संयोग से शहंशाह

ये 1987 का साल था. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ी भुट्टो खानदान की उत्तराधिकारी बेनजीर ने अचानक ये ऐलान करके सबको चौंका दिया कि उन्होंने अपनी मां नुसरत द्वारा खोजे गए एक नौजवान से निकाह के लिए हामी भर दी है. 

मगर बेनजीर से कहीं ज्यादा ये निकाह जरदारी की जिंदगी को बदलने वाला था. 20 साल पहले जब इस शादी की घोषणा हुई थी तो एक सिंधी उद्योगपति के बेटे जरदारी के भव्य अंदाज ने दिल के आकार वाले हीरे और नीलम जड़ी अंगूठी के लिए सबका ध्यान अपनी ओर खींचा. इसके बाद 18 दिसंबर 1987 यानी करीब छह महीने तक वो बिना नागा हर दिन लाल गुलाबों का गुलदस्ता बेनज़ीर को भेजते रहे.

इसके करीब 22 साल बाद 27 दिसंबर 2007 को जरदारी की उतार-चढ़ाव भरी जिंदगी का एक और अध्याय तब शुरू हुआ जब बेनज़ीर की हत्या हो गई. भाग्य के मनमौजी खेल से भरी जरदारी की जिंदगी की कहानी इतनी अजीब है कि जाने-माने किस्सागो भी ठहर कर सोचने लग जाएं. ये तो समझा जा सकता है कि बेनजीर की उथल-पुथल से भरी जिंदगी ज़रदारी की जिंदगी को भी कई उतार-चढ़ावों से भर देगी लेकिन कोई ये नहीं सोच सकता था कि बेनज़ीर की असमय मौत उन्हें देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचा देगी. शिखर तक की आसिफ अली जरदारी की इस असाधारण छलांग को आंकने में इतिहास को लंबा वक्त लगेगा.

प्लेब्वॉय, पोलो प्लेयर, मिस्टर टेन परसेंट…ये वो चंद विशेषणों में से हैं जो 53 वर्षीय जरदारी के नाम के साथ उनकी जिंदगी के अलग-अलग दौर में चस्पा होते रहे हैं. इसकी शुरुआत 1987 में तब हुई थी जब पाकिस्तान में हर कोई जानना चाहता था कि ये शख्स कौन है. जवाब बहुत खुश होने लायक नहीं था. एक सिनेमा हाउस के मालिक के इस बेटे की छवि लड़कियों के पीछे भागने वाले एक शख्स की थी, ऐसा शख्स जिसे पार्टियों का शौक था और जिसने घर में ही चमचमाती लाइटों वाला एक डिस्को तक बना रखा था, जिसने पढ़ाई के नाम पर ग्रेजुएशन तक नहीं किया था और जो निश्चित रूप से देश की सबसे योग्य और प्रतिभाशाली लड़की के मुकाबले कहीं नहीं ठहरता था. The princess and theplayboy Zardari andBenazir Bhutto in 1989

हालांकि बेनजीर को जरदारी से तालमेल बिठाने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई. उनका नजरिया साफ था, वे न सिर्फ अपने माता-पिता बल्कि अपने मजहब के प्रति भी अपने कर्तव्यों से बंधी हुई थीं. वे अक्सर कहा करती थीं, मुहब्बत शादी के बाद हो जाएगी”. और वो बिना देर लगाए ये संकेत भी देती थीं कि भले ही उनका शौहर दूसरे मानदंडों पर खरा नहीं उतरता हो मगर अहम ये है कि वो इस बात को समझता था कि उनकी विरासत उनसे सामाजिक और राजनीतिक दुनिया में पूरी तरह से डूब जाने की मांग करती है.

