खलनायक, कामकाजी

हर समय ने अपने खलनायक खुद चुने. पचास और साठ के दशक के तीन मुख्य खलनायक थे- साहूकार, डाकू और जमींदार. नाक पर चश्मा चढ़ाए हुए खूसट साहूकार मुट्ठी भर चावल के दानों के लिए ‘दो बीघा जमीन’ के कागजों पर अनपढ़ गरीब किसानों का अंगूठा लगवा लेते थे और फिर किसान की पीढ़ियां उस कर्ज का ब्याज चुकाते चुकाते जीती-मरती रहती थी. इसी तरह किसान जमींदारों के खेतों में बेगार करते-करते आहें भरते रहे और अय्याश जमींदार गांव की बहू बेटियों पर अपनी वहशी नजरें जमाए रहे. डाकुओं की फिल्में उस समय के मध्य भारत में उनके आतंक का प्रतिबिम्ब थीं. तब की हिंसा प्रत्यक्ष हिंसा नहीं थी और न ही वह संघर्ष राम-रावण के पारम्परिक संघर्ष जैसा था. वह कुचलने वाले और कुचले गए के बीच की लड़ाई थी, जिसमें नायक अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए लड़ता था. सत्तर और अस्सी के दशक में तस्कर और व्यापारी विलेन बन गए और अब वे अधिक सुविधा-सम्पन्न और खतरनाक भी हो गए थे. पहलवानों-लठैतों का स्थान हट्टे कट्टे शहरी गुंडों ने ले लिया, जो अक्सर धारीदार टी शर्ट पहने और गंजे होते थे. चूंकि स्मगलिंग विदेशों में होती थी, इसलिए खलनायक के साथ एक अंग्रेज सा दिखने वाला किरदार भी परिदृश्य में आने लगा, जो अपने दर्शर्कों की सहूलियत के लिए हिन्दी बोलता था. वह विदेशी कभी-कभी अरब का शेख भी होता था, जिसकी विचित्न वेशभूषा का फायदा हीरो ने अक्सर उसके वेश में तस्करी के अड्डों पर पहुंचकर उठाया. यही वह फिल्में थीं, जिन्हें देखकर इस गरीब देश का बच्चा-बच्चा सोने के बिस्कुटों के बारे में जानने लगा.

इसी बीच 1975 में एक ऐसा खलनायक आया जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी. वह बस बुरा था. वह गब्बर सिंह था, जिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे

अब यह युद्ध राम-रावण का हो गया था, जिसमें नायक समाज और देश के लिए लड़ता था और खलनायक एक ऐसी शक्ति थी, जो पूरे देश पर अपना अधिकार चाहती थी. इस दौर ने अजीबोगरीब दिखने वाले, बच्चों की कहानियों के राक्षसों सी हंसी हंसने वाले, सिंहासन पर बैठे, काल्पनिक दुनिया के से खलनायकों को जन्म दिया. ‘कर्मा’ का डॉक्टर डैंग और ‘मिस्टर इंडिया’ का मोगेंबो इन्हीं में से थे.

कभी कभी पुलिस वाला नायक खलनायक के माल से लदे हुए ट्रक को जब्त कर लेता था (माल कौनसा होता था, यह कभी नहीं बताया जाता था), जिसे छुड़ाने के लिए तीसरे खलनायक की आवश्यकता पड़ती थी, जो भ्रष्ट नेता था. कहीं-कहीं इस कड़ी में बेईमान पुलिस अफसर भी जुड़ गए और इस तरह बनी चांडाल चौकड़ी से एंथनी से लेकर मिस्टर इंडिया तक सबको जूझना पड़ा.

यही वह दौर था, जब खलनायक अपने खास स्टाइल में किसी ऐसे जुमले को बार बार दोहराने लगे, जो दशर्कों की जुबान पर चढ़ कर बोल सके. वह चाहे ‘बॉबी’ का प्रेम नाम है मेरा..प्रेम चोपड़ा हो या ‘राम-लखन’ के गुलशन ग्रोवर का बैड मैन. और मोगेंबो खुश हुआ को आखिर कौन भूल सकता है? उस दौर के खलनायक अपने आलीशान बंगले में बने स्विमिंग पूल में नहाया करते थे और बाहर उनके इंतजार में मोना या लिली तौलिया और व्हिस्की लिए खड़ी रहती थी.

गीत-संगीत से भरी हिन्दी फिल्मों की अजीब बात यह थी कि खलनायकों ने गाने देखे-सुने तो, लेकिन कभी गाए नहीं. उन्हें वास्तविक मनुष्य से इतना भिन्न दिखाया गया कि ऐसा लगता ही नहीं था कि वे किसी संवेदना को समझ सकते हैं या किसी से प्रेम कर सकते हैं. यही कारण था कि प्राण को जब ‘जंजीर’ में ‘यारी है ईमान मेरा’ गाना था तो वे बहुत मुश्किल से सहज हो पाए थे. यह वही प्राण थे, जिन्होंने अपने दुष्चरित्नों से इतनी नफरत पैदा की कि लोगों ने अपने बच्चों का नाम प्राण रखना ही छोड़ दिया.

