दिवाले के बावजूद दिवाली

गरीब आदमी दिया जलाता है तो अंबानी बनने के लिए नहीं. और अंबानी भी दिवाली का दिया जलाता है तो बफेट या बिल गेट्स से आगे निकलने के लिए नहीं. लक्ष्मी ईर्ष्या बढ़ाने वाली देवी तो कही गई है लेकिन वह मात्र धन की देवी नहीं हैमंदी हो कि महामंदी. और दिवाली का त्योहार मनाने के लिए सभी जरूरी चीजों के दाम मेहनतकश आदमी की पहुंच से भले ही बिल्कुल ऊपर निकल गए हों. भारत के गरीब आदमी ने फिर भी दिवाली की रात दिया जलाया. कवियों और आध्यात्म वालों ने इसे अंधेरे पर आदमी की अटूट और अमर उजियारी आत्मा की विजय आदि कहा है. लेकिन भावना और आत्मा की बातें एक बार आप छोड़ दें और दिए को आप लक्ष्मी और समृद्धि की भौतिक कामना ही मानें तो भी यह कम महत्व की बात नहीं है कि अपने देश में दिवाली धनपतियों का विशिष्ट त्योहार नहीं है. एक कहावत में अपने यहां त्योहारों का कुछ वैसा ही जातिगत बंटवारा चला आ रहा है जैसा साहित्य की विधाओं का कहते हैं कि राजेन्द्र यादव ने हाल ही में किया है. जैसे रक्षा बंधन ब्राम्हणों का, विजयादशमी क्षत्रियों का दिवाली वैश्यों का और होली शूद्रों का त्योहार कहा जाता है. लेकिन लोक जीवन में तो ऐसा बंटवारा और जातिवाद अपन ने कहीं और कभी देखा नहीं. राखी भाई बहन का, दशहरा राम रावण का, दिवाली दियों का और होली रंगों का त्योहार है कहीं भी चले जाइए.

गरीब आदमी दिया जलाता है तो अंबानी बनने के लिए नहीं. और अंबानी भी दिवाली का दिया जलाता है तो बफेट या बिल गेट्स से आगे निकलने के लिए नहीं. लक्ष्मी ईर्ष्या बढ़ाने वाली देवी तो कही गई है लेकिन वह मात्र धन की देवी नहीं है. ऐसा होता तो धन तेरस और लक्ष्मी पूजन दो अलग-अलग दिनों पर नहीं होता. धन और लक्ष्मी एक ही  होतीं तो उनकी पूजा एक ही दिन होती. ऋग्वेद का श्री सूक्त पढ़ें और मनन करें – जिससे कि लक्ष्मीउपासना का चलन चला तो आप पाएंगे कि श्री, धन से कहीं अधिक है. बल्कि श्री के ऐसे कई रूप हैं जो धन से खरीदे ही नहीं जा सकते.

धन और लक्ष्मी को एक किया है पूंजीवाद ने. श्रम को पूंजी से ज्यादा महत्व देने वाले मार्क्सवाद या साम्यवाद या समाजवाद ने भी लक्ष्मी को गाय के खुर या गोबर में रहते हुए नहीं दिखाया है जैसा कि धन धान्य को लक्ष्मी बताने वाली भारतीय परंपरा ने. मार्क्स को पूंजी के अकूत भंडारण या जमाव से कोई एतराज नहीं है. वे बस उस पर नियंत्रण कुछ पूंजीपतियों का नहीं समाज या राज्य का चाहते हैं. उन्हें उत्पादन की ऐसी ही टेक्नॉलॉजी चाहिए जो खूब और अतिरिक्त पूंजी बनाती हो. इस माने में पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही औद्योगिक क्रांति की देन हैं. एक ही सिक्के के दो पहलू. दोनों ही मानने से इनकार करते हैं कि असमानता और अन्याय पूंजी के इस भंडारण से अनिवार्य है और वही समता, न्याय, बंधुत्व और स्वतंत्रता का सपना पूरा नहीं होने देता.

