मुखिया की मुहर या इसके इतर

फीरोजाबाद सीट पर डिंपल यादव की उम्मीदवारी के साथ अब सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के कुनबे का पांचवां सदस्य संसद जाने की तैयारी में है. मुलायम की बहू होने के अलावा क्या है डिंपल की पहचान, बता रही हैं नेहा दीक्षित 

इसी साल नौ जून को महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करते हुए समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव यहां तक कह गए कि ये लोकसभा को नेतृत्वविहीन करने की साजिश है और जो लोग आज इसके समर्थन में मेजें थपथपा रहे हैं वे जल्द ही घर पर बैठकर चारपाई थपथपाते नजर आएंगे. तब अगर मुलायम को पता होता कि तीन महीने बाद ही वे अपनी ही बहू डिंपल यादव की लोकसभा उम्मीदवारी का ऐलान कर रहे होंगे तो शायद उन्होंने ये बात दिल में ही रख ली होती. 32 साल की डिंपल मुलायम के बेटे और सपा की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी हैं. इस साल आम चुनाव में अखिलेश ने कन्नौज और फीरोजाबाद से चुनाव लड़ा था और दोनों सीटों पर जीत गए थे. बाद में उन्होंने फीरोजाबाद सीट छोड़ दी जिस पर अब उनकी पत्नी अपनी किस्मत आजमा रही हैं.

राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि ये फैसला एक चतुर रणनीति का हिस्सा है. डिंपल जन्म से ठाकुर हैं और उनकी उम्मीदवारी से सपा को यादवों के साथ ठाकुर वोटों का भी एक हिस्सा मिल जाएगा जिससे उसकी स्थिति मजबूत ही होगी

डिंपल की उम्मीदवारी के हालिया ऐलान से एक बार फिर उन बने-बनाए खांचों की तरफ ध्यान जाता है जिनमें भारत की महिला राजनीतिज्ञों को अक्सर रखकर देखा जाता रहा है. इनमें एक तरफ इंदिरा गांधी और मायावती जैसी बेटियां हैं जिन्होंने महिलाओं के प्रति समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों से बाहर निकलते हुए अपनी अलग पहचान बनाई. दूसरी तरफ सोनिया गांधी और राबड़ी देवी जैसी बहुएं हैं जो पार्टी और जनमानस पर अपनी पकड़ को लगातार मजबूत करने की कोशिश कर रही हैं.

जब हम पूछते हैं कि उत्तर प्रदेश की टेढ़ी राजनीति में क्या डिंपल राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विरासत के मानदंडों को पूरा कर सकेंगी तो चट से समाजवादी पार्टी के एक कार्यकर्ता का जवाब आता है, ‘वे भारत के प्रथम समाजवादी परिवार की बहू हैं और उन्होंने खुद को इस परिवार के मूल्यों और इसकी संस्कृति के अनुरूप ढाल लिया है.’

हालांकि जहां तक अपनी अलग पहचान का सवाल है तो इस बारे में अभी यही कहा जा सकता है कि सार्वजनिक तौर पर मुलायम की बहू के इतर फिलहाल डिंपल की कोई पहचान नहीं है. सेना के पूर्व कर्नल एससी रावत की तीन बेटियों में से वे मंझली हैं और उनके परिवार के ज्यादातर लोग सेना में हैं. यादव परिवार की बहू बनने से पहले राजनीति में हाथ आजमाने की बात तो दूर वे किसी राजनीतिक रैली में तक नहीं गई थीं. पिता चूंकि सेना में थे तो उनकी उम्र का एक बड़ा हिस्सा एक से दूसरे कैंटोनमेंट में घर बदलते हुए गुजरा है और इसलिए खुद को जल्दी से नई जगहों और परिस्थितियों के हिसाब से ढालने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती. लखनऊ यूनिवर्सिटी से ह्यूमैनिटीज में ग्रेजुएशन करने के बाद उनकी मित्रता अखिलेश से हुई जो मैरीन इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हीं दिनों ऑस्ट्रेलिया से लौटे थे. तब वे 21 साल की थीं और अखिलेश 25 के. मित्रता प्रेम संबंध में बदली और दोनों ने शादी करने का फैसला किया. मुलायम पहले इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थे और उन्होंने इसका काफी विरोध किया भी. मगर आखिरकार उन्हें झुकना पड़ा और नवंबर 1999 में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन जैसी शख्सियतों की मौजूदगी वाले एक भव्य समारोह में डिंपल और अखिलेश परिणयसूत्र में बंध गए. तब से डिंपल चुपचाप एक ऐसे परिवार की गृहणी का किरदार निभा रही हैं जहां समाजवादी आंदोलन के दिग्गज उठते-बैठते रहते हैं.

