राजनीति की माला जपती नौकरशाही

 एक वक्त था जब सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा मांग में रहने वाला उत्तर प्रदेश का आईएएस कैडर भारतीय नौकरशाही की शान समझा जाता था. मगर आज आपसी कलह और राजनीतिकरण की वजह से ये काफी हद तक अपनी चमक खो चुका है. पतन का आलम ये है कि वरिष्ठ नौकरशाह खुल्लखुल्ला बसपा, सपा और भाजपा जैसे सियासी गुटों के पाले में खड़े हैं। उनकी स्पष्ट सोच है कि ‘सिस्टम’ से बाहर होने से बेहतर है इसके भीतर रहकर काम किया जाए. सरकारें बदलती हैं और उनके साथ ही बदल जाती है चहेते अधिकारियों की टोली भी. 

मायावती के चौथे मुख्यमंत्रित्व काल में ये अधिकारी राजनीतिक रैलियों के लिए इंतजामात तक करते हुए देखे जा चुके हैं. कुछ तो इससे भी एक क़दम आगे चले गए. 22 जुलाई को विश्वास मत हासिल करने से पहले मायावती के पसंदीदा अधिकारी नई दिल्ली में उनकी राजनैतिक बैठकों का प्रबंध कर रहे थे और कथित रूप से बिना कॉलर आईडी वाले फोनों के जरिए बसपा की तरफ से सांसदों के साथ संपर्क बना रहे थे. सीपीएम नेता प्रकाश करात और यूएनपीएक के दूसरे घटक दलों के साथ मायावती की बैठक के दौरान मुख्यमंत्री सचिवालय के दो वरिष्ठ अधिकारियों – वी ए पांडे और नवनीत सहगल—की मौजूदगी की फोटो राष्ट्रीय अखबारों के पहले पन्ने पर छपी. 

इस संबंध में दोनों अधिकारियों के एक सहयोगी कहते हैं कि वे दोनों मुख्यमंत्री के ‘डे आफिसर’ हैं लिहाजा उन्हें मुख्यमंत्री के साथ रहना ही था. लेकिन वो इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाते कि ये अधिकारी मुख्यमंत्री की राजनैतिक बैठकों में क्या कर रहे थे?  सहगल पर विश्वासमत के दौरान राजबब्बर से भी संपर्क करने का आरोप लगा था. हालांकि सहगल इस आरोप से इंकार करते हैं. रिटायर्ड आईएएस ऑफिसर एस वेंकटरमानी कहते हैं कि पहले अधिकारी क्षेत्र, धर्म, और जाति के आधार पर बंटे थे लेकिन अब उनका राजनीतिक बंटवारा भी हो गया है.

1958 बैच के रिटायर्ड आईएएस ऑफिसर एस वेंकटरमानी कहते हैं कि पहले अधिकारी क्षेत्र, धर्म, और जाति के आधार पर बंटे थे लेकिन अब उनका राजनीतिक बंटवारा भी हो गया है. अधिकारियों का मानना है कि अब नौकरशाही की निष्पक्षता नौकरशाहों के राजनीतिक पार्टियों के पाले में जुड़ने के साथ कम होती जा रही है और वे छोटे-छोटे स्वार्थ के लिए राजनीतिक आकाओं से जुड़ रहे हैं. हालांकि यूपी आईएएस एसोसिएशन के मानद सचिव संजय बोस रेड्डी कहते हैं कि कुछ लोगों की वजह से पूरी नौकरशाही को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

जबर्दस्त दबाव में घिरे 1972 बैच के आईएएस मुख्य सचिव प्रशांत कुमार मिश्रा को जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो उन्होंने नई पोस्टिंग की जगह स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति को चुना. अवकाश ग्रहण करने से पहले मिश्रा ने अपने साथियों के नाम एक चिट्ठी लिखी जिसका मजमून ये था कि जीवन के मूल्य, सांसारिक लाभों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. चौंकाने वाली बात ये रही कि उनकी जगह तैनात किए गए 1974 बैच के अधिकारी एके गुप्ता को 1971-74 बैच के तकरीबन 30 वरिष्ठ अफसरों की अनदेखी करके लाया गया.

इससे भी बड़ी हैरत की बात ये थी कि मार्च 2007 में कैबिनेट सचिव के पद पर नियुक्त किए गए शशांक शेखर सिंह एक गैर आईएएस अधिकारी थे. इस साल मार्च में केन्द्र के दखल के बाद ही वरीयता की इस उलट-पुलट को सुधारा गया. वैसे तो कागजों पर कैडर के 537 आईएएस अधिकारियों का मुखिया मुख्य सचिव होता है मगर असल में प्रशासनिक नियंत्रण की कमान सिंह के हाथ में ही है. कैबिनेट सचिव के तौर पर शशांक शेखर सिंह की नियुक्ति के खिलाफ एक जनहित याचिका हाईकोर्ट में लंबित है.