इसी बीच 1975 में एक ऐसा खलनायक आया जिसके बुरा होने की कोई वजह नहीं थी. वह बस बुरा था. वह गब्बर सिंह था, जिसका नाम सुनकर पचास कोस दूर रोते बच्चे भी सो जाते थे. वह बाकी डकैतों की तरह परिस्थितिवश डाकू नहीं बना था. हिन्दी समझने वाला ऐसा भारतीय मुश्किल ही मिलेगा, जिसने ‘अब तेरा क्या होगा बे कालिया’ न सुना हो.

अमजद खान के बाद वैसा खौफ  सिर्फ  ‘दुश्मन’ और ‘संघर्ष’ के आशुतोष राणा ने ही पैदा किया. इन दोनों फिल्मों का सीरियल किलर नब्बे के दशक के उत्तरार्ध के उन खलनायकों का प्रतिनिधित्व करता है, जो मानसिक रूप से बीमार थे. ‘दीवानगी’ के अजय देवगन और ‘कौन’ की उर्मिला भी ऐसे ही खलनायक हैं.

मानसिक अपंगता के साथ शारीरिक अपंगता भी बॉलीवुड में खलनायकों के गुण की तरह इस्तेमाल की जाती रही है. अपनी क्षतिग्रस्त आंख के कारण ललिता पंवार सालों तक दुष्ट सास के रोल करती रहीं. डाकुओं को भी कई दफे एक आँख पर काली पट्टी लगाए हुए दिखाया गया. ‘डर’ के हकलाते शाहरुख और ‘ओमकारा’ का लंगड़ा त्यागी भी इसी कड़ी में हैं.

बुरी सासों के अलावा स्त्नियों के खलनायिका बनने के बस गिने चुने उदाहरण हैं. या तो ‘खलनायिका’ की अनु अग्रवाल हैं या ‘गुप्त’ की काजोल और ‘कलयुग’ की अमृता सिंह.

इसी बीच हीरो हीरोइन के घर से भागकर शादी करने वाली फिल्मों ने उनके माता-पिता को ही खलनायक बनाना शुरु कर दिया. इसके उलट ‘बागबान’ और ‘अवतार’ की संतानें अपने माता-पिता की खलनायक ही बन गईं. कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा तो ‘रोजा’ ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के रूप में बॉलीवुड को एक नया दुश्मन दिया. इन्ही दिनों बॉलीवुड के चरित्न वास्तविक जीवन के चरित्नों की तरह आधे भले-आधे बुरे होने लगे. ‘परिंदा’, ‘बाजीगर’, ‘डर’, ‘अंजाम’ और अग्निसाक्षी जैसी फिल्मों ने एक नई परिपाटी शुरु की, जिनके मुख्य चरित्न नकारात्मकता लिए हुए थे. नायक और खलनायक के बीच की रेखा कई बार इतनी धुंधली पड़ गई कि ‘पिंजर’ में मनोज और ‘1947:अर्थ’ में आमिर इस रेखा के कभी इस तो कभी उस पार आते-जाते रहे. अब्बास-मस्तान और रामगोपाल वर्मा की डार्क फिल्मों ने ऐसे धूसर चरित्नों को और बढ़ावा दिया. संजय दत्त ने डॉन के अनेक किरदार निभाए. इसी दौर में माफिया खलनायक बना.

कभी कभी इन सब रीतियों से हटकर खलनायक अमूर्त भी रहे. ‘जख्म’ में धर्म मुख्य विलेन था और ‘साथिया’ में गलतफहमी. ‘अभिमान’ में अहं खलनायक था तो ‘दिल्ली 6’ में अदृश्य काला बन्दर. और अब यह तो आप ही तय करेंगे कि ‘ब्लू अम्ब्रेला’ की नीली निर्जीव छतरी और ‘तारे जमीन पर’ के नन्द किशोर अवस्थी भी नई तरह के खलनायक ही हैं या कुछ और?

कामकाजी

जब नायक गुंडों को पस्त कर चुका होता है, तब पुलिस देरी से पहुंचती है और लाउड स्पीकर पर ‘पुलिस ने तुम्हें चारों तरफ से घेर लिया है’ के फर्जी ऐलान के बाद स्क्रीन पर बड़ा-बड़ा ‘दी एंड’ लिखा आने से पहले ‘हैंड्स अप, हैंड्स अप’ करती हुई हथकड़ियां पहनाती है. इस ड्रामे से कुछ देर पहले तक वह अपनी लम्बी नाकामी को ‘कानून के हाथ बहुत लम्बे हैं’ की झूठी दिलासा के पीछे छिपाती रहती है.

