यह विडम्बना ही है कि अपने को जनता का प्रतिनिधि कहने वाली लेफ्ट पार्टियाँ हमेशा से ऐतिहासिक भूलें करती आयी हैं. बाद में वो इसे तहे-दिल से स्वीकार भी करती आई है. कुछ-कुछ इस शक्ल में कि ‘लो जी फिर से एक ऐतिहासिक भूल हो गई. अब क्या करें. हम करना तो कुछ और चाहते थे पर हो कुछ और ही गया.’ इस बार भी लेफ्ट से ऐतिहासिक भूल हो ही गई. आज नहीं (क्यूंकि बैठकों में काफी वक्त लगता है) पर कल जरूर लेफ्ट वाले यह सच सबके सामने स्वीकार करेंगे कि ‘लो जी एक और भूल हो गई’. पर उसमें अभी काफी समय है.
बेचारे वह भी क्या करें. मार्क्स-लेनिन ने इतना लिख डाला है कि पढ़ते-पढ़ते तरुणाई में ही ऑंखें खराब कर लेते हैं. बाकी अनगिनत विचारक भी हैं. उनसे भी निपटना जरूरी होता है. आख़िर यही पढ़ाई तो उनकी ‘पूंजी’ है जिसके बल पर पोलित ब्यूरो में बैठकर राजनीति करने का हक उन्हें मिलता है. अगर जनता के बीच रहकर राजनीति कर रहे होते तो बाटा की हजारों चप्पलें घिसने के बाद भी शायद ही डिस्ट्रिक्ट कमिटी का चेहरा देख पाते. अब जब आँखों से साफ़ दिखाई ही न दे तो गलती तो होनी ही है. अभी कुछ दिन पहले ही एक पत्रकार बंधु कह रहे थे, ‘परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहा है कि आपकी आंखें चुंधिया जाएंगी. समय बिल्कुल राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की तरह भाग रहा है. प्लेटफार्म पर खड़े किसी व्यक्ति को सिर्फ़ इतना ही दीखता है कि कोई ट्रेन गुजर रही है. उसपर लिखी इबारत नहीं दिखती.’ यहां तो पहले से ही आँखों में मोतिआबिंद हुआ पड़ा है. ऐसे में क्या कुछ खाक दिखेगा. देखियेगा कोई पांच साल बाद एक बयान आयेगा (आदत के मुताबिक) कि ‘लो जी एक और भूल हो गई’. कारण मैं पहले ही बता चुका हूं, आखिर लोकल कमेटियों से लेकर पोलित ब्यूरो तक कोई निर्णय लेने में इतना वक्त तो लगेगा ही.
पर उनकी ईमानदारी पर आप शक नहीं कर सकते. देखियेगा कोई पांच साल बाद एक बयान आयेगा (आदत के मुताबिक) कि ‘लो जी एक और भूल हो गई’. कारण मैं पहले ही बता चुका हूं, आखिर लोकल कमेटियों से लेकर पोलित ब्यूरो तक कोई निर्णय लेने में इतना वक्त तो लगेगा ही. उसपर पार्टी कोई एक राज्य में थोड़े ही ना है. तीन राज्यों में तो सरकार चला रहें हैं. उसपर थोड़ा बहुत आधार कुछ और राज्यों में भी है. कहीं आधार नहीं भी है तो क्या, पार्टी तो है. वहां की भी राय सुनी जानी जरूरी है. फिर पार्टी के भीतर वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसा का वातावरण बरक़रार रखने के लिए अलग-अलग धडे भी हैं. आखिर इन सबको समेटने में वक्त तो लगता ही है.
