ज्यादातर मामलों में आम आदमी की जेब के दायरे से बाहर ये आयकर कानून, दिमाग के दायरे से भी बाहर चले जाते हैं
हाल ही में आयकर रिटर्न फाइल करने की आखिरी तिथि आकर गई है. प्रक्रियाओं की जटिलताओं में उलझे कामकाजी लोग परेशान इधर-उधर दौड़ते नजर आ रहे थे. मगर ये अकेला मौका नहीं होता, एक कामकाजी आयकरदाता को साल में कम से कम तीन बार ऐसी जटिलताओं से दो-चार होना पडता है. अब ये उसके ऊपर है कि वो आयकर के गूढ़ रहस्यों से पार पाने के लिए जरूरी माथापच्ची खुद करे या फिर अपनी जेबें थोडी और ढीली करके विशेषज्ञों का सहारा ले. तमाम दूसरे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष करदाताओं की भी परेशानियां कमोबेश कामकाजियों सरीखी ही है.
दरअसल प्रत्यक्ष करदाताओं की ज्यादातर हैरानियों-परेशानियों के मूल में हमारे पुरातात्विक महत्त्व के दो कानून हैं – आयकर कानून 1962 और समृद्धि कर कानून 1957, जो उदारीकरण के दौर में कहीं लंगडाते और कहीं सरपट भागते देश की जरूरतों से कतई मेल नहीं खाते. ऊपर से इन कानूनों की लगातार झीनी होती चादरों में लगातार ही लगाए जाते संशोधनों और सुधारों के पैबंदों ने इन्हें हद से ज्यादा पेंचदार बना दिया है. नतीजा ये कि ज्यादातर मामलों में आम आदमी की जेब के दायरे से बाहर ये कानून, दिमाग के दायरे से भी बाहर चले जाते हैं. ऐसी स्थितियों में एक आम करदाता को सामान्यत: दो-तीन तरह की मानसिक अवस्थाओं से गुजरना होता है – या तो वो एक अच्छे भारतीय के कर्तव्यों का पालन करे और सभी मुश्किलों से पार पाते हुए पूरा आयकर जमा कर खुद को अपनी ही सरकार से ठगा महसूस करे; या आयकर में कुछ रियायतें लेने के लिए, दुनिया भर की मशक्कत और बचत कर, वर्तमान की कीमत पर अपना भविष्य बनाए; या ईमानदारी के बजाय तथाकथित व्यावहारिकता दिखाते हुए अपना टैक्स और वर्तमान दोनों तो बचा ले किंतु एक अपराधी बनकर रह जाए.
वित्त मंत्री ने हाल ही में प्रत्यक्ष कर संहिता जनता और जानकारों के सुझावों के लिए जारी की है. इसे संसद के आगामी शीत-सत्र में पेश करने के बाद 2011 से लागू किये जाने की योजना है. ये नया कानून प्रत्यक्ष करों के तमाम बिखरे पड़े प्रावधानों को समेटने का प्रयास तो है ही, इसमें रियायतों आदि के प्रावधानों को कम करके इसकी पेचीदगियों तथा भाषाई जटिलताओं को मिटाने की कोशिश भी की गयी है. इसके अलावा कर ढांचे को आज की परिस्थितियों के अनुरूप बनाना भी इस कानून में शामिल है. इसका कुल प्रभाव ये होगा कि आम करदाताओं पर करों और इन्हें सरकार को देने में पेश आने वालीं मुश्किलों का बोझ कुछ कम होगा जिससे आशा है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग करों को देने के लिए आगे आयेंगे.
मगर संहिता में भविष्य निधि पर कर लगाने और न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) देने वालीं कंपनियों के लाभ की बजाय कुल संपत्ति पर 2 फीसदी कर जैसे कई सुझाव हैं जिन पर पुनर्विचार की जरूरत है. चूंकि भविष्य निधि बचत और सामाजिक सुरक्षा का एक अनिवार्य उपकरण है इसलिए उस पर कर लगाना जबर्दस्ती बचत कराके कर वसूलने जैसा होगा और कंपनियों के लाभ की बजाय उनकी संपत्ति पर कर लगाना घाटे में चल रहीं और निवेश की अधिकता की जरूरत वाली कंपनियों के लिए अभिशाप साबित हो सकता है.
संजय दुबे