जरदारी भले ही आज अपनी पसंदीदा फिल्म गॉडफॉदर के मुख्य चरित्र जैसी भूमिका में आ गए हों मगर उन दिनों उन्हें अपनी पत्नी की छाया में एक बढ़िया जिंदगी बिताने से कोई परहेज नहीं था. इसके बदले में तब मार्ग्रेट थचर के नक्शे कदम पर चलने की कोशिश कर रहीं बेनजीर ने जरदारी को लेकर अपनी शंकाओं को ज्यादा तूल नहीं दिया. अपनी आत्मकथा डॉटर ऑफ द ईस्ट में उन्होंने लिखा है कि किस तरह अपने हा पब्लिक प्रोफाइल की वजह से वो अपने जीवनसाथी की तलाश उस तरह से नहीं कर सकीं जैसे आमतौर पर दूसरे लोग किया करते हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने तय कर लिया था कि वे परिवार द्वारा तय जीवनसाथी के लिए हामी भरने के लिए तैयार हैं, भले ही उन्हें इसकी कुछ भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.

जब बेनजीर ने अपना पहला चुनावी अभियान शुरू किया उस वक्त उनका बेटा बिलावल सिर्फ दो महीने का ही था. इसकी परिणति दिसंबर 1988 में उनके किसी इस्लामी देश की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनने के रूप में हुईं. इधर, अपने पिता की फांसी के नौ साल बाद पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को अपने दम पर सत्ता में लाने वाली बेनजीर सत्ता का केंद्र बन गई थीं और उधर, जरदारी प्रधानमंत्री का पति होने के भरपूर फायदों का आनंद ले रहे थे. पाकिस्तानी मीडिया में अक्सर सीमित संपत्ति और सीमित शिक्षा वाले एक व्यक्ति के रूप में जाने जाने वाले जरदारी को सत्ता काफी नशीली चीज लग रही थी. डिजाइनर कपड़े, विदेशी कारें और महंगी घड़ियां अचानक उनके लिए छोटी-छोटी चीजें हो गईं थीं और वे अब बड़े सौदों के बड़े खेल खेलने लगे थे. ये वही वक्त था जब जरदारी को मिस्टर टेन परसेंट भी कहा जाता था, जो इस बात का संकेत था कि फाइल को आगे बढ़ाकर सौदे को मुकाम तक पहुंचाने में जरदारी का कितना हिस्सा रहता था.

मगर बतौर कमीशन टेन परसेंट भी उस शख्स के लिए बहुत छोटी रकम प्रतीत होती है जिस पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे और साबित भी हुए, उस पोलो खिलाड़ी के लिए, जिसने खुद माना कि ब्रिटेन के सरे में 350 एकड़ में फैला और 45 लाख पाउंड्स की कीमत वाला भव्य एस्टेट उसका है. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने तो उन पर तीखा हमला करते हुए मीडिया को इस एस्टेट का बिवरण देते हुए बताया था कि ये लाहौर के किले से भी दस गुना बड़ा है. अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने इस एस्टेट पर कई लेख छापे और उनमें पारिवारिक और बैंक दस्तावेजों का भी अनेकों बार हवाला दिया गया. अखबार के रिपोर्टर जॉन बर्न्स ने इस जानकारी को इस साल प्रकाशित होने वाली किताब गुडबा शहजादी के लेखक श्याम भाटिया के साथ भी बांटा. ऑक्सफोर्ड के दिनों से बेनज़ीर के अच्छे दोस्त भाटिया लिखते हैं, बेनजीर की मौत के बाद बर्न्स ने मुझे अपनी जांच की पृष्ठभूमि के बारे में बताया. जब बर्न्स उनके द्वारा हासिल दस्तावेजों पर जरदारी की प्रतिक्रिया लेने पहुंचे तो जरदारी कराची की जेल में थे. प्रतिक्रिया देने से पहले वे10 मिनट तक दस्तावेजों को देखते रहे और फिर कहा कि मुझे इन्हें देखने की जरूरत नहीं है. मेरे पास इनकी मूल प्रति है. बर्न्स इसके बाद बेनजीर से मिलने गए जो उस समय विपक्ष की नेता थीं. जब बर्न्स ने उन्हें उन दस्तावेजों और जरदारी की प्रतिक्रिया के बारे में बताया तो वे सुबकने लगीं. उन्होंने पूछा, आप मेरे साथ ऐसा क्यूं कर रहे हैं. मेरे परिवार के साथ इतना कुछ हुआ है. मेरे पिता मारे गए, मेरे भाइयों की हत्या हुई…

