अमरोहा की खुशबू चांद तक

उत्तर प्रदेश का अमरोहा जिला दिल्ली से करीब 200 किमी की दूरी पर है. यहां का चौगोरी मौहल्ला एक आम-सी मुस्लिम आबादी है जिसमें शायद ही कुछ ऐसा हो जो आपका जरा भी ध्यान आकर्षित कर पाए. इस मौहल्ले में प्रवेश का एकमात्र रास्ता मात्र छह फुट चौड़ा और घुमावदार है जो अक्सर कीचड़ और गंदगी से भरा रहता है और इसी रास्ते से होकर ही मिर्जा परिवार तक पहुंचा जा सकता है. खुशबू इसी मिर्जा परिवार की तीन संतानों में से एक हैं जिनसे आज यहां हर कोई मिलना चाहता है. आने वालों का तांता लगा है और खुशबू और बेहद खुश लग रही उनकी मां फरहत घर के  दरवाजे पर ही लगातार आ रहे लोगों का बड़ी गर्मजोशी से स्वागत करती हैं.

अक्टूबर 2008 में भेजे गए चंद्र-अभियान के बाद से अब तक इतने लोग इस परिवार से मिलने और उसे बधाइयां देने आ चुके हैं जितनी पिछली दसियों ईदों पर आने वाले लोगों की कुल संख्या भी नहीं होगी

हमारी एक घंटे लंबी बातचीत के दौरान मां-बेटी की ये जोड़ी एक के बाद एक उन तमाम छवियों को तोड़ती हैं जिनसे हम मुस्लिम परिवार और मुस्लिम महिलाओं को शायद ही कभी अलग करके देखते हों. जब मैंने शुरुआत में ही खुशबू से पूछा, ‘हिंदी में या अंग्रेजी में’ तो आत्मविश्वास से लबरेज और दसवीं कक्षा तक हिन्दी माघ्यम से पढ़ी खुशबू का जवाब था, ‘अंग्रेजी में ठीक रहेगा.’ इस घर की छह कुर्सियों वाली खाने की मेज शुभकामना संदेशों और गुलदस्तों से भरी हैं, खुशबू कहती हैं, ‘मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इस तरह से एक आइकॉन बन जाऊंगी.’

23 साल की यह बाला भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में इंजीनियर है. वे भारत की महत्वाकांक्षी चंद्रयान परियोजना की ‘चेक आउट’ डिवीजन के 12 सदस्यों में से एक थीं, खास बात ये है कि वे इस टीम की सबसे छोटी सदस्य थीं. इस डिवीजन में उनका काम था कृत्रिम परिस्थितियों में उपग्रह के तमाम पुर्जो पर तरह-तरह के परीक्षण करना. ‘हमें ये परीक्षण करना था कि विभिन्न परिस्थितियों में अंतरिक्ष में उपग्रह किस तरह का व्यवहार करेगा’ 2006 में इसरो से जुड़ने वाली गुड़िया जसी इंजीनियर बताती है.

अक्टूबर 2008 में भेजे गए चंद्र-अभियान के बाद से अब तक इतने लोग इस परिवार से मिलने और उसे बधाइयां देने आ चुके हैं जितनी पिछली दसियों ईदों पर आने वाले लोगों की कुल संख्या भी नहीं होगी. खुशबू की मां फरहत हंसते हुए बताती हैं, ‘कई लोग सोचते हैं कि खुशबू चांद पर गई थी, वे पूछते हैं कि वो वहां से लौट कर कब आई.’

मगर मिर्जा परिवार की स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थीं. 1994 में फरहत के पति सिकंदर का निधन हो गया. इन स्थितियों में अपने बाच्चों के स्कूल की फीस और घर चलाने के लिए उन्हें पारिवारिक पेट्रोल पम्प पर काम करना पड़ा. खुशबू उस समय महज सात साल की थी और उसकी छोटी बहन महक मात्र चार और बड़ा भाई खुश्तर दस साल का. फिलहाल महक मुरादाबाद इंस्टीटच्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है और खुश्तर ने दिल्ली के जामिया मिलिया से बी टेक किया है.

मगर मिर्जा परिवार की महिलाओं के लिए पढ़ी-लिखी होना कोई नई या अनोखी बात नहीं. खुद फरहत भी मुरादाबाद कॉलेज से स्नातक हैं. वे बताती हैं, ‘मेरे पति इंजीनियर थे और उनका सपना था कि हमारी बच्चियां खूब तरक्की करें और आगे जाएं. मुझे पता था कि ये सब बिना अच्छी शिक्षा के मुमकिन नहीं.’ फरहत की बहन देहरादून के एक पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाती हैं. और उनकी दो भतीजियां अमेरिका में पीएचडी कर रही हैं. 45 वर्षीय फरहत गर्व के साथ कहती हैं, ‘मैंने अपने बच्चों को सिखाया है कि वे सितारों तक पहुंचें.’