खैर, तो बात हो रही थी ‘ऐतिहासिक भूल की’. लेफ्ट वाले यह समझकर सरकार को समर्थन दिए जा रहे थे कि सरकार कोई भी जन-विरोधी कदम नहीं उठा रही है. मंहगाई का क्या. गलोब्लाइजेशन का ज़माना है और मंहगाई ग्लोबल फिनोमिना है. कब तक रोक पायेगी सरकार. पेट्रोल-डीज़ल का दाम भी बढेगा. ग्लोबल वॉर्मिंग के ज़माने में फल-सब्जिओं और खाद्यान्न के दामों में तो आग लगेगी ही. कुछ भी है एक सेकुलर सरकार तो है. और इसे साम्राज्यवाद विरोधी भी बनाकर ही दम लेंगे. मनमोहन और चिदम्बरम पहले भले ही वर्ल्ड बैंक की गुलामी बजा चुके हों उन्हें अब ऐसा कभी नहीं करने देंगे. उन्हें भी थोड़ा ह्यूमन टच भर देने की जरूरत है. वे ख़ुद ही समझ जायेंगे. कुछ ऐसा ही मुगालता पाले बैठे थे हमारे लेफ्ट बंधू. कितने भोले हैं हमारे कर्णधार. इतने भोलेपन से पॉलिटिक्स करते हैं जैसे कोई बच्चा अपनी मां के साथ खेल करता है. चॉकलेट नहीं मिले तो रोने लगता है. मां भी उसकी हर अदा जानती है. प्यार से झिड़क देती है. इतने भोलेपन पर ही शायद विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है: ‘इतने भोले मत बन जाना साथी, जैसे होते सर्कस के हाथी’. बेचारों को बिल्कुल नचा कर छोड़ दिया. चार साल तक अपना मतलब भी साधा और फ़िर ठेंगा भी दिखा दिया. पर लेफ्ट वाले बेचारे इसमे क्या करें. उन्होंने तो जी भरके कोशिश की कि इनका हृदय परिवर्तन हो जाए. नहीं हो सका तो समर्थन वापस भी ले लिया. इससे ज्यादा क्या कर सकते थे.
अब अगर यह न्यूक्लियर डील हो जाती है. तो लेफ्ट की कोई जिम्मेदारी नही है. वो तो सरकार को अब समर्थन नहीं कर रहे. समाजवादी वाले इनके मुंहबोले भाई लोग कर रहे हैं. लालू-मुलायम को कितना चाहते थे बेचारे. क्या-क्या नहीं किया इनके लिए. दुनिया भर की तोहमतें लीं. फिर भी वे धोखा देकर कांग्रेस के खेमे में चले गए. और शुक्र है कि अभी तक कांग्रेस के खेमें में है. वह भी लेफ्ट की वजह से, नहीं तो बीजेपी के खेमें में चले जाते तो क्या कर लेते. लेफ्ट का पढाया पाठ कि साम्प्रदायिकता बहुत बड़ा खतरा है, उन्हें याद रह गया है. आखिर सब कुछ भूलने में वक्त तो लगता ही है. वरना हो सकता है कि वह सीधे बीजेपी के खेमे में ही चले जाते. आख़िर अमर सिंह ने तो कह ही दिया, सुरजीत साहब की दिली इच्छा थी कि वह कांग्रेस के नजदीक आ जायें सो वो आ गए. कुछ अलग थोड़े ही कर रहे हैं. सुरजीतवाद को ही अपना रहे हैं.
यह भी कम बड़ी विडम्बना नहीं है कि लेफ्ट बंधु जिस चीज़ को पानी पी पी के कोसते हैं वह होकर ही रहता है. बीजेपी को इतना कोसा कि उनकी सरकार तक बन गई. सांप्रदायिकता के नाम पर क्या क्या और किस-किस से समझौता नहीं किया. पर जितना उसे कमजोर करने की कोशिश करते हैं. मजबूत होती जाती है. अभी देखिये. कांग्रेस को समर्थन दिया था कि बीजेपी शासन से दूर रहे पर उसके कदम साउथ ब्लॉक की तरफ बढ़ते ही जा रहे है. अब डील के पीछे पड़े हैं मगर वह भी होकर ही रहेगी. लेफ्ट की छवि भी कुछ उलटी बन गई है. अब तो खाए पिए लोग यह सोचने लगे हैं कि लेफ्ट वाले विरोध कर रहे हैं तो जरूर वह देश के हित में होगा. भाई -बंधुओं को इसपर भी जरा विचार करना होगा.
कितने मौके आए जब सरकार गिरा सकते थे पर नहीं बीजेपी आ जाएगी का भय दिखाते रहे. कुछ कुछ उस आदमी की तरह जो झूठमूठ हॉल मचाता था कि शेर आया. लोग दौड़-दौड़कर परेशान. और जब शेर आया तो कोई भी साथ में नही था. यही हाल हो गया बेचारों का. तीसरा मोर्चा का बनता पतीला फ़िर लुढ़क गया. और बेचारे अकेले खड़े हैं. कुछ कुछ उन्ही अभिशप्त आत्माओं की तरह जो अकेले रहने को अभिशप्त हैं.
हो सकता है पाँच साल वाद वाले बयान में यह भी आए, कि हमने सरकार को समर्थन देना ही नहीं था. यह भी एक ऐतिहासिक भूल थी.
मृत्युंजय प्रभाकर