कविता का शहरनामा

रोतरदम! सुंदर, ताजा और अभी-अभी बसा हुआ, लगता है जैसे इसकी अनोखे वास्तुशिल्प वाली इमारतें मशरूम की तरह मिट्टी से फूटी हों या विशाल क्रेनों से ढोकर इन्हें यहां जमा दिया गया हो. यह पूरी तरह से शहर है. गांव-देहात या पुरानी सभ्यता का कोई चिन्ह नहीं है. सामने सफेद रंग का मशहूर इरास्मस पुल है जिसे इस शहर का ट्रेडमार्क माना जाता है. आकाश की ओर मुंह किये हुए विशाल भव्य हंस जैसा पक्षी जिसके पंख मोटे सफेद रस्सों से बनाए गए हैं, और पूरी संरचना में ऐसी गति है कि लगता है यह अभी लंबी उड़ान को निकल पड़ेगा. रोतरदम्स स्खाउबुर्ग यानी नगर केन्द्र के इर्द-गिर्द फैली हुई गलियां और दुकानें चहल पहल से भरी हुई हैं. कई नस्लों, रंगों, और भाषाओं के लोग, डच, स्पानी, जर्मन, अफ्रीकी.. तरह-तरह से गुंथे हुए बालों वाली काली युवतियां, लंबे-तगड़े मोरक्कन, सांवले रंग के भारतीय मूल के सूरीनामी, पेड़ों के नीचे बेंचों पर बैठे सिगरेट पीते हुए अधेड़ लोग. पता चलता है कि रोतरदम में करीब 150 राष्ट्रीयताओं के लोग रहते हैं और यह उदार और शांत शहर है. लोग प्राय: खुशहाल हैं, लेकिन संपन्नता का प्रदर्शन और तड़क-भड़क नहीं है.

रोतरदम का यह नयापन और सौंदर्य छोटी-सी रोत नदी के किनारे बसे तेरहवीं सदी के शहर के ध्वंस और उसकी राख से पैदा हुए हैं. इसे फीनिक्स भी कहा जाता है. 

रोतरदम में कविता भी जगह-जगह फैली हुई है. बसों, खिलौने जैसी लहराती हुई ट्रामों पर, सड़कों के किनारों पर करीने से लगे स्वचालित विज्ञापनों में, रेस्तराओं की मेजों पर रखे गत्ते के गोल-चौकोर टुकड़ों पर, छह लाख की आबादी के इस शहर में ज्यादातर लोगों को पता है कि यहां एक अंतर्राष्ट्रीय कविता समारोह हो रहा है. उस बूढ़ी स्त्री को भी, जिसकी उदास-सी दुकान पर एक सुबह मैं सिगरेट की तलाश में गया हूं.

यह गर्मियों की शुरुआत है. ट्यूलिप के फूलों की बहार चली गई है और कभी-कभी दिन का तापमान 22 डिग्री तक पहुंच जाता है जो यूरोप के लिए हीट-वेव ही है. हालांकि कुछ देर बाद बारिश की फुहारें मौसम को ठंडा कर देती हैं. अपनी खास रंगत की धूप के लिए पूरा हालैंड मशहूर है और ये बात उनके कई बड़े चित्रकारों की कृतियों में भी नजर आती है.

सात जून को रोतरदम के मेयर उन्तालीसवें काव्योत्सव का शुभारंभ करते हैं जिसकी थीम कविता: शहर और देहातहै. मंच पर पाइपों के सहारे एक तंबू-विश्वबसाया गया है. शायद इसलिए कि देहात से शहर, शहर से महानगर और महानगर से विश्व तक मनुष्य की यात्रा में तंबुओं की एक बड़ी लेकिन अनदेखी भूमिका रही है. वे उसकी विजय और पराजय के गवाह रहे हैं और उनके भीतर रहने वाले जाने कितनी ही भाषाएं बोलते आएं हैं. समारोह की पहली शाम इन तंबुओं के बीच अठारह कवि अपनी भाषाओं और आवाजों का एक ऐसा शहर निर्मित करते हैं जो भौतिक तौर पर शायद कहीं नहीं होगा. नेदरलैंड्स के रेम्को कांपर्त, फ्रांस के ज्यां मिशेल एस्पतालियेर, इटली के आंद्रिया जिबेलीनी, हंगरी के साबोल्च वरादी, अर्जेंटीना की मीर्ता रोजेनबर्ग, बेल्जियम के विलियम क्लिफ और मरियम फान ही, ब्रिटेन के जेम्स फेंटन, भारत से मैं गोरे लोगों की भीड़ में अकेला सांवला तीसरी दुनिया का आदमी जो कहीं से भटक कर आया हुआ-सा लगता है.

