ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कांग्रेस जोश से सराबोर थी. होती भी क्यों नहीं, आखिर उसने परमाणु करार पर अविश्वास मत में अपने विरोधियों को पटखनी जो दे दी थी. उसे यकीन था कि वो इस उपलब्धि को चुनावी मुद्दा बनाकर मैदान मार लेगी. इसके पब्लिसिटी डिपार्टमेंट ने परमाणु करार के फायदे गिनाती एक पुस्तिका तैयार की थी और पार्टी के प्रवक्ता इस उपलब्धि के गीत गाते चैनल-चैनल घूम रहे थे. विज्ञान और तकनीक मंत्री कपिल सिब्बल के शब्द थे, ‘प्रधानमंत्रीजी को इसके लिए याद किया जाएगा और उनके समर्थन के लिए सोनिया जी को भी. सीधी सी बात है. बिजली ऐसी चीज है जो गरीब से गरीब और अमीर से अमीर आदमी को चाहिए.’ पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनीष तिवारी का कहना था, ‘1990 की शुरुआत से चुनाव तीन अहम मुद्दों पर लड़े गए हैं-बिजली, पानी और सड़क. करार का मतलब है बिजली.’ उधर, राहुल गांधी तो मनमोहन को पूरा समर्थन देते हुए यहां तक कह गए कि अगर इस मुद्दे पर सरकार गिर भी जाती है तो उन्हें कोई अफसोस नहीं होगा क्योंकि करार देश के लिए अच्छा है और इस पर आगे बढ़ने के लिए हिम्मत चाहिए.
मगर कुछ ही दिनों में हालात बदल चुके हैं. परमाणु करार को अपनी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि करार देने वाली कांग्रेस में आज वो ऊर्जा कहीं नजर नहीं आ रही. अगर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में हो रहे विधानसभा चुनावों को 2009 में होने वाले लोकसभा चुनावों की तैयारी का पैमाना माना जाए तो पार्टी दिशाहीन नजर आती है. छत्तीसगढ़ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक रैली तक नहीं की. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी दूसरे चरण के चुनाव प्रचार के आखिरी दिन मात्र एक रैली को संबोधित करने पहुंचीं. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दावा करते हैं कि पार्टी ने युद्धस्तर पर रणनीति बनाने के लिए एक ‘वॉर टीम’ का गठन किया था. मगर हर शाम बैठक करने वाली ये टीम रणनीति बनाने की बजाय भाजपा की रणनीति पर निगाह रखने का काम ज्यादा करती दिखी. यानी पार्टी ने आक्रामक होने की बजाय सुरक्षात्मक रवया अपनाया.
इसलिए अखबारों और टीवी के जरिए जबर्दस्त प्रचार अभियान में जुटी भाजपा जहां तैयारी के मामले में पूरी तरह से चाकचौबंद नजर आती है, वहीं आखिरी समय तक भी अपनी चुनावी रणनीति को आखिरी रूप नहीं दे पाई कांग्रेस इस मामले में पिछड़ गई लगी. चुनाव से कुछ दिन पहले ही इस बारे में पूछने पर पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना था, ‘कुछ दिन इंतजार कीजिए. हम राजस्थान में एक बढ़िया विज्ञापन लेकर आ रहे हैं जो इस सवाल का जवाब देगा कि क्यों मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे मैदान से गायब हैं.’ हमने उनसे पूछा कि ये जवाब क्या होगा और उनके शब्द थे, ‘ये आपको विज्ञापन में दिख जाएगा—उन्हें रैंप पर चलते हुए दिखाया गया है.’