पाकिस्तान में भ्रष्टाचार की कहानियां आम हैं. और जरदारी के औपचारिक रूप से देश का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने के साथ एक बार फिर से ये कहानियां चर्चा में हैं. कराची से सरे, सरे से न्यूयॉर्क और फिर वापस पाकिस्तान तक की जरदारी की यात्रा में जितने संयोग हैं उतने ही दाग भी. उन्हें और बेनजीर को 2003 में स्विटजरलैंड की एक अदालत ने काला धन जमा करने का दोषी पाया था. जरदारी ने इस फैसले के खिलाफ अपील की थी जिस पर इस साल सुनवाई होनी थी. मगर जैसे ही पीपीपी ने जरदारी को राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में नामांकित किया विवादास्पद रूप से स्विटजरलैंड प्रशासन ने ये मामला ही बंद कर दिया.Zardari and Nawaz

गौरतलब है कि इस मामले में जज डैनियल डिवाउड ने जरदारी और बेनजीर को दोषी करार देते हुए फैसला सुनाया था कि वे स्विस खातों में फ्रीज किए गए एक करोड़ दस लाख डालर पाकिस्तान को वापस करें.

जरदारी की जिंदगी में ऐसे कई मोड़ आए. उन्हें पहली बार 1990 में गिरफ्तार किया गया. तब उनकी शादी को सिर्फ दो साल हुए थे और बेनजीर की पहली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था. जरदारी पर तब ब्लैकमेल का आरोप लगा था. कहा गया था कि उन्होंने ब्रिटेन में रह रहे एक पाकिस्तानी व्यापारी मुर्तजा बुखारी के पैर में रिमोट कंट्रोल से संचालित एक बम लगा दिया था और उसे हुक्म दिया था कि वो बैंक में जाए और अपने अकाउंट से पैसा निकालकर लाए. मगर 1993 में बेनजीर के फिर से सत्ता में आने के बाद ये मामला बंद कर दिया गया और जरदारी आजाद हो गए.

ये साफ हो चुका था कि बेनजीर के लिए सार्वजनिक और निजी जीवन के मापदंड अलग-अलग थे. जरदारी की कहानियां पाकिस्तान में लोगों की जुबान पर चढ़ रही थीं और कई लोग इस विडंबना को महसूस कर रहे थे कि किस तरह बेनजीर अपने पिता की उस चेतावनी को भूल गईं जिसमें कहा गया था कि मामला जब पैसे और जीवनशैली का हो तो सत्ता में रहने वालों और उनके परिवारों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए. 1978 में जुल्फिकार के कहने पर बेनजीर ने न्यूयॉर्क में रह रहे अपने भाई मुर्तजा को एक चिट्ठी भेजी थी. इसमें उन्होंने लिखा था, “यहां प्रेस में कहा जा रहा है कि तुम लंदन में विलासिता से रह रहे हो. पापा जानते हैं कि ऐसा नहीं है मगर वे तुम्हें याद दिलाना चाहते हैं कि निजी जिंदगी को लेकर तुम्हें सबसे ज्यादा सतर्कता बरतनी चाहिए. न फिल्में, न फिजूलखर्ची, वरना लोग कहेंगे कि जब तुम्हारे पिता जेल की कालकोठरी में सड़ रहे थे तो तुम जिंदगी का लुत्फ उठा रहे थे.”