औद्योगिक क्रांति से यह सब संभव हुआ और औद्योगिक सभ्यता ने खेती को जीवन शैली और संस्कृति नहीं रहने दिया. अनाज पैदा करने का साधन मात्र बना दिया. धरती माता नहीं रह गई अनाज पैदा करने की मशीन बना दी गई

लेकिन यहां मेरी चिंता पूंजीवाद या साम्यवाद नहीं है. मैंने बात दिवाली की रात जले गरीब के दिए से की थी. गरीब का दिया हर आदमी की सर्वव्यापी, सार्वकालिक और सर्व विद्यमान इच्छा है जो लक्ष्मी पर अपने मनुष्य होने भर से अधिकार जताती है. इस इच्छा को आप नकार नहीं सकते और इसलिए अपको ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ेगी जो हर घर को जगमगाए और सब में लक्ष्मी का वास हो. ऐसी व्यवस्था पूंजी का कुछ तिजोरियों में भंडारण होने से नहीं बन सकती. इसके लिए तो आपको विकेंद्रित उत्पादन और विकेंद्रित वितरण चाहिए. केंद्रित उत्पादन और केंद्रित वितरण लक्ष्मी को हर घर में पहुंचने नहीं देता. विषमता उसके मूल में और अनिवार्य है.

जिस व्यवस्था में से दिवाली का त्योहार निकला और चला वह कृषि संस्कृति है. खेती में से पूंजीवाद नहीं निकला है. खेती में से उतनी तेजी से और इतना विशाल उत्पादन नहीं हो सकता है कि खूब पूंजी जमा हो सके. औद्योगिक क्रांति से यह सब संभव हुआ और औद्योगिक सभ्यता ने खेती को जीवन शैली और संस्कृति नहीं रहने दिया. अनाज पैदा करने का साधन मात्र बना दिया. धरती माता नहीं रह गई अनाज पैदा करने की मशीन बना दी गई. यूरोप से किसान निकले और एशिया, अफ्रीका, अमेरिका जहां कहीं भी जमीन दिखी उस पर कब्जा कर के वहां के किसानों को गुलाम और मजदूर बना लिया. कारखाने की तरह खेती करवाने वाले नए मालिकों को अपनी नई जमीन से वह लगाव नहीं था जो उनके मूल निवासियों का था. इसलिए खेती तो रही किसानी धीरे धीरे समाप्त हुई. डेढ़ सौ साल में मशीन और उद्योग ने अपनी कोई संस्कृति तो बनाई नहीं कृषि संस्कृति को नष्ट जरूर कर दिया.

साम्राज्यवादियों के कोई डेढ़ सौ साल तक किए गए औद्योगीकरण के बावजूद भारत में किसानी और कृषि संस्कृति बची रह गई. आजादी के साठ साल में खुद हमने अपने पुराने शासकों की नकल में जो कुछ औद्योगीकरण किया है उससे खेती और किसानी की जितनी हानि हुई है पिछले दो सौ साल में नहीं हुई थी. खास कर पिछले अठारह साल में जब से हम नवउदार पूंजीवाद के रास्ते पर चल निकले हैं. इन वर्षों में खेती और किसानी दोनों ही बरबाद हुए हैं. गांव उजड़ रहे हैं. महानगरों में भीड़ बढ़ रही है. गांवों से उजड़ कर आए ज्यादातर लोग महानगरों के अवैध नागरिक हैं. उनकी बस्तियां गंदी और अवैध हैं. वे कथित औद्योगिक सभ्यता की खुरचन पर जी रहे हैं.

नव उदार वाद में पूंजी को तो कहीं भी आने जाने और कमाने गंवाने की छूट है लेकिन मजदूर और किसान यूरोप के पुराने किसानों की तरह दुनिया में कहीं भी जा कर उपनिवेश नहीं बना सकते. ऐसे में आप अपनी खेती किसानी को बरबाद कर के उसे उद्योग बनाने के लिए उद्योग घरानों को दे तो सकते हैं लेकिन कोई सत्तर करोड़ लोगों का क्या करेंगे. वे यूरोप, अमेरिका आदि विकसित देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा हैं. दुनिया भर के सारे उद्योग मिल कर भी इतने लोगों को उत्पादक रोजगार और इज्जत की जिन्दगी नहीं दे सकते. फिर नव उदारवाद ने दुनिया भर में जो ग्रोथ की है वह रोजगार को तो घटा कर ही की है. जॉबलेस ग्रोथ. इस ग्रोथ से जो दौलत बनी है उसके समान वितरण की तो कोई व्यवस्था है नहीं. इसलिए भारत में ही नहीं दुनिया में सब जगह अमीर और अमीर और गरीब और गरीब हुए हैं. यह व्यवस्था अमीर को तो हड़प कर तेजी से बल्कि रातों रात कुबेर होने का इंतजाम और छूट देती है. लेकिन अमीरी के रिस कर नीचे तक जाने के लिए धीरे धीरे रिसने का धीरज रखने को कहती है. लेकिन यह भी गरीबों का दिल बहलाने के लिए है. दरअसल इस व्यवस्था में ऐसा कुछ नहीं है कि जो ग्रोथ हो रही है वह अपने आप समान रूप से नहीं तो न्यायिक रूप से ही सब में बंट जाए. पूंजी वाले उसी और उतने ही पानी को रिसने देते हैं जो उनके अमीरी के तालाब में समा ही नहीं सकता है.

