिवार का बोझ अकेले अजमल के कंधे पर आ गया. दरअसल उनके पिता और भाई अपने रिश्तेदारों से मिलने जोधपुर से बीकानेर चले गए थे जो वीजा शर्तों का उल्लंघन था और तभी से वे जेल में हैं.
‘हिंदुओं को पाकिस्तान में इंसान नहीं समझ जाता. उनकी नजरों में हमारी कोई इज्जत नहीं’
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राजूराम, इसी महीने भारत पहुंचे हैं |
जोधपुर में रह रहे 25 साल के राजूराम कहते हैं, ‘हिंदुओं का पाकिस्तान में कोई भविष्य नहीं है.’ उनके छोटे भाई मुन्ना हामी भरते हुए सिर हिलाते हैं. दोनों भाई पाकिस्तान में खेतिहर मजदूर थे जिन्हें अच्छे जमींदार की तलाश में कई बार तो साल में छह बार जगह बदलनी पड़ती थी. मुन्ना कहते हैं, ‘पाकिस्तान में किसी हिंदू के स्कूल जाने या सरकारी नौकरी के लिए कोशिश करने का कोई मतलब नहीं है.’ राजूराम आगे जोड़ते हैं, ‘हिंदू अपने बच्चों को स्कूल भेजते हुए डरते हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि मुसलमान हमारे बच्चों को पहचान लें. अगर उन्हें पता चल जाए कि हमारे बच्चे पढ़ाई में तेज हैं तो वे उन्हें गायब कर देते हैं.’
‘वे मेरे बेटे को तब ले गए थे जब वह अपना भला-बुरा नहीं सोच सकता था. मैंने उसके लिए कई साल इंतजार किया’
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जियोबाई, इसी साल भारत आईं |
जियोबाई का बेटा जब गायब हुआ तो उसकी उम्र 13 साल थी. कई दिन के बाद वह उन्हें पड़ोसी के घर में मिला. मगर उनसे कहा गया कि अब वह मुसलमान है. पुलिस ने जियोबाई की शिकायत पर ध्यान नहीं दिया. कुछ साल बाद वह खुद ही घर लौट आया. यह सोचकर कि हिंदुओं के साथ रहने से उसका मन बदल जाएगा, जियोबाई का परिवार जोधपुर आ गया मगर कुछ महीने बाद ही उनका बेटा पाकिस्तान लौट गया.
‘हम हर दिन नफरत के बीच में जी रहे थे. हमने सब कुछ छोड़ दिया ताकि बिना किसी डर के जीने का एक मौका मिल सके’
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कबीर राम और रानी, अक्टूबर में जोधपुर आए |
कबीर खान कहते हैं, ‘हम अपने त्यौहार बिना हिचक के मनाना चाहते थे.’ बूढ़े होने की वजह से वो काम नहीं कर सकते और उनकी पत्नी सुन नहीं सकतीं. उन्हें पता नहीं कि उनके बच्चों को भारत आने के लिए वीजा कब मिलेगा. मगर यहां आने का उन्हें कोई अफसोस नहीं है.
वो कहते हैं, ‘मेरे गांव का हर हिंदू परिवार भारत आने के लिए वीजा पाने की कोशिश कर रहा है.’
ये शरणार्थी तालिबान की बात तो नहीं करते मगर ये जरूर बताते हैं कि तबलीगी हर महीने उनके घर आया करते थे. 23 साल के अजमल राम कहते हैं, ‘वो दौलत का झूठा लालच देते हैं, कहते हैं कि अपनी बेटियों से तुम्हारी शादी कर देंगे. वो हमें ये भी बताते हैं कि अगर हमने अपना धर्म नहीं बदला तो हम नरक में जाएंगे.’लगभग 1000 लोग हर साल पाकिस्तान से भागकर भारत आ जाते हैं. अजमल भी उन्हीं में से एक हैं. ये ऐसे लोग हैं जिनकी पिछली पीढ़ी भी पाकिस्तान में ही पैदा हुई है. इनमें से हर किसी की कहानी लगभग एक जैसी है. वे बताते हैं कि हर वक्त कुछ नजरें उनके पीछे लगीं रहती थीं, वे अपने में ही सिमटते जा रहे थे, तीज-त्यौहार चुपचाप मना लेते या फिर बिल्कुल ही नहीं मनाते थे. उनकी पूजा-प्रार्थना बंद कमरे में होती और कई अपने बच्चों का नाम अफजल या अजमल रख देते. बसों या रेल में सफर करना भी मुसीबत से कम नहीं होता.