हालांकि कहा जा रहा है कि पार्टी के कुछ जूनियर नेता डिंपल की उम्मीदवारी से खुश नहीं हैं और उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह हो गई है. वे राजनीति में डिंपल के सिफर तजुर्बे का मजाक भी उड़ा रहे हैं

आज बहू और पत्नी के साथ-साथ डिंपल एक आठ साल की बेटी और चार साल के जुड़वां बच्चों की मां भी हैं. उनके पति अखिलेश यादव कहते हैं, ‘मातृत्व और राजनीति, दोनों के लिए बलिदान की जरूरत होती है. मुझे भरोसा है कि राजनीति में अपना रास्ता तलाशने में मातृत्व उनकी मदद करेगा.’ बलिदान शब्द का प्रयोग अखिलेश ने शायद ठीक ही किया है क्योंकि पहला बलिदान यही है वे खुद मीडिया से कोई बात नहीं करेंगी. डिंपल की बजाय उनकी तरफ से अखिलेश बात करते हैं. जब हमने उनसे पूछा कि डिंपल मीडिया से कब मुखातिब होंगी तो सपाट लहजे में उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी बेवजह मीडिया का ध्यान खींचने में यकीन नहीं रखती और इसलिए उनकी पत्नी तभी बोलेंगी जब उपचुनाव की तारीखों का ऐलान हो जाएगा.

डिंपल के मातृत्व को समाजवादी पार्टी अपनी निकटतम प्रतिद्वंदी और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ एक दांव की तरह इस्तेमाल कर रही है. जैसा कि अखिलेश कहते हैं, ‘अपनी मूर्तियां लगवाने को लेकर मायावती की सनक बताती है कि उनका दिल, उनके आंख-कान और उनकी सोच भी पत्थर से बनी है. उनके मन में दलितों के लिए भी कोई संवेदना नहीं है जिनका वे प्रतिनिधित्व करती हैं. डिंपल का मातृत्व उन्हें जनता से सीधे जुड़ने की क्षमता प्रदान करता है.’ तो इस तरह से देखा जाए तो घर के इन मुखियाओं के लिए डिंपल एक आदर्श भारतीय बहू की तीनों बुनियादी शर्तें पूरी करती हैं- एक आदर्श पत्नी, बलिदान की प्रतिमूर्ति और सबसे अहम आज्ञा मानने को तत्पर. 

कहा जा रहा है कि जब अखिलेश ने कन्नौज को तरजीह देकर फीरोजाबाद सीट छोड़ने का फैसला किया तो उनके वोटर निराश हो गए थे. इसलिए पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने संयुक्त रूप से फैसला किया कि उपचुनाव में डिंपल को उतारा जाए. अखिलेश कहते हैं, ‘उपचुनाव सबसे मुश्किल होते हैं. इसके अलावा हमारी पार्टी से बगावत करके निकले लोग भी हमारे खिलाफ मैदान में हैं.’ उनका इशारा शायद राजबब्बर की तरफ है जो कभी समाजवादी पार्टी के सांसद थे मगर अब कांग्रेस के टिकट पर फीरोजाबाद से चुनाव लड़ रहे हैं. पार्टी को डर था कि बागी उम्मीदवार और विरोधी पार्टियां उसके वोटों में सेंध लगा सकती है इसलिए उसके नेतृत्व को लगा कि ऐसे में सपा के मुखिया की बहू और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष की पत्नी डिंपल एक मजबूत उम्मीदवार होंगी. खबर ये भी उड़ रही है कि मुलायम पहले इसके लिए राजी नहीं थे मगर बाद में मान गए.