अपने पिता को खोने के बाद बेनजीर को मुश्किल भावुक फैसले करने पड़े. उनके लिए जुल्फिकार उनके मार्गदर्शक, आदर्श सब कुछ थे. अपनी जीवनी में उन्होंने उस शून्य और अकेलेपन के बारे में लिखा है जो जुल्फिकार की फांसी के बाद उनके जीवन में आ गया था. उन्होंने ये भी लिखा है कि किस तरह से जरदारी से निकाह के लिए हामी भरने में इस अकेलेपन की भी भूमिका थी. ये बात भी सबको पता है कि भले ही जरदारी एक राजनीतिक बोझ थे मगर उन्होंने बेनजीर को अपना पूरा समर्थन दिया. बेनजीर अक्सर अपने दोस्तों से बात करते हुए जरदारी के इस पक्ष की तारीफ करती थीं. शायद इसे जरदारी की खूबी ही कहा जाएगा कि वे उस देश में एक बेहद सफल महिला के पृष्ठभूमि में रहने वाले पति की भूमिका में भी संतुष्ट थे जहां महिलाओं को उनके पति की सहमति के बिना बैंक खाते खोलने तक की इजाजत नहीं थी. (बेनजीर की कई मानवाधिकार गुटों ने इस बात के लिए आलोचना भी की कि उन्होंने अपने पहले प्रधानमंत्रित्वकाल में इसके लिए कुछ नहीं किया). जरदारी ने उनकी जिंदगी के शून्य को भर दिया था. वो शून्य जो पिता की फांसी, शादी से पहले सबसे छोटे भाई शाहनवाज की फ्रांस में हुई मौत और दूसरे भाई मुर्तजा, जिन्हें जनरल जिया ने पाकिस्तान से खदेड़ दिया था, से जुदा होने के बाद उनकी जिंदगी में आया था.

पैसा बटोरने में माहिर जरदारी अगर राजनीतिक नहीं तो राजनीतिक रूप से जागरूक हो गए हैं ये 1994 में तब साफ हो गया जब मुर्तजा ने पाकिस्तान लौटने का फैसला किया. मुर्तजा की बेटी फातिमा भुट्टो के मुताबिक बेनजीर लगातार अपने भाई को ये कहते हुए न लौटने के लिए मनाती रहीं कि उन्हें उन पर चल रहे मामलों को ठिकाने लगाने के लिए कुछ वक्त की जरूरत है. गौरतलब है कि मुर्तजा पर आतंकवाद का मुकदमा चल रहा था. फातिमा और उनकी मां घिनवा का मानना है कि बेनजीर के फैसलों के पीछे जरदारी का हाथ था. मुर्तजा, जरदारी को ज्यादा भाव नहीं देते थे. इस नापसंदगी के पीछे की वजह सिर्फ यही नहीं थी कि उनके मन में जरदारी की छवि एक अमीर प्लेब्वॉय की थी. इसकी ज्यादा बड़ी वजह ये थी कि पीपीपी के अपनी विचारधारा यानी सामाजिक न्याय की लड़ाई के रास्ते से भटकने के लिए वे जरदारी को ही जिम्मेदार मानते थे.

मगर जब वापस आने पर मुर्तजा ने पाया कि उनके और जरदारी के बीच के टकराव में बेनजीर, जरदारी के साथ खड़ी हैं तो उन्होंने अपनी बहन की आलोचना शुरू कर दी. उन दिनों बेनजीर की मां नुसरत भुट्टो चाहती थीं कि मुर्तजा को सिंध का मुख्यमंत्री बना दिया जाए. बेनजीर और जरदारी ने इसके जवाब में नुसरत को पीपीपी के चेयरमैन पद से हटा दिया. अब तक जरदारी बेनजीर के जीवनसाथी से उनके राजनीतिक सलाहकार में तब्दील हो चुके थे. मुर्तजा की पाकिस्तान वापसी के करीब दो साल बाद सितंबर 1996 में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई. इस हत्या का आरोप जब जरदारी पर लगा तो ज्यादातर लोगों को हैरानी नहीं हुई. समूचे पाकिस्तान के मन में एक ही सवाल था. आखिर ऐसा कैसे हो सकता है कि प्रधानमंत्री का सगा भाई पुलिस मुठभेड़ में मारा जाए? बात साफ थी कि बिना राजनीतिक नेतृत्व की मर्जी के ऐसा नहीं हो सकता था. हर कोई इस बारे में चर्चा कर रहा था कि कैसे मुठभेड़ के बाद बिना कोई समय गंवाए उस जगह को पूरी तरह साफ कर दिया गया था.Zardarileaves a court in 1998

