हालिया चुनावों में वाममोर्चे के दयनीय प्रदर्शन से पश्चिम बंगाल के बाहर ज्यादातर लोगों को हैरानी हुई है. काफी हद तक इतना ही बुरा प्रदर्शन सीपीआई (एम) और लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) का केरल में भी रहा पर इससे किसी को ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि यहां पर वामपंथी जब-तब सत्ता से बाहर होते रहे हैं. पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा किसी अभेद्य दुर्ग सरीखा था जो यहां के ग्रामीण गरीबों की न हिलने वाली मजबूत नींव पर टिका हुआ था. इनकी मूलभूत दशा बीते सालों के वामपंथी शासन के दौरान बदल चुकी थी और इसी के सहारे 32 सालों तक देश और दुनिया की राजनीति में आए तमाम झंझावातों के बावजूद वाममोर्चा पश्चिम बंगाल में टिका रहा. दुनिया के नक्शे से साम्यवाद का सफाया हो गया, केंद्र में कांग्रेस का प्रभुत्व बीते कल की बात हो गई, हिंदुत्व पर आधारित भाजपा की सरकार दिल्ली में आई और इतिहास बन गई, लेकिन कोलकाता की सत्ता में कोई कंपन तक नहीं हुआ.
क्या वे जरा से मुआवजे और ऐसी नौकरी के एवज में, जिससे उन्हें कभी भी लात मार कर निकाला जा सकता है, अपनी ज़मीन-जायदाद किसी को भी देने के लिए तैयार हो जाएंगे
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इस हार ने सभी को हिला दिया है- वामपंथियों के धुर समर्थकों से लेकर उन नए-नवेले प्रशंसकों को भी जो ये मान रहे थे कि बुद्धदेब भट्टाचार्य विकास और आधुनिकता के जिस सरपट राजमार्ग पर राज्य को ले जाना चाहते हैं वो राज्य में दूसरे पुनर्जागरण की शुरुआत करेगा. याद कीजिए नैनो को और उन ढेर सारे वादों को जो उन्होंने राज्य के भविष्य के लिए किए थे. और वो नया केमिकल हब जो राज्य के मेदिनीपुर में बनाया जाना था – एक ऐसे अनजाने से स्थान पर जिसका नाम नंदीग्राम था?
क्योंकि वामपंथियों की स्थिति पश्चिम बंगाल में इतनी मजबूत थी इसलिए आज अफरा-तफरी के आलम में बंगाल के वाम नेता जो सफाई दे रहे हैं वो बिल्कुल खोखली जान पड़ती हैं- उनके मुताबिक वो इसलिए हारे क्योंकि केंद्रीय नेताओं ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया और तीसरे मोर्चे की मरीचिका के पीछे भागते रहे. हालांकि मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात के नेतृत्व में खेला जाने वाला ये खेल ये दिखाता है कि वामदलों का केंद्रीय नेतृत्व किस तरह की हवाई दुनिया में रहता है. पर ये लचर तर्क कहीं से भी राज्य में वाममोर्चे की पराजय की वजहों को बयान नहीं करते. सच्चाई ये है कि राज्य नेतृत्व प्रशासन से जुड़ी अपनी खामियों को छिपाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व के ऊपर आरोप मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.
वाममोर्चे और विशेष रूप से सीपीएम के खिलाफ जनता की मौजूदा नाराजगी की जड़ में दो मुद्दे हैं. पहला बुद्धदेब भट्टाचार्य के औद्योगीकरण कार्यक्रम के लिए अधिग्रहीत की जाने वाली भूमि. सवाल ये नहीं है कि राज्य में औद्योगीकरण होना चाहिए या नहीं. सीधा सवाल ये है कि वो जमीन किसकी है और उसे इसके बदले में क्या मिलेगा? लोगों के जबर्दस्त प्रतिरोध को शांत करने के लिए राज्य का वाम-नेतृत्व बार-बार उन्हें इन आश्वासनों से बहलाने के प्रयास करता रहा कि उन्हें नाममात्र के एकमुश्त मुआवजे के साथ ही नौकरियां भी दी जाएंगी. अब यदि यही सवाल उन नेताओं और उनके मध्यवर्गीय समर्थकों से पूछा जाए कि क्या वे जरा से मुआवजे और ऐसी नौकरी के एवज में, जिससे उन्हें कभी भी लात मार कर निकाला जा सकता है, अपनी ज़मीन-जायदाद किसी को भी देने के लिए तैयार हो जाएंगे. अगर वो ऐसा नहीं कर सकते तो फिर किसान इसके लिए क्यों राजी हों? जवाब में कहा गया कि चूंकि औद्योगीकरण एक ‘ऐतिहासिक कदम’ है इसलिए उन्हें ऐसा करना ही चाहिए. किसानों को ये तर्क हजम नहीं हुआ और वो खुलेआम विद्रोह पर उतर आए.
जिस समय पुलिसिया हिंसा की नोक पर सिंगूर में जमीनों की बाड़बंदी की जा रही थी, उस वक्त तक ग्रामीण किसानों और कोलकाता में बैठे नेताओं के बीच का आपसी विश्वास तार-तार हो चुका था
पर क्या हम कभी एक किसान को भी एक उद्योगपति के रूप में नहीं सोच सकते हैं? या फिर क्या उसे उसकी जमीन पर प्रस्तावित उद्योग में कुछ हिस्सेदारी नहीं मिल सकती है? क्या मुनाफे में एक निश्चित हिस्सा उसे नहीं मिल सकता? क्या ऐसा सोचना और करना ‘ऐतिहासिक कदम’ की श्रेणी में नहीं आता?