अगर चुनाव से हफ्ता-दस दिन तक पहले तक भी विज्ञापन पूरी तरह से तैयार नहीं हो पाए तो ये साफ तौर से राजनीति के रैंप पर पार्टी की लड़खड़ाती चाल का संकेत लगता है. दूसरे घटनाक्रम भी इस अनुमान को बल देते लगते हैं. मसलन राजस्थान में 200 उम्मीदवारों में से आखिरी 86 के नामों की घोषणा नामांकन की तारीख से ऐन दो दिन पहले की गई. इस चुनावी समर में अपनी तैयारियों को लेकर पार्टी की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लग जाता है कि उसने उस एके एंटनी समिति की सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया जिसे कर्नाटक चुनावों में पार्टी की हार के बाद बनाया ही इसलिए गया था कि इससे सबक लेकर आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिए रणनीति बनाई जा सके. इसके एक सदस्य का तहलका से कहना था कि समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ तौर से राज्यवार रणनीति की जरूरत पर जोर दिया था. इसका सुझाव था कि विधानसभा के लिए उम्मीदवारों की घोषणा कम से कम 45 दिन पहले ही कर दी जाए. साथ ही पार्टी महासचिवों से लेकर राज्य, जिला और ब्लाक स्तर तक के कार्यकर्ताओं को निश्चित समय देकर उनकी जिम्मेदारियां निर्धारित की जाएं. एक और अहम सुझाव ये भी था कि एक-एक चुनावी क्षेत्र का बारीकी से अध्ययन और प्रबंध किया जाए और पार्टी के भीतर के झगड़े सुलझाए जाएं. मगर हालात देखकर लगता है कि ये सुझाव बस कागजों पर ही रह गए.
पांच महीने पहले गुजरात के द्वारका में पार्टी का एक शिविर लगा था जहां कार्यकर्ताओं और नेताओं ने आपसी प्रतिद्वंदिता को भूलकर जीत के लिए मिलकर काम करने की शपथ खाई थी. मगर मध्य प्रदेश पर नजर डाली जाए तो लगता नहीं कि इस शपथ का पालन हो रहा है. यहां पार्टी कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, सुरेश पचौरी, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह के खेमों में बंटी हुई है.
किसी पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले जितने कारक हो सकते हैं, सब के सब कांग्रेस में दिख रहे हैं मसलन गुटबाजी, रणनीति का अभाव, चरमरा रही पार्टी मशीनरी और नए और लोगों पर असर छोड़ने वाले मुद्दों की कमी. हालांकि दिलचस्प ये है कि महंगाई और आतंक को लेकर भाजपा के हमले के चलते बचाव की मुद्रा में दिख रही कांग्रेस को इसकी ज्यादा चिंता नहीं. तर्क ये दिया जाता है कि पार्टी की शुरुआत हमेशा धीमी रहती है लेकिन आखिर में वो अंतर को पाट लेती है.
इशारा शायद 2004 की तरफ है मगर शायद पार्टी इस बात को अनदेखा कर रही है कि तब ऐसा उसकी कोशिशों से कम और अपने आप ज्यादा हुआ था. और वसे भी 2004 को हुए चार साल बीत चुके हैं और इस दौरान हालात में काफी बदलाव आ चुका है. दरअसल देखा जाए तो तब से लेकर आज तक कांग्रेस 12 राज्यों के चुनावी समर में पटखनी खा चुकी है. इसे न सिर्फ पंजाब और कर्नाटक में सत्ता गंवानी पड़ी बल्कि उन राज्यों में भी हार का मुंह देखना पड़ा जहां ये सत्ता में नहीं थी और जहां सत्ता विरोधी लहर कांग्रेस के पक्ष में जानी चाहिए थी.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेसनीत यूपीए के पास वोटरों को लुभाने के लिए मुद्दे ही नहीं हैं. सलमान खुर्शीद कहते हैं, ‘बराक ओबामा की जीत में मुद्दा क्या रहा? मुद्दा था बेहतर शासन. राहुल गांधी भी विकासोन्मुखी शासन की जरूरत पर जोर देते हैं. हमें एक ऐसा अभियान बनाने की जरूरत है जो लोगों तक पहुंच सके. आखिर सरकार ने चांद पर भारत का झंडा फहराया है. इसके अलावा नरेगा, परमाणु करार, सूचना का अधिकार जसी उपलब्धियां हैं. हमारी समस्या ये है कि प्रचार योजनाओं में एकरूपता नहीं है.’