हाल में कम से कम एक हजार श्रोता हैं लेकिन वातावरण में स्पंदन कुछ ऐसा है जैसे पूरा शहर ही उमड़ आया हो. हर कवि के मंच पर आते ही तालियां और हर पाठ के बाद तालियां. यूरोपीय लोग प्राय: खुलते नहीं हैं, अपने में ही रहते हैं लेकिन यहां कविता पाठ के बाद लोग कवियों को आगे बढ़कर बधाई देने में लगे हैं. कविता से इतना लगाव अचरज में डालने वाला है. कवियों के लिए नि:शुल्क वाइन और बीयर उपलब्ध है. उन्हें इसके बहुत सारे टिकट दे दिए गए हैं. वैसे भी नेदरलैंड्स अपनी बीयर के लिए जाना जाता है और विश्वप्रसिद्ध हैनीकेन बीयर यहीं बनती है. वयोवृद्ध कवि रेम्को कांपर्त ने अपनी एक कविता में एक शहर को कुछ यूं बयां किया है –रात में शहर के लोगों के प्रेमी होते हैं/ रात में शहर लोगों के कंधों और बालों को सहलाते हैं’/ रात में मैंने शहरों को सुना है जब वे अपनी नदियों और पेड़ों की बगल में सो जाते हैं/ मैं उनके साथ पीता रहा हूं/ और उनके साथ हंसता, चूमता और रोता रहा हूं/..नीदरलैंड्स के एक और प्रमुख कवि तेर वल्क्त जैसे कवियों के पास अपने समय, समाज और मनुष्य जीवन पर कहने के लिए बहुत कुछ है. बल्क्त की कविता किसानी और ग्रामीण बिंबों के जरिए एक मिथकीय संसार रचाती है. जेम्स फेंटन की रचनाएं प्रतिरोधी तेवर की हैं और विलियम क्लिफ के यहां चीजें कुछ विरूपित हैं. उनकी एक कविता में भुवनेश्वर में लंगोट पहनकर नदी में तैरने के लिए छलांग लगाते आदमी का उल्लेख है. भुवनेश्वर भारत में कहां है?’ वे पूछते हैं, ‘मैंने एक किताब में तस्वीर देखी थीवृद्ध या प्रौढ़ कवियों की दुनिया खोई हुई चीजों, विश्वयुद्ध की दारुण स्मृतियों, बचपन या किशोरावस्था की विडंबनाओं या आंतरिक एकालापों से बनी हुई दिखती है. लेकिन युवा कवियों की रचनाओं में प्रयोगधर्मिता अधिक हैं और ये पूरी तरह से शहराती संवेदना को व्यक्त करती हैं. उन्हें सुनते हुए लगता है कि ग्लोबल दौर में अमीर देशों में सामाजिक सरोकारों की कविता लगातार कम हो रही है.

 होटल अटलांटा से कुछ ही कदम पर स्खाउबुर्ग तक टहलते हुए एक दीवार पर बड़ी-सी पेंटिंग लगी है. यह इरास्मस है. रोतरदम का योग्यतम पुत्र’. पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का ये बुद्धिजीवी (पूरा नाम देसीदेरियस इरास्मस रोतरदामस) अपनी क्लासिक रचनाओं से चर्च के पाखंड़ों की आलोचना करता रहा. इरास्मस के एक हाथ में कलम है और दूसरा हाथ किताब पर है. सामने तराजू के एक पलड़े पर सोने की मुहरें हैं और दूसरे पर चिड़िया के पंख की कलम रखी हैं. लेकिन कलम मुहरों पर भारी पड़ रही है. इरास्मस यहां एक घरेलू नाम है, वह शहर के ज्ञान और विवेक का प्रतीक है और यहां का सबसे सुंदर पुल उसी को समर्पित है. यह पुल मेरे होटल के कमरे की खिड़की से भी दिखता है शहर की रखवाली सी करता हुआ. क्या यह कोई स्वर्ग है जहां मैं आठ दिनों से रह रहा हूं? अकेला हिंदुस्तानी, जिसे आने से पहले इस जाने-माने समारोह के बारे में कोई जानकारी तक नहीं थी. लगभग एक हजार कवियों की बिरादरी यहां कविता पढ़ चुकी है. मैं यहां आने वाला चौथा हिंदी कवि हूं (2003 में डा केदारनाथ सिंह और उदय प्रकाश और 1984 में अज्ञेय जी यहां आए थे). भारत से अंग्रेजी के दो कवि सुजाता भट्ट और विक्रम सेठ भी यहां आ चुके हैं और पाब्लो नेरुदा जैसे तमाम सितारे यहां कम-से-कम एक बार काव्यपाठ कर चुके हैं. अभी तक इसका स्वरूप यूरोप-केन्द्रित अधिक रहा है मगर अब शायद तीसरी दुनिया की तरफ ध्यान जाए. चौदह जून को विदा होते समय अपने कमरे से कुछ देर इरास्मस पुल को देखता हूं. उसकी तस्वीर खींचता हूं. नीचे होटल की लाबी में एक लोकप्रिय डच अखबार दि फोक्सक्रांतरखा हुआ है. उसमें मेरा एक इंटरव्यू छपा है. काउंटर पर बैठा व्यक्ति खुश होकर कहता है इसे आप अपने साथ ले जाइए’. बाहर एक टैक्सी खड़ी है जो कुछ ही देर में मुझे इस स्वर्ग से बाहर ले जायेगी.

मंगलेश डबराल

(रोतरदम कविता समारोह से लौटकर)