(1) 27 वर्षीय चोंग्खम पीसीओ में है जहां एमपीसी के जवान उसे घेरे हुए हैं. कुछ जवान फॉर्मेसी के पास खड़े हैं
(2) जवानों से घिरे होने के बाद भी संजीत किसी तरह का प्रतिरोध या भागने की कोशिश करता हुआ नही दिख रहा है
(3) एमपीसी जवानों के साथ जाता हुआ संजीत
(4) एमपीसी का एक जवान अपनी रिवॉल्वर निकाल रहा है जबकि संजीत चुपचाप खड़ा है
(5) संजीत पहले विद्रोही संगठन पीएलए का सदस्य था लेकिन बाद में वो उससे अलग हो गया
(6) एमपीसी जवानों ने अचानक संजीत को एक तरफ धकेलना शुरू कर दिया
(7) संजीत को फॉर्मेसी के भीतर खींच कर ले जाते एमपीसी के जवान
(8) कुछ देर के बाद संजीत के शव को फॉर्मेसी से बाहर लाया गया
(9) शव को बाहर खड़े ट्रक में डाल दिया गया, इस समय भी कैमरे से फोटो ली जा रही थीं लेकिन एमपीसी जवानों ने फोटो खींचने का कोई प्रतिरोध नहीं किया
(10, 11) ट्रक में संजीत के साथ रबीना देवी का भी शव पड़ा है जिसके बारे में पुलिस का बयान है कि यह महिला आतंकवादी का पीछा करते समय पुलिस फायरिंग में मारी गई, रबीना उस समय गर्भवती थी.
कहते हैं कि एक तस्वीर हजार शब्दों को बयां करने की ताकत रखती है. इस लिहाज से देखा जाए तो तहलका में छपीं ये तस्वीरें हजार सच्चाइयां उजागर कर रही हैं. ये तस्वीरें हैं भारत के सुदूर उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर की जहां पिछली 23 जुलाई को पुलिस ने एक ‘मुठभेड़’ को अंजाम दिया. ‘मुठभेड़’ मणिपुर विधानसभा से बमुश्किल 500 मीटर दूर हुई. तस्वीरों में मणिपुर रैपिड एक्शन फोर्स जिसे राज्य में मणिपुर पुलिस कमांडोज (एमपीसी) कहा जाता है, के जवान और उनसे घिरा हुआ एक 27 वर्षीय भारतीय नागरिक चोंग्खम संजीत है. ये तस्वीरें नागरिकों पर गोली के बर्बर कानून की एक मिसाल भर हैं, वे नागरिक जो नहीं जानते कि वे कब इस कानून के शिकार बन जाएंगे.
सबूतों के अभाव में पुलिस बयानों को गलत ठहराना मुश्किल होता है. लेकिन इस मामले में संयोग से घटना के समय एक स्थानीय फोटोग्राफर वहां पहुंच गया था. उसने इस ‘मुठभेड़’ की हर सच्चाई अपने कैमरे में कैद कर ली
पिछले कई साल से मणिपुर में सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार उल्लंघन और सैन्य बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) की आड़ में की गईं हत्याओं के आरोप लगते रहे हैं. इसी दौरान राज्य में इस कानून का विरोध भी बढ़ता जा रहा है. साल 2000 में दस नागरिकों जिनमें 1988 में राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार पाने वाला एक 18 साल लड़का भी शामिल था, को असम राइफल के जवानों ने मार गिराया. इस हत्याकांड के विरोध में राज्य की एक 28 वर्षीय महिला इरोम शर्मिला ने भूख हड़ताल शुरू की जो आज भी जारी है.