खुशबू की दुनिया सिर्फ इंजीनियरिंग तक ही सीमित नहीं रही. अपने स्कूल के दिनों में वो जिला स्तर की वॉलीबॉल की खिलाड़ी थीं. दसवीं पास करने के बाद आगे पढ़ाई के लिए उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और फिर यहीं से बी टेक की पढ़ाई भी की.खुशबू इस विश्वविद्यालय की पहली छात्रा भी रहीं जिसने यहां के छात्र संघ के चुनावों में हिस्सा लिया. हालांकि वे चुनाव तो नहीं जीतीं लेकिन उनकी इस कोशिश ने यहां और लड़कियों को चुनाव में भाग लेने के लिए प्रेरित किया.

समय बदल चुका है इसलिए मुस्लिम लड़कियों के प्रति भी नजरिया बदलना चाहिए. हमारे परिवारों को हमें जरूर पढ़ाना चाहिए

बी टेक की डिग्री पूरी करने के तुरंत बाद ही खुशबू को अडोबि सॉफ्टवेयर की तरफ से नौकरी का प्रस्ताव मिला जिसे ठुकराकर अक्टूबर 2006 में इसे छोड़कर वे इसरो से जुड़ गईं. हालांकि इसरो में उन्हें अपनी पहली नौकरी की तुलना में काफी कम पैसों पर काम करना था. इसरो के प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान खुशबू के साथ रहीं उनकी मां फरहत कहती हैं कि ज्यादा पैसों के लिए इसरो के प्रस्ताव को ठुकराने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था. वे कहती हैं, ‘खुशबू देश में विज्ञान के लिए कुछ करना चाहती थी और मैं उसकी इस सोच से बेहद खुश थी.’

खुशबू बताती हैं कि एक साल और दस महीने तक उन्होंने इस मिशन को पूरा करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की है. ‘इसरो में काम करते हुए भी मैंने रमजान के रोजे रखे, नमाज पढ़ी और परीक्षण केंद्र में ही ईद भी मनाई’ खुशबू कहती हैं. इस बात से शायद ये भी साबित होता है कि इस्लाम की रवायतों का पालन करने के मामले में वो किसी अन्य आम मुस्लिम महिला से जरा भी अलग नहीं. हालांकि वो ये भी स्वीकार करती हैं कि उनकी उदार पारिवारिक पृष्ठभूमि का उनकी सफलता में खासा योगदान है.

सर्दियों में 15 दिन की छुट्टी मनाने अमरोहा लौटीं खुशबू फिलहाल यहां के नए माहौल में अपने को ढाल रही हैं. वे बताती हैं, ‘मैं इस बड़े अभियान का एक छोटा हिस्सा थी और यह अभियान उससे भी बड़े एक सपने का हिस्सा है, एक राष्ट्र द्वारा देखे गए सपने का, इस लिहाज से मुङो जो तारीफ मिल रही है वो कुछ ज्यादा ही है.’ 

हालांकि उन्हें खुद के कुछ खास होने का एहसास तभी हो गया था जब चंद्रयान मिशन के बाद वे पहली बार अपने घर पहुंची थीं. तब घर के बाहर ही एक रिपोर्टर और फोटोग्राफर से उनका सामना हुआ था और इसके बाद ये सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा. इस एयरोनॉटिकल इंजीनियर को शहर के स्कूलों और कॉलेजों में विद्यार्थियों के बीच प्रेरणादायी भाषण देने के लिए ढेरों आमंत्रण मिल रहे हैं.

हमने उनसे पूछा कि आखिर क्या बात है जो उन्हें इस तरह सर आंखों पर बिठाया जा रहा है. इस सवाल के जवाब में खुशबू कहती हैं, ‘ये शायद इसलिए है कि मैं एक मुस्लिम लड़की हूं और एक छोटे शहर से होने के बावजूद भी भारतीय विज्ञान में कुछ योगदान दे सकी.’  मगर तुरंत ही वो ये स्पष्टीकरण भी दे डालती हैं कि धर्म और शिक्षा दो बिल्कुल अलहदा चीजें हैं. वे कहतीं हैं, ‘समय बदल चुका है इसलिए मुस्लिम लड़कियों के प्रति भी नजरिया बदलना चाहिए. हमारे परिवारों को हमें जरूर पढ़ाना चाहिए.’

खुशबू को इस बात पर फख्र है कि अपने दूसरे सहपाठियों के उलट उन्होंने निजी क्षेत्र की आकर्षक नौकरी की बजाय एक मामूली-सी तनख्वाह वाली सरकारी नौकरी को चुना. दरअसल उन्हें लगता था कि देश में विज्ञान के क्षेत्र में योगदान दिए जाने की विशेष आवश्यकता है.

एक ऐसे शहर में जहां की 70 फीसदी आबादी मुस्लिम हो, एक लड़की के रोल मॉडल बनने के क्या मायने हैं? ‘अमरोहा जैसे छोटे शहर में मुस्लिम लड़कियों के लिए कोई रोल मॉडल ही नहीं है जिसकी तरफ वे देख सकें. उनको अक्सर शिक्षा से अलग रखा जाता है जिससे उनकी जिंदगी घरों तक ही सिमट कर रह जाती है.’ स्थानीय विद्याíथयों को संबोधित करने के लिए जाने से पहले वे कहती हैं, ‘मैं जहां भी जाती हूं लड़कियों की शिक्षा के महत्व पर जोर देती हूं, मैं उन्हें अपने पैरों पर खड़े होने और आवाज बुलंद करने के लिए प्रोत्साहित करती हूं.’