खुर्शीद की बात से लगता है कि सत्ताधारी पार्टी के पास सही नारों, मुद्दों और बढ़िया वक्ताओं की कमी है. वॉर ग्रुप के एक सदस्य कहते हैं, ‘ सभी राज्य चाहते हैं कि सोनिया और राहुल वहां आकर प्रचार करें.’ मगर जब वोटरों को नामांकन वाले दिन तक भी अपने प्रतिनिधियों की जानकारी न हो तो लगता नहीं कि ये काफी होगा. मध्य प्रदेश को देखते हुए कहा जा सकता है कि पार्टी के पास न तो गठबंधन के लिए कोई योजना है और न इसके न होने से पैदा होने वाले हालात से निपटने के लिए.
गौरतलब ये भी है कि 1996 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी एके एंटनी की अध्यक्षता में ही एक समिति बनाई गई थी और इसने एक व्यापक रणनीति भी तैयार की थी. मसलन समिति ने अपनी रिपोर्ट में सुझव दिया था कि बिहार में अपनी दशा सुधारने के लिए पार्टी को राष्ट्रीय जनता दल और झरखंड मुक्ति मोर्चा जसे दलों के साथ गठबंधन से दूर रहना चाहिए. इसके उलट समिति ने बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ चुनावी तालमेल विकसित करने की वकालत का थी. मगर आज जो हो रहा है वो ठीक इसका उल्टा है.
कांग्रेस जानती है कि कमियां क्या हैं मगर जैसा कि एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘हममें से ज्यादातर इसमें दिलचस्पी रखते हैं कि पार्टी ने हमारे लिए क्या किया है बजाय इसके कि हम पार्टी के लिए क्या कर सकते हैं. हम (गांधी-नेहरू) परिवार की तरफ देखते हैं मगर ज्यादातर का उससे सीधा संवाद हो ही नहीं पाता. कांग्रेस एक ऐसे व्यक्ित की तरह हो गई है जिसके कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया हो और इसकी वजह है कमजोर होती विचारधारा.’ पार्टी में किचन कैबिनेट की तरफ इशारा करने वाले ये कांग्रेस के अकेले नेता नहीं हैं. दरअसल कांग्रेस में जिम्मेदारियां और अधिकार कुछ चुनिंदा लोगों के हाथ ही में रहते हैं. इस तरह एक व्यक्ित के ऊपर कई जिम्मेदारियों का बोझ पड़ जाता है. मसलन हाल में दंडस्वरूप अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दी गईं मार्गेट अल्वा छह राज्यों की प्रभारी थीं. इनमें मिजोरम भी शामिल था जहां चुनाव हो रहे हैं. ये जिम्मेदारी तुरंत आस्कर फर्नाडिंस के कंधे पर डाल दी गई जिनके पास कुछ कर दिखाने के लिए सिर्फ दो हफ्ते थे. पृथ्वीराज चव्हाण का उदाहरण भी है जो प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री होने के अलावा जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक और त्रिपुरा के प्रभारी भी हैं. इसी तरह दिग्विजय सिंह वॉर ग्रुप के सदस्य होने के अलावा प्रचार कमेटी के भी इंचार्ज हैं मगर वो मध्य प्रदेश में चुनाव अभियान में भी व्यस्त हैं.
कुछ के मुताबिक सोनिया गांधी के पास जरूरत के मुताबिक सक्षम सिपहसालार नहीं हैं जो उनकी मदद कर सकें. मगर जिस एक चीज पर पार्टी हाईकमान को सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है वो है मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में किसी को पेश करने की इसकी अनिच्छा. राजस्थान में चुनाव अभियान की जिम्मेदारी संभालने वाले अशोक गहलोत को अपनी नियति का पता. मध्य प्रदेश में भी मुख्यमंत्री की कुर्सी के कई उम्मीदवार हैं और छत्तीसगढ़ में भी मामला ऐसा ही है जहां अजित जोगी और महेंद्र कर्मा इस दौड़ में हैं. बस सिर्फ दिल्ली में ही जीत की हालत में शीला दीक्षित को लेकर कोई शक-सुबहा नहीं है. मगर ऐसा किसी रणनीति की वजह से नहीं बल्कि इसलिए है क्योंकि कांग्रेस को उम्मीद है कि राष्ट्रकुल खेलों तक दिल्ली को विश्वस्तर का शहर बनाने के लिए दीक्षित के प्रयास उन्हें लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा सकते हैं. वॉर ग्रुप के एक सदस्य से जब हमने पूछा कि भाजपा के हेमामालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना और स्मृति इरानी जसे सितारों का मुकाबला करने के लिए उनके पास क्या है तो उनका जवाब था, ‘हम गोविंदा के लिए कोशिश कर रहे हैं मगर राजबब्बर ने हमें कुछ तारीखें दी हैं.’
