फिल्म एसिड फैक्ट्री
निर्देशक सुपर्ण वर्मा
कलाकार इरफान खान, मनोज वाजपेयी, डीनो मोरिया, दिया मिर्जा
यह एक उम्दा और कसी हुई स्क्रिप्ट वाली फिल्म है, एक अच्छी थ्रिलर. संजय गुप्ता के प्रोडक्शन की कांटे और जिन्दा स्टाइल वाली यह पूरी कहानी विदेश में ही घटती है, जहां पांच लोग एक एसिड फैक्ट्री में बन्द हैं और अपनी याददाश्त खो बैठे हैं. हमारे यहां की जितनी फिल्में भी विदेश में शूट होती हैं, उनका बड़ा प्रतिशत कॉपी की गई फिल्मों का होता है. इस तरह मूल पटकथा में ज्यादा बड़े संशोधन करने की मेहनत बच जाती है. एक उड़ती हुए खबर हम तक भी पहुंची है कि यह ‘अननोन’ नाम की किसी फिल्म की कॉपी है, उसी तरह, जैसे जिन्दा’, ‘ओल्ड बॉय’ की थी और ‘कांटे’, ‘रिजरवॉइर डॉग्स’ की. यदि हम इस तथ्य से निरपेक्ष रह पाते हैं और अपनी याददाश्त, फिल्म के चरित्नों की तरह बनाकर यह भूल जाते हैं कि यह नकल से बनी फिल्म है तो वाकई यह एक अच्छी फिल्म है जो आपको बांधे रखती है और पलक झपकने जितनी फुरसत भी मुश्किल से ही देती है. बीच में देर तक हवा में उड़ती और जलती हुई कारों के लगभग अर्थहीन सीक्वेंस जरूर हैं, मगर वे ‘धूम’ की तरह बिल्कुल बेवजह भी नहीं हैं. उनके आसपास और बीच में एक मजबूत कहानी है, बढ़िया सिनेमेटोग्राफी एडिटिंग और सब कलाकारों का अच्छा अभिनय खासकर मनोज वाजपेयी का, जो तालियां और ध्यान खींचने वाली चुम्बक से बने लगते हैं. अच्छे निर्देशक और अच्छी फिल्म की विशेषता होती है कि उसमें साधारण और बुरे अभिनेता भी अपने किरदार संजीदगी से निभा जाते हैं. फरदीन और डीनो से भी सुपर्ण वर्मा ने अच्छी एक्टिंग करवा ली है.
यह टेरन्टिनो की शैली की फिल्म है, अपराधियों की कहानी और उनके आपस के रिश्तों और व्यवहार पर बनी हल्की डार्क फिल्म और हल्की कॉमेडी भी. यह ग़ैरजवाबदेह और झूठे लोगों की कहानी है और फिल्म के मूड के अनुरूप बहुत खूबसूरती से पुरानी बन्द फैक्ट्री का परिदृश्य रचा गया है. कितना अच्छा है कि फिल्म के रंग भी उनकी याददाश्त की तरह सीमित हैं और फिल्म देखने के बाद आपको जंग लगे लोहे का रंग देर तक याद रहता है जो शायद वहां रखे लोहे के पुराने सामान का रंग है. यह तकनीकी रूप से सुदृढ़ होते हुए भी अपने ज्ञान को ‘कमीने’ की तरह आप पर नहीं थोपती. सुपर्ण वर्मा को याद है कि एक अच्छी सब्जी, मसालों में सब्जी डालने से नहीं, सब्जी में मसाले डालने से बनती है.
गौरव सोलंकी