2004 में असम राइफल्स के जवानों ने थांग्जम मनोरमा नाम की एक 32 वर्षीय मणिपुरी महिला की कथित रूप से बलात्कार कर हत्या कर दी गई थी. घटना वाले दिन से ही मणिपुर में भारी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे. घटना के विरोध में राजधानी इंफाल में मणिपुरी महिलाओं के निर्वस्त्र विरोध प्रदर्शन से एक पल के लिए तो सारा देश ही भौचक्का रह गया था. ये महिलाएं बैनर उठाए हुए थीं जिन पर लिखा था ‘इंडियन आर्मी रेप अस.’ भारी विरोधप्रदर्शन के चलते अगस्त 2004 में केंद्र सरकार को इंफाल नगर पालिका क्षेत्र से एएफएसपीए कानून हटाना पड़ा. मनोरमा मामले के बाद मणिपुर में सेना का प्रभाव तो कुछ हद तक कम हो गया लेकिन सेना की उपस्थिति वाला आतंक कायम रहा. मणिपुर में सेना की जगह अब एमपीसी ने ले ली है. मणिपुर पुलिस कमांडोज (एमपीसी) का गठन त्वरित कार्यवाही बल के रूप 1979 में किया गया था. राज्य के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक थांग्जम करुणमाया सिंह कहते हैं, ‘एमपीसी के जवानों को खास ऑपरेशंस के लिए प्रशिक्षित किया गया है. उन्हें तभी गोली चलाने के निर्देश हैं जब उन पर गोलीबारी हो रही हो. उन्हें बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं का ध्यान रखने के लिए कहा जाता है.’
जहां तक एएफएसपीए कानून की बात है तो एमपीसी इसके दायरे में नहीं आती. फिर भी यह बल राज्य भर में काफी बदनाम हो चुका है. एमपीसी राज्य के सिर्फ चार जिलों में तैनात है- इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, थाउबल और बिष्णुपर. एमपीसी के जवान आबादी से अलग कमांडों बैरकों में रहते हैं और आम नागरिकों से इनका संपर्क कम ही रहता है. हालांकि इस सैन्य बल के जवान यहां के स्थानीय नागरिक ही हैं.
पुलिस का दावा है कि संजीत पीएलए का सदस्य था. उल्लेखनीय है कि उसी दिन राज्य के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने विधानसभा में यह विवादास्पद बयान दिया कि विद्रोहियों को मारने के अलावा कोई चारा नहीं है
फर्जी मुठभेड़ों और हत्याओं के मामले में एमपीसी पर आरोप लगना मणिपुर में अब आम बात हो चुकी है. 2008 में उत्पीड़न और हत्या के 27 मामलों में एमपीसी का नाम आया था. पहले जहां यह बल सुनसान जगहों पर मुठभेड़ करता था अब वो भीड़भाड़ भरे शहरी इलाकों में भी मुठभेड़ क रने से नहीं हिचकता. कई मामलों में तो ऐसा हुआ है एमसीपी के जवानों ने निर्दोष नागरिकों, जो कीमती सामान या रुपया पैसा लेकर जा रहे थे, के साथ लूटमार की और उनकी हत्या कर दी. हालांकि इस तरह के इक्का-दुक्का मामलों में जवानों पर कार्रवाई भी गई है. मसलन इसी जुलाई में पांच पुलिस कमांडो को लूटपाट के आरोप में निलंबित किया गया है. लेकिन अधिकांश मामलों में इस तरह की न्यायिक कार्रवाई नहीं हो पाती.
पिछले 23 जुलाई की सुबह 10: 30 पर कथित मुठभेड़ में संजीत के मारे जाने पर एमपीसी का आधिकारिक बयान कहता है कि एमपीसी जवान 23 जुलाई को इंफाल के ख्वरम्बंड बाजार में तलाशी अभियान चला रहे थे. तभी उन्होंने एक संदिग्ध आदमी दिखा. जब उसे रुक ने का इशारा किया गया तो उसने बंदूक निकाल ली और वहां से भागने लगा. पुलिस से बचने की कोशिश में उसने भीड़ पर गोलियां चलाना शुरू कर दीं.