बीच का कोई रास्ता निकालने की कोशिश में इस तरह के कई प्रस्ताव अर्थशास्त्रियों और बुद्धिजीवियों की तरफ से आए. सिंगूर के मसले पर एकाध बार बुद्धदेब भट्टाचार्य ने इस तरह के वैकल्पिक उपाय की घोषणा की भी. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. जिस समय पुलिसिया हिंसा की नोक पर सिंगूर में जमीनों की बाड़बंदी की जा रही थी, उस वक्त तक ग्रामीण किसानों और कोलकाता में बैठे नेताओं के बीच का आपसी विश्वास तार-तार हो चुका था. इसके बाद अलीमुद्दीन स्ट्रीट के बाबुओं पर उनका विश्वास कभी जम नहीं हो सका.
मुझे याद है एक टीवी पत्रकार ने मुझसे पूछा था कि यदि टाटा राज्य से अपना बोरिया बिस्तर समेट कर चले जाते हैं तो क्या इससे तृणमूल कांग्रेस को नुकसान नहीं पहुंचेगा? क्या उसकी औद्योगीकरण विरोधी छवि नहीं बन जाएगी? मुझे उनको ये बात समझाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी कि इससे तो विपक्ष और मजबूत ही होगा क्योंकि जिन लोगों को वो इस औद्योगीकरण के समर्थक और ‘बंगाल की आवाज’ के रूप में टीवी पर दिखा रहे हैं वो गिने चुने भूमंडलीकरण से प्रभावित मध्यवर्ग के लोग भर हैं. हालांकि राज्य में विकास और औद्योगीकरण इन दिनों सीपीएम की बातचीत का मुख्य मुद्दा बन चुका है जिसने सत्तारूढ़ दलों का एक नया सामाजिक आधार तैयार कर लिया है. लेकिन इस कोशिश में वे अपने पारंपरिक आधार से उखड़ रहे हैं.
ये तो कहानी का सिर्फ एक हिस्सा है. सिंगूर और नंदीग्राम में जो कुछ हुआ वो सिर्फ जमीन की लड़ाई नहीं थी. उन्होंने बंगाल के ग्रामीण इलाकों में हर दिन चोरी-छिपे चलने वाले वामपंथी आतंक के समूचे नेटवर्क को ही ध्वस्त कर दिया. पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे का किला एक अभेद्य चुनावी मशीनरी के आधार पर टिका हुआ था जिसकी पहुंच ग्रामीण समाज चप्पे-चप्पे तक थी. इतने सालों के दौरान ये चुनावी मशीनरी दुनिया का सबसे अनोखा और प्रभावी निगरानी तंत्र बन गया था. देश के किसी भी हिस्से में कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसा दावा नहीं कर सकती जैसा कि पश्चिम बंगाल में सीपीएम करती थी – इसके पास एक-एक ग्रामीण का लेखा-जोखा, उसका राजनीतिक झुकाव, उनके मतदान के रुझान जैसी बारीकियों तक का आंकड़ा मौजूद है.
इस सूचना को 80 के दशक में जब पंचायतों का पुनरोदय हुआ तो पार्टी की चुनावी मशीनरी को उपलब्ध कराया गया. पार्टी की चुनावी मशीनरी और पंचायतों – जिसमें पार्टी के ही कैडर भरे हुए थे- के संगम ने एक नए तंत्र का सृजन किया जिसमें हर कोई हर किसी के ऊपर नजर रखता था. ऐसे में पार्टी की जानकारी और सहमति के बिना कुछ भी कर सकना संभव नहीं था. यहां तक की पार्टी ग्रामीणों के छोटे-मोटे झगड़ों में पंच की भूमिका भी निभाने लगी. एक नए किस्म की सत्ता का उदय हो गया था. सिंगूर और नंदीग्राम ने इस पूरे जाल को ही ध्वस्त कर दिया. भय की दीवार ढह गई. विरोध की ज्वाला राशन की दुकानों से लेकर उत्तर बंगाल के चाय बगानों तक फैल गई. सालों से दबी रही कुंठा फूट पड़ी.
इन सबके बीच ही कहीं पर राज्य के मुसलमानों की कहानी भी है. नंदीग्राम में सताए गए ज्यादातर लोग मुसलमान और दलित थे. सार कमेटी की रिपोर्ट में पहले ही ये बात साफ हो चुकी थी कि धर्मनिरपेक्षता के थोथे भाषणों के बावजूद राज्य में मुसलमानों की दशा पूरे देश में सबसे खराब है. और भला ये बात कोई कैसे भूल सकता है कि एनडीए सरकार के कार्यकाल में बुद्धदेब भट्टाचार्य के मदरसों के खिलाफ चलाए गए अभियान ने भी उनके मन में गुस्सा पैदा किया था. एक गहरा क्षोभ पहले से ही लोगों के मन में घर कर चुका था. पुरी प्रक्रिया को कुछ घटनाओं ने तूल भर देने का काम किया जिसमें नंदीग्राम भी शामिल है. इन परिस्थितियों में राज्य के नेताओं के बयानों से बेइमानी की झलक मिलती है.
इस बीच कोलकाता से ताजा खबर ये मिली है कि राज्य के नेता जिला समितियों के बीच एक प्रश्नपत्र बंटवाने पर विचार कर रहे हैं जिन्हें कार्यकर्ताओं के साथ गहन विचार विमर्श के बाद ही भरा जाएगा. कदम तो स्वागतयोग्य है पर उसके लिए अब शायद काफी देर हो चुकी है ’