आज अगर भारतीय लोकतंत्र की ये सबसे पुरानी पार्टी अव्यवस्थित और बदहाल दिखाई दे रही है तो इसकी एक वजह अलग-अलग मुद्दों को लेकर इसके नेताओं के दृष्टिकोण में एकरूपता का अभाव भी है. मसलन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को एक बार भी ये नहीं बताया गया कि पोटा, अफजल गुरू या फिर रामसेतु जसे अहम मुद्दों पर उन्हें क्या रुख अपनाना है. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता कहते हैं, ‘हमारे पास एक थिंक टैंक का अभाव है. फ्यूचर चैलेंजेंस कमेटी इसका विकल्प नहीं हो सकती. राहुल गांधी युवा इकाइयों को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश में व्यस्त हैं मगर जमीनी स्तर पर पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने का प्रयोग अभी सिर्फ पंजाब तक ही पहुंचा है जबकि बड़ी लड़ाई सिर्फ पांच महीने ही दूर है.’
उधर, बदलाव को लेकर पुराने नेताओं की हिचकिचाहट से राहुल खुश नहीं हैं. वो शिकायती लहजे में कई बार इसका संकेत भी दे चुके हैं. हाल ही में इलाहबाद में छात्रों से बात करते हुए उनका कहना था, ‘हम लोगों को भूल चुके हैं. इससे आम आदमी और नेताओं के बीच एक दूरी पैदा हो गई है. अब हमें लोगों के पास जाकर इस दूरी को पाटने की कोशिश करनी चाहिए.’ राहुल के एक करीबी विश्वासपात्र बताते हैं, ‘हम जानते हैं कि क्या किए जाने की जरूरत है. राहुल के एक दलित के घर में रात बिताने के बाद पार्टी को इस उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए था. दूसरे कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं को अगले छह महीने तक यही करने की जरूरत थी.’
इससे सवाल उठता है कि क्या पार्टी इतनी दिग्भ्रमित या अनुशासनहीन है कि ये उन्हीं नेताओं का अनुसरण नहीं करती जिन पर ये भरोसा करती दिखती है? सबसे मुख्य समस्या ये है कि पार्टी में ऐसे लोगों की कमी है जो कोई पहल कर सकते हों. यहां तक कि वरिष्ठ कांग्रेसजन भी दिशानिर्देशों के लिए लगातार 10 जनपथ का मुंह ताक रहे हैं. वे सही कदम उठाने पर ध्यान लगाने की बजाय इससे डर रहे हैं कि कोई गलत कदम न उठा बैठें.
छह महीने तक पसीना बहाने की बात तो एंटनी समिति भी कह चुकी है. इसका प्रस्ताव था कि चुनावी दौड़ में आगे रहने के लिए लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की घोषणा छह महीने पहले ही कर दी जानी चाहिए. इसने तो यहां तक कहा कि जिन सीटों पर कांग्रेस लगातार हारती रही है वहां ये काम एक साल पहले ही हो जाना चाहिए. मगर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं, ‘हमें कम करके मत आंकिए. हमारे दिमाग में एक बड़ी तस्वीर है. सिर्फ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जो देश की एकता को बनाए रख सकती है.’
अगर ऐसा हो जाता है तो ये किस्मत से ही होगा. ठीक वैसे ही जैसे 2004 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस केंद्र की सत्ता पर काबिज हो गई थी.