इसलिए खेती किसानी को उजाड़ कर और औद्योगीकरण से डबल डिजिट ग्रोथ कर के इकनॉमिक सुपर पॉवर बनने का जो सपना हमारे शासक और मध्यवर्ग के लोग देख रहे हैं वह दरअसल अपने ही देश को अपना उपनिवेश बनाने की तैयारी है. इसमें अपने ही दस प्रतिशत लोग नए अंग्रेज बन कर बाकी के नब्बे प्रतिशत लोगों पर राज करेंगे. दस प्रतिशत लोगों की सुपर अमीरी किसी देश को आर्थिक सुपर पॉवर तो बना नहीं सकती. गरीबी के पिरामिड पर अमीरी का त्रिशूल या गरीबी के समुद्र में अमीरी के टापू कब तक टिके रह सकते हैं? दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के साल भर बाद ही इलाहाबाद के म्योर कॉलेज की इकनॉमिक सोसायटी को महात्मा गांधी ने कहा था कि एक देश की सुव्यवस्था और समृद्धि उसके खरबपतियों की गिनती से नहीं आंकी जा सकती बल्कि ये उसमें किसी के भी भूखे न रहने से तय होती है. इस कसौटी को लगाएं तो अपनी असलियत बिना बताए उजागर हो जाती है.

हम अमेरिकी पत्रिकाओं फोर्ब्स और फॉरचून के चक्कर में अपने खरबपतियों की दौलत और कंपनियों के तल ढूंढ़ते रहते हैं. देखना नहीं चाहते कि गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी कितनी बढ़ रही है. कई बार लगता है कि मीडिया और सोच-समझ वालों का ध्यान अमीरों पर है भले ही वे गिनती के हों और उन अनगिनत लोगों की जैसे जानबूझ कर अनदेखी की जाती है जिनके पास कुछ नहीं है. न खोने के लिए न पाने के लिए. लेकिन इस से इस देश की वास्तविकता तो बदल नहीं जाती. जब तक सब लोगों के पास लक्ष्मी नहीं आती यह देश लक्ष्मीपति नहीं हो सकता. इंग्लैण्ड में जा बसे लक्ष्मी मित्तल के लक्ष्मीपति होने से भारत के खरब लोगों की समृद्धि नहीं हो सकती. यूरोप और अमेरिका उद्योग से बन गए होंगे लेकिन भारत में तो खेती किसानी और औद्योगिकता का सुखद और सुनहरा समन्वय करना होगा नहीं तो यह देश बन नहीं सकता. इसके लिए खेती और किसानी को अलग होना होगा और औद्योगीकरण का  चला आ रहा साम्राज्यवादी मॉडल भी बदलना होगा. गए साल जब पन्द्रह सितम्बर को वॉल स्ट्रीट में वित्तीय नव उदार पूंजीवाद का दिवाला निकला तब मौका था कि हम अपनी आर्थिक नीतियों को रीगन-थैचर की वाशिंगटन सहमति से निकाल कर नई भारतीय सहमति से जोड़ें. पर अपने लिए अपना नया रास्ता निकालने की इच्छा और हिम्मत अपने शासकों में नहीं है.

दिवाली की रात जला गरीब का दिया मगर अब भी टिमटिमा रहा है. न उसने अंधेरे से हार मानी है न अपने नीति निर्धारकों के अंधत्व से. गरीब के उस दिए ने ही भारत को अंधेरे में डूबने से बचाया है. महानगरों के मॉलों और सुपर बाजारों की चकाचौंध तो यों भी उतर गई है. टिका तो वही गरीब का दिया है. तुम न देखो उसकी ओर. तुम्हें अंधेरे से बचाने की ग्यारंटी तो वही दे रहा है.