पुलिस का बयान आगे बताता है कि इस व्यक्ति को गंभीर शापिंग ऑरकेड के पास मैमू फार्मेसी में घेर लिया गया. उसे आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया. लेकिन उसने पलटकर पुलिस पर फायर किए. पुलिस की जवाबी फायरिंग में यह व्यक्ति मारा गया. इस आधिकारिक बयान में यह भी कहा गया है कि इस युवक के पास से 9 एमएम माउजर पिस्टल भी बरामद की गई. चोंग्खम संजीत नाम के इस युवक की पहचान उसके ड्राईविंग लायसेंस से हुई.
यह जानते हुए भी कि इस तरह की मुठभेड़ अक्सर फर्जी होती हैं, सबूतों के अभाव में पुलिस बयानों को गलत ठहराना मुश्किल होता है. लेकिन इस मामले में संयोग से घटना के समय एक स्थानीय फोटोग्राफर वहां पहुंच गया था. उसने इस ‘मुठभेड़’ की हर सच्चाई अपने कैमरे में कैद कर ली. इन तस्वीरों से साफ जाहिर होता है कि पुलिस का बयान किस हद तक झूठा है. तस्वीरों में साफ दिख रहा है कि संजीत एक तरफ खड़ा था, तब पुलिस वालों ने उससे बात की और तलाशी ली. इसके बाद उसे फार्मेसी के स्टोर रूम में ले जाकर नजदीक से गोली मार दी गई और बाद में शव बाहर लाया गया. घटना से फोटोग्राफर इस कदर डर गया था कि उसने मणिपुर के स्थानीय मीडिया में इन तस्वीरों को प्रकाशित नहीं किया.
घटना के दूसरे चश्मदीदों के बयान भी कुछ हद तक पुलिस के बयान से मेल खाते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि चश्मदीदों ने अपने बयानों में संजीत का नाम नहीं लिया. उनके लिए वो कोई युवक था जो पुलिस की तलाशी टीम देखकर भाग रहा था. और जहां संजीत मारा गया गया वो जगह पुलिस टीम से तकरीबन सौ मीटर दूर है. उसके बाद पुलिस ने युवक का पीछा किया और युवक पर गोली चलाईं, जिसमें रबीना देवी नाम की एक गर्भवती महिला मारी गई और पांच अन्य लोग घायल हो गए. तथाकथित मुठभेड़ के बाद एमपीसी जवानों ने मीडिया के सामने 9 एमएम माउजर पिस्टल भी दिखाई. आधिकारिक बयान के मुताबिक यह पिस्टल ‘आतंकवादी’ ने भागने से पहले फेंकी थी. पुलिस का दावा है कि संजीत प्रतिबंधित विद्रोही संगठन पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) का सदस्य था. उल्लेखनीय है कि उसी दिन राज्य के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने विधानसभा में यह विवादास्पद बयान दिया कि विद्रोहियों को मारने के अलावा कोई चारा नहीं है.
संजीत के बारे में ये दावा सही है कि वो पीएलए को सदस्य था. इस आरोप में उसे साल 2000 में हिरासत में लिया गया था, बाद में रिहा भी कर दिया गया. साल 2006 में स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के चलते संजीत संगठन से अलग हो गया था. 2007 में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उसे फिर से हिरासत में लिया गया और एक साल बाद छोड़ा गया. इसके बाद से वह अपने परिवार के साथ खरई कोंग्पाल सजोर लीकेई में रह रहा था. संजीत यहां के एक प्राइवेट अस्पताल में अटेंडेंट का काम करता था.
इस मुठभेड़ से सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि संजीत कभी किसी आतंकवादी संगठन का सदस्य रहा भी था तो क्या इससे सरकार द्वारा गठित किसी विशेष पुलिस संगठन को ये अधिकार मिल जाता है कि वो उसे फर्जी मुठभेड़ में मार गिराए? तस्वीरों से साफ जाहिर होता है कि संजीत बिना किसी प्रतिरोध के पुलिस के जवानों से बातचीत कर रहा था.