हाल के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों से पहले इंजीनियर सदा ऊंची इमारत या पुल बनवाने वाले ही रहे हैं, जो सिर पर पीला टोप पहनते हैं. वे अपने नीचे काम करने वाले मजदूरों के चहेते रहे हैं

अदालतें प्राइमरी पाठशाला की तरह शोरगुल में डूबी रहती हैं, जिन्हें शांत करने के लिए जज साहब आते ही ‘ऑर्डर ऑर्डर’ का हथौड़ा पीटते हैं. वक़ील अक्सर ‘ऑब्जेक्शन यॉर ऑनर’ कहकर आपत्ति जताते हैं और जवाब में ‘ऑब्जेक्शन सस्टेंड’ या ऑब्जेक्शन ओवररूल्ड’ सुनते हैं, जिनका अर्थ वकीलों के उतरे या खुश चेहरे देखे बिना देसी दशर्क कभी नहीं समझ पाता. जरूरत पड़ने पर अचानक नायक या नायिका के पास वकालत की डिग्री होने का रहस्य कई बार खुलता रहा है और बिना प्रैक्टिस उन्होंने तीसियों साल के अनुभवी वकीलों को अनगिनत बार हराया है.

पुरानी फिल्मों के डॉक्टर एक जादुई काला सूटकेस साथ रखते हैं, जिसमें हर बीमारी की दवा होती है. वे शायद ऐसे मेडिकल कॉलेज से पढ़कर आए हैं, जहां घिसी-पिटी बातें दोहराने का भी कोर्स होता होगा. इसीलिए ‘इन्हें आराम की जरूरत है’, ‘इन्हें दवा की नहीं दुआ की जरूरत है’, कहने के साथ साथ कभी-कभी वे ‘इसकी क्या जरूरत है’ कहकर फीस लेने से भी इनकार करते रहे हैं. नए डॉक्टर घर नहीं आते, इसलिए अब अस्पतालों में जाना होता है. पर अब भी वे किसी की मौत पर ‘सॉरी’ और बचने पर ‘भगवान का लाख-लाख शुक्र है’ कहना नहीं भूलते.

गांव के स्कूलों में हमेशा एक ही मास्टरजी होते हैं, जो बूढ़े होते हैं, मोटे फ्रेम वाला चश्मा लगाते हैं, कुरता पाजामा पहनते हैं, झोला लटकाए रखते हैं और बेबस दिखते हैं. पीपल के पेड़ के तने पर ब्लैकबोर्ड टिकाकर वे या तो पहाड़े रटवाते हैं या फ़ुर्सत में नैतिक शिक्षा पढ़ाते हैं. कई बार उन्हें अपनी नैतिकता का नतीजा सरपंच या ठाकुर के हाथों अपनी जान गंवाकर भी भुगतना पड़ता है. उनके उलट शहरों के अध्यापक अंग्रेजी बोलते हैं और कमरे की दीवार पर टंगे ब्लैक या व्हाइट बोर्ड पर फिजिक्स या गणित पढ़ाते हैं. कभी-कभी कैमिस्ट्री भी. कॉलेज की कक्षाएं प्रेमपत्नों को बेंच के नीचे से मंजिल तक पहुंचाने के लिए होती हैं.

हाल के कुछ कम्प्यूटर इंजीनियरों से पहले इंजीनियर सदा ऊंची इमारत या पुल बनवाने वाले ही रहे हैं, जो सिर पर पीला टोप पहनते हैं. वे अपने नीचे काम करने वाले मजदूरों के चहेते रहे हैं. सत्तर के दशक में पढ़े लिखे बेरोजगारों को दिखाने के लिए भी उनका ही इस्तेमाल किया गया है. जेंटलमेन बनने वाला राजू भी वैसा ही है.

मजदूरों का यूनियन लीडर ऊपर से चरित्नवान दिखता है, लेकिन अक्सर लालची होता है. वह हड़ताल इसीलिए करवाता है ताकि उसे खत्म करने के एवज में मिल मालिक से मोटी रकम ऐंठ सके. मजदूर और ठेलेवाले अब भोजपुरी लहजे में हिंदी बोलने वाले ही होते हैं. कुली का रोल यदि दस सेकंड से लम्बा खिंचे तो वह निश्चित रूप से फिल्म का नायक है.

नौकर कन्धे पर अंगोछा रखते हैं और रसोइये मोटे होते हैं. टैक्सी और ऑटो ड्राइवर ज्यादा बोलते हैं और ईमानदार होते हैं. हालांकि बहुत सी परम्पराओं के साथ ‘देव डी’ इसे भी तोड़ देती है. टाइपिस्ट और सेक्रेटरी स्कर्ट पहनने वाली एंग्लो इंडियन लड़कियां रहीं हैं, जो नौकरी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती हैं. एयर होस्टेस सुन्दर होती हैं, जो अमीरजादों पर आसानी से फिदा हो जाती हैं और आप ‘गरम मसाला’ के अक्षय कुमार जितने प्रतिभावान हों तो अमीरी के बिना भी एक साथ तीन-तीन चक्कर चला सकते हैं.

परिवार, दृश्य

बॉलीवुड के दस सांचे