वर्तमान सरकार के सामने घुटने टेकने से इनकार करने वाले अधिकारी भयग्रस्त और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. उनकी कोशिश है कि उनकी नियुक्ति राज्य से बाहर या केन्द्र में हो जाए. हालांकि उत्तर प्रदेश में आईएएस अधिकारियों की कमी है लेकिन इसी असुरक्षा और डर की वजह से वे आईएएस अधिकारी भी वापस नहीं आना चाहते जो केन्द्र में या विदेशों में अपनी नियुक्ति की अवधि पूरी कर चुके हैं. उत्तर प्रदेश में आईएएस अधिकारियों की कमी है लेकिन असुरक्षा की वजह से वे आईएएस अधिकारी भी वापस नहीं आना चाहते जो केन्द्र में या विदेशों में अपनी नियुक्ति की अवधि पूरी कर चुके हैं.

राजनेताओं के हाथ में तबादले का अधिकार किसी हथियार की तरह होता है जिसका इस्तेमाल वे अधिकारियों के खिलाफ करते हैं. 14 महीने के मायावती के शासन में कुछेक  को छोड़कर बाकी सभी अधिकारियों का कम से कम तीन या चार बार तबादला हो चुका है. कुछ तो ऐसे भी हैं जिनकी बदली छ: बार तक हो चुकी है. अब तक कुल 1,250 स्थानांतरण हो चुके हैं.. 

उत्तर प्रदेश में अधिकारियों के मनमाने तबादलों और नियुक्तियों को रोकने के लिए सिविल सर्विस बोर्ड है. अगर आईएएस अधिकारियों से संबधित नियमों को देखें तो अधिकारियों की तैनाती कम से कम दो या तीन साल लिए होनी चाहिए. इस मामले में अपवाद केवल तभी हो सकता है जब कमेटी की स्वीकृति या इसकी कोई जगजाहिर वजह हो. इस तरह नियमों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है. लेकिन जब इस बाबत पूर्व सचिव (नियुक्ति और कार्मिक) अनूप चन्द्र पांडे से पूछा गया तो उन्होंने कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. 

अधिकारियों को सरकारी दंड के तौर पर पोस्टिंग के लिए 100 दिनों का इंतजार भी करना पड़ता है. मायावती के डर की वजह से अपना नाम न बताने की गुजारिश के साथ एक और प्रधान सचिव कहते हैं ‘जब सरकार अच्छे काम करने वाले अधिकारियों को दण्डित करती है तो बेहतर प्रशासन की संभावना खत्म हो जाती है.’ उत्तर प्रदेश में विभागों में मुख्यमंत्री और कैबिनेट सचिव की ओर से स्पष्ट मौखिक आदेश हैं कि वे मीडिया से किसी मुद्दे पर बात न करें.

उत्तर प्रदेश के आईएएस एसोसिएशन ने राज्य की मनमाने तबादले की नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, लेकिन एसोसिएशन के अध्यक्ष एके रस्तोगी के दबाव में उसे वापस ले लिया गया. सेवानिवृत सरकारी अधिकारियों के एक संघ ‘लोक प्रहरी’ के महासचिव और सेवानिवृत अधिकारी एसएन शुक्ला कहते हैं, “हमने नेताओं के शिकंजे से निकलने का एक बढ़िया मौका खो दिया.”  

हालांकि कुछ अधिकारी अब भी मानते हैं कि अब भी सब कुछ लुटा नहीं है. नाम न छापने की शर्त पर 1982 बैच के एक आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘हालांकि विश्वसनीयता और प्रभाव घटने की वजह से कैडर मुश्किल दौर से गुज़र रहा है और उसके ऊपर बेइमानी के आरोप लग रहे हैं, लेकिन फिर भी उत्तर प्रदेश के ज्यादातर नौकरशाह आज भी ईमानदार, निष्पक्ष और अराजनीतिक हैं.”

उत्तर प्रदेश में नौकरशाही के राजनीतिकरण पर विश्व बैंक भी चिंतित है। जून 2008 में उत्तर प्रदेश पर जारी बैंक की एक रिपोर्ट कहती है, “सिविल सेवाओं का राजनीतिकरण और सरकारी अधिकारियों का बारबार तबादला उत्तर प्रदेश में एक ऐतिहासिक समस्या रहा है।”

मगर इसके बावजूद आज भी यूपी कैडर में कुछ बेहतरीन आईएएस अधिकारी हैं जिन्हें अगर थोड़ी सी आजादी दी जाए तो वे राज्य की बदहाल तस्वीर को पूरी तरह से बदल सकते हैं. यूपीआईएएसए के एक कार्यकारी अधिकारी कहते हैं, “कुछेक राजनैतिक लोगों की आलोचना करने की बजाय हमें उन बहुत से लोगों को भी देखना चाहिए जो अपनी सेवाओं से व्यवस्था को सकारात्मक दिशा में बढ़ाने की सार्थक कोशिश कर रहे हैं.” 

श्रवण शुक्ला