‘क’ से कन्नी काटना क्यूं

क्या ये कहना कि नई दिल्ली और श्रीनगर में बैठी सरकारों ने कश्मीर के हालात खराब किए और आईएसआई ने इसका फायदा उठाया राष्ट्रविरोधी है?8 दिसंबर 2009 को कश्मीर में अलगाववादी विद्रोह के 20 साल पूरे हो जाएंगे.1989 में इसी दिन मुफ्ती मोहम्मद सईद की युवा बेटी को दिन दहाड़े एक बस से अगवा कर लिया गया था. मुफ्ती ने उन्हीं दिनों वीपी सिंह की सरकार में गृहमंत्रालय संभाला था. जल्द ही उन्होंने घुटने टेक दिए और आतंकियों की मांग पूरी कर दी गई. उस वक्त पहली बार श्रीनगर की सड़कों पर आजादीका नारा गूंजा था. पहली बार ऐसा हुआ था कि सड़कों पर इकट्ठा 60-70 हजार लोगों की भीड़ में मिले हुए आतंकवादी खुलेआम क्लाशनिकोव लहराते दिखे थे.

इन 20 वर्षों के दौरान कश्मीर का राजनीतिक और हिंसक ताना-बाना काफी बदल चुका है. हालात बद से बदतर हुए हैं. मुद्दा अब भी उतना अहम बना हुआ है जैसा पहले था. भारत-पाक जब आपस में बातचीत करते हैं और जब नहीं करते तब भी कश्मीर के मसले पर ध्यान सबसे ज्यादा रहता है. सार्क सम्मेलन में कश्मीर छाया रहता है, राजनयिकों को संयुक्त वक्तव्यों का मजमून बार-बार बदलना पड़ता है और दिल्ली में बैठे नीति निर्माताओं का पारा चढ़ाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा सिर्फ कश्मीर शब्द का जिक्र करना ही काफी होता है.

वाशिंगटन में कश्मीरी-अमेरिकन कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष डा गुलाम नबी फाई द्वारा आयोजित एक सेमिनार-जिसमें मैं भी आमंत्रित थी- पर भारतीय पक्ष की बेहद कड़ी प्रतिक्रियाएं सामने आई. कहा गया कि ये आईएसआई द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम था. क्या यही वजह रही कि अमेरिका में भारतीय राजदूत ने खुद को इस कार्यक्रम से दूर रखा? आखिर भारतीय अधिकारियों के दल से किसी ने भी जिम मोरान, डैन बर्टन और येट क्लार्क के साथ मंच साझा करने की उत्सुकता क्यों नहीं दिखाई? अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत मलीहा लोदी, पाकिस्तानी सीनेट के विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष

मुशाहिद हुसैन और पाक अधिकृत कश्मीर के राष्ट्रपति राजा जुल्कारनैन खान आदि के साथ मंच साझा करने कोई क्यों नहीं आयासवाल ये है कि भारत हमेशा कश्मीर शब्द से मुंह क्यों चुराता है? आखिर हम दुनिया की नजरों में आने या फिर छोटी सी भी आलोचना से इतना क्यों डरते हैं? हम शोपियां में जवान महिलाओं के बलात्कार और हत्या पर पर्दा डालने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? आखिर क्यों हम घूमफिरकर हमेशा उसी घिसी-पिटी लाइन पर चले आते हैं, ‘कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा हैया फिर कश्मीर द्विपक्षीय मसला है.’ 

दो दिवसीय सेमिनार के उद्घाटन भाषण में डा फाई ने जो बातें कही वो हर लिहाज से अहानिकर और सटीक थीं. उन्होंने कहा, इस बैठक का उद्देश्य कश्मीरियों के लक्ष्य को हासिल करना है, ‘टकराव से नहीं बल्कि मेल-मिलाप से, शोषण से नहीं बल्कि बराबरी से और निराशा से नहीं बल्कि आशा के साथ.क्या ये भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक भाषा हैक्या ये कहना कि नई दिल्ली और श्रीनगर में बैठी सरकारों ने कश्मीर के हालात खराब किए और आईएसआई ने इसका फायदा उठाया राष्ट्रविरोधी है? क्या ये बात कहना राष्ट्रद्रोह या सरकार के खिलाफ है कि पिछले दो दशकों से भारत ने अपनी पूरी ऊर्जा वहां कब्जा जमाने में झोंक दी? वो इसे मानवीय समस्या मानने या फिर कश्मीरियों को इसमें शामिल करने की बजाए इसे साधारण कानून व्यवस्था की समस्या या फिर संपत्ति के विवाद के रूप में देखता है. 

ये सवाल इस समय और भी महत्वपूर्ण हो गया है और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कि इस समस्या को दो दशक हो चुके हैं. राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला राज्य से सेना हटाने की बात कर रहे हैं. इसके पीछे की जमीनी सच्चाई के दो पहलू हैं जो बताते हैं कि 500 आतंकवादियों (ये आधिकारिक आंकड़ा है) को नियंत्रित करने के लिए लाखों सैनिकों की जरूरत नहीं है. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस साल शोपियां और पिछले साल अमरनाथ यात्रा को लेकर हुई उथल-पुथल जो बताती है कि कश्मीरियों ने एक नया हथियार विकसित कर लिया है- अहिंसक विरोध का हथियार.

आईएसआई को 26/11 जैसे हमलों के लिए जितना भी जिम्मेदार ठहरा लीजिए पर क्या कश्मीर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों को भी आईएसआई आयोजित करवा रही है? कैपिटल हिल की चर्चा का विषय यही था. उम्मीद है दिल्ली में बैठे नीति-नियंता इस पर ध्यान देंगे?