पीएलए से पूर्व में संबंध होने के कारण संजीत को अदालत में समय-समय पर उपस्थित होना पड़ता था. लेकिन बाद में अदालत ने संजीत को इस प्रक्रिया से मुक्त कर दिया था. गुवाहाटी उच्च न्यायालय की इंफाल खंडपीठ के वकील एम राकेश का कहना है, ‘कानूनी तौर पर कहा जाए तो संजीत पर कोई प्रतिबंध नहीं था.’
इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि पुलिस ने हथियार बरामदगी को लेकर अपने बयान लगातार बदले. पहले उन्होंने दावा किया कि आतंकवादी ने भागते समय पिस्टल फेंक दी थी. इसके बाद का आधिकारिक बयान कहता है कि पिस्टल मुठभेड़ के बाद संजीत से बरामद की गई. पुलिस के पहले दावे की पोल भी तस्वीरों में खुल जाती है जिनके मुताबिक संजीत भागते हुए फार्मेसी के स्टोर रूम में नहीं पहुंचा था बल्कि उसे वहां ले जाया गया था. इसके अलावा जहां तक उसके पास पिस्टल होने की बात है तो ये तलाशी के दौरान ही मिल जानी चाहिए थी.
कानून कहता है कि किसी सरकारी बल द्वारा मुठभेड़ में किसी की हत्या को आपराधिक दण्ड संहिता (सीपीसी) की धारा 46 के अंतर्गत यदि तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सके तो संबंधित अंधिकारी को मानव हत्या का दोषी माना जाएगा. इस मामले में विस्तृत और सधी हुई जांच से ही असलियत लोगों के सामने लाई जा सकती है. मगर राज्य सरकार इस मामले में न्यायायिक जांच की बजाय विभागीय जांच कराने की बात कह रही है, जिससे मामले की सच्चाई का सामने आना अभी से संदिग्ध लग रहा है. संजीत के परिवारवालों का कहना है कि उसने आतंकवादियों से अपने रिश्ते पहले ही खत्म कर लिए थे और वो एक सामान्य जिंदगी जी रहा था. संजीत के परिवार के मुताबिक जिस दिन ये घटना हुई उस दिन वो अपने एक रिश्तेदार जिनका इलाज इंफाल के जेएन अस्पताल में चल रहा है, के लिए दवा लेने बाहर गया था. संजीत की मौत से बुरी तरह टूट चुकीं उसकी मां कहती हैं, ‘मणिपुर में आपकी जिंदगी की कोई कीमत नहीं है.’ असल में राज्य में इस तरह की घटनाएं अब आम बात हो चुकी हैं. राज्य के एक पूर्व विधायक 78 वर्षीय सरत सिंह का बेटा सतीश सिंह भी इसी तरह से सेना के हाथों मारा जा चुका है. अपने बेटे की मौत के बाद सरत सिंह ने सतीश का नाम अपराधियों की सूची से हटाए जाने की मांग करते हुए उसका अंतिम संस्कार करने से इंकार कर दिया था. मामले और भी हैं. गुवाहाटी उच्च न्यायालय की इंफाल बेंच के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी 39 वर्षीय निंगोम्बम गोपाल सिंह को उस वक्त गोली मार दी गई जब वे एक होटल में चाय पी रहे थे. सादे कपड़ों में एक व्यक्ति ने गोपाल सिंह को होटल के बाहर खींचा और उन्हें गोली मारकर इसे मुठभेड़ बता दिया. इलंग्बम जॉन्सन सिंह नाम का एक 24 वर्षीय छात्र जो कि खाली समय में सेल्समैन का काम करता था, जब अपने दोस्त के साथ घूम रहा था तब एमपीसी के जवानों ने उसे गोली मार दी थी.
मुठभेड़ों की ऐसी कई कही-अनकही कहानियां हैं जिनका अंत मणिपुर में लोगों के लिए इस छिपे संदेश के साथ होता है कि यदि आप जिंदा बचे हुए हैं तो यह कुछ और नहीं महज आपकी किस्मत है.