हालांकि कहा जा रहा है कि पार्टी के कुछ जूनियर नेता डिंपल की उम्मीदवारी से खुश नहीं हैं और उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह हो गई है. वे राजनीति में डिंपल के सिफर तजुर्बे का मजाक भी उड़ा रहे हैं. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि ये फैसला एक चतुर रणनीति का हिस्सा है. डिंपल जन्म से ठाकुर हैं और उनकी उम्मीदवारी से सपा को यादवों के साथ ठाकुर वोटों का भी एक हिस्सा मिल जाएगा जिससे उसकी स्थिति मजबूत ही होगी.

कहा जाता है कि जब डिंपल को ये फैसला सुनाया गया तो पहले-पहल वे घबरा गईं और उन्होंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया. मगर जब उनसे कहा गया कि वे अखिलेश की अर्धागिनी हैं तो वे मान गईं. अखिलेश बताते हैं, ‘जब मैं फीरोजाबाद में नहीं रहूंगा तो वे मेरी प्रतिनिधि के तौर पर काम कर सकती हैं. इससे जनता को यही लगेगा कि मैं उनके बीच ही हूं.’

यानी संकेत ये है कि 1997 में जेल जाते वक्त राबड़ी को कुर्सी पर बैठाकर जैसे लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता चलाई थी अखिलेश भी वही काम छोटे स्तर पर दोहराने की तैयारी में हैं. जब हम पूछते हैं कि डिंपल किन मुद्दों पर चुनाव लड़ेंगी तो अखिलेश जवाब देते हैं, ‘मैं उनकी तरफ से जवाब कैसे दे सकता हूं? मैं बस यही कह सकता हूं कि वे उसी समाजवाद का पालन करेंगी जिस पर पार्टी टिकी हुई है.’

डिंपल का असली व्यक्तित्व दक्ष गृहणी, समर्पित मां और उत्साही सामाजिक कार्यकर्ता की उस सार्वजनिक छवि से काफी जुदा भी है जो उनकी बनाई जा रही है. वे एक प्रतिभावन चित्रकार हैं और पढ़ने में उनकी काफी दिलचस्पी है. पार्टी के कई लोग मानते हैं कि उनके जैसी युवा नेता की मौजूदगी सपा में एक ऊर्जा का संचार करेगी और उनकी उम्मीदवारी से पार्टी को अपनी महिला विरोधी छवि तोड़ने में भी मदद मिलेगी.

पार्टी के अंदरूनी लोग बताते हैं कि डिंपल नम्र और गंभीर हैं और भले ही पार्टी के मंच पर उन्होंने कभी अपने विचार जाहिर नहीं किए हों मगर महिला सशक्तिकरण और शिक्षा जैसे मुद्दों पर वे काफी गहराई से सोचती हैं. लोकसभा चुनावों के दौरान मुलायम के चुनाव क्षेत्र सैफई में हर घर का दौर किया और हर उम्र की महिलाओं से सपा को वोट देने की अपील की. दमकते हुए अखिलेश बताते हैं, ‘उनके लिए हर कोई काका-काकी था. वे उनमें से हर एक का हाथ पकड़कर उसे पोलिंग बूथ तक ले गईं.’

क्या डिंपल पार्टी लाइन पर चलने वाली एक आज्ञाकारी बहू बनकर रह जाएंगी? या वे उन चंद महिला नेताओं में से एक निकलेंगी जिन्हें शुरुआत में सभी ने कम करके आंका मगर जिन्होंने बाद में सारे सांचे बदल डाले? जवाब मिलने में वक्त लगेगा. अभी तो यही देखना दिलचस्प होगा. कि वे अपनी तरफ से खुद बोलना कब शुरू करती हैं?