हर शरणार्थी के पास जबरन धर्मातरण से जुड़ी कोई न कोई ऐसी कहानी भी सुनने को मिल जाएगी जिसका वो गवाह रहा है. वे बताते हैं कि महिलाएं और बच्चे गायब हो जाते थे और फिर एक दिन पता चलता था कि वे मुसलमान हो गए हैं. बच्चों को वापस लाने की मां-बाप की कोशिश नाकामयाब रहती क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें समाज और व्यवस्था से कोई मदद नहीं मिलती. इन शरणार्थियों से बात करने पर अक्सर ये बात भी सुनने को मिल जाती है, ‘हमने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया था. अगर ये पता चल जाता कि वो पढ़ने में तेज हैं तो तबलीगी उन्हें ले जाते.’ ये सभी शरणार्थी बताते हैं कि उन्हें कई बार ये कहकर अपमानित किया जाता था कि वे भूतों की पूजा करते हैं. विंडबना देखिए कि इन शरणार्थियों में से ज्यादातर भील और मेघवाल हैं जिनके आराध्य 14 शताब्दी में हुए बाबा रामदेव या रामदेव पीर हैं और इन्हीं रामदेव पीर के लिए सीमा के दोनों तरफ के मुसलमानो में भी उतनी ही श्रद्धा है. दशकों तक इन सभी लोगों ने कोशिश की कि उनके रोजमर्रा के रहन-सहन में उनका धर्म कहीं से नजर न आए. मगर अब ऐसा लगता है कि ये कोशिश नाकाफी साबित हो रही है.
इस पूर्वाग्रह ने गरीबी के उस अभिशाप को और भी गहरा कर दिया था जो ये लोग पीढ़ियों से ङोलते रहे हैं. खेतिहर मजदूरों के रूप में इन भीलों के लिए काम की कोई कमी नहीं थी मगर इसके बावजूद उनका भविष्य हमेशा अधर में लटका रहा. उधर, मेघवालों, जिनमें से ज्यादातर का पुश्तैनी व्यवसाय जूते बनाना है, ने खुद को समझाया कि अगर कल को उन्हें कामयाबी मिल भी जाए तो वे हिंदू विरोधी तत्वों की निगाह में आ जाएंगे इसलिए जगह छोड़ने में ही बेहतरी है.
भारत आने की प्रक्रिया में अक्सर इन शरणार्थियों के कई साल शार्ट टर्म वीजा पाने में निकल जाते हैं जिसके लिए इन्हें कई बार इस्लामाबाद के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सभी लोगों के पास इस्लामाबाद में बिताए दिनों की यादें हैं, कृष्ण मंदिर की, जहां वो रहते हैं, हाई कमीशन की भी, जहां के कर्मचारियों से वो गुहार लगाते हैं कि हिंदू होने के नाते वे उनकी तकलीफ को समझें जब उन्हें ये वीजा मिल जाता है तो राजस्थान आने के लिए थार एक्सप्रेस में चढ़ते वक्त उनके पास कपड़े-लत्तों के सिवाय ज्यादा कुछ नहीं होता.
भारत आने के बाद भी उन्हें पता होता है कि यहां की नागरिकता पाने के लिए उन्हें मुश्किलों से भरे कई और साल देखने होंगे. तब तक सरकार से उन्हें कुछ नहीं मिलता सिवाय इस शर्त के कि वो अपना शहर नहीं छोड़ेंगे जो कि अक्सर बीकानेर या जोधपुर होता है. मगर ये सब वजहें भी शरणार्थियों की बढ़ती तादाद को नहीं थाम पातीं. जैसा कि रावत राम कहते हैं, ‘हमारे बाप-दादा पाकिस्तान में गुलामों की तरह रहे हों मगर हम नहीं रह सकते.’ 23 साल के रावत राम कभी कॉलेज में एक प्रतिभावान छात्र हुआ करते थे मगर अब जोधपुर में कपड़े सिलने का काम करते हैं.
हालांकि यहां भी मुश्किलें कम नहीं है. उनकी दस साल पुरानी बस्तियों में भी न बिजली है न पानी. सरकार उन्हें नागरिकता और इससे जुड़े लाभ देने के लिए तैयार तो है मगर जब तक ऐसा नहीं होता तब तक इन शरणार्थियों की जिंदगी बस उम्मीद पर ही टिकी है.