आज पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन चुके जरदारी को अपने खिलाफ मामलों के खुलने की चिंता न के बराबर होगी क्योंकि उन्होंने पहले से ही इसका प्रबंध कर लिया है. हालांकि कुछ लोग अब भी ये मानते हैं कि जरदारी अपने अतीत से पीछा कभी नहीं छुड़ा सकते. द डेली टाइम्स के प्रधान संपादक नजम सेठी कहते हैं, अतीत उनसे किसी जोंक की तरह चिपका हुआ है. मगर उन्होंने सत्ता के सफर में इसका बोझ खत्म करके असाधारण राजनीतिक दक्षता का परिचय दिया है.” 

बात कुछ हद तक सही भी लगती है. जरदारी कितने कुशल हो चुके हैं इसका अंदाजा इस बात से मिल जाता है कि स्विटजरलैंड सरकार ने भी उनके खिलाफ मामला बंद कर दिया. घरेलू मोर्चे पर उनकी पत्नी ने उनकी मुसीबतें खत्म करने के लिए आखिरी बड़ा काम तब किया जब अपनी पाकिस्तान वापसी पर सौदेबाजी करते हुए उन्होंने मुशर्रफ को विवादास्पद नेशनल रिकंसिलिएशन आर्डिनेंस के लिए राजी कर लिया. इसके तहत उनके और जरदारी के खिलाफ चल रहे सारे मामले वापस ले लिए गए.

जरदारी का ये कौशल ये भी दर्शाता है कि उन्होंने राजनीति में डूबी अपनी पत्नी को देखकर भी काफी कुछ आत्मसात किया. कुछ समय पहले तहलका के साथ एक साक्षात्कार में जब हमने जरदारी से वंशवादी राजनीति के बारे में पूछा था तो उन्होंने कहा था कि ऐसे परिवारों में लोग बेहतरीन उस्तादों द्वारा तालीम पाते हैं. आखिरकार इंदिराजी ने नेहरू साहब से प्रशिक्षण पाया था और उनके लिए उनसे बड़ा उस्ताद दूसरा कोई नहीं हो सकता था. फिर इंदिराजी ने राजीव और संजय को सिखाया और राजीव ने राहुल और प्रियंका को. बिलावल और मेरे दूसरे बच्चों के लिए मोहतरमा से बड़ा उस्ताद कौन हो सकता था? उन्होंने उनके कदमों तले तालीम पाई है.

साक्षात्कार के दौरान जरदारी ने गांधी परिवार का उल्लेख दो बार किया था. उस समय उन्होंने पीपीपी की कमान संभाली ही थी और सोनिया गांधी से अपनी तुलना पर उन्होंने कहा था, मैं सोनिया गांधीजी जितना बड़ा कभी नहीं हो सकता. उन्होंने बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को मार्गदर्शन दिया है. मैं तो अभी शुरुआत ही कर रहा हूं. इसलिए मैं शायद ये उम्मीद या इच्छा नहीं कर सकता कि मेरी तुलना इतनी महान महिला से की जाए.दिलचस्प है कि सोनिया गांधी ने खुद को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष होने तक सीमित कर लिया और जरदारी कुशलता से आगे बढ़ते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए.

जरदारी ने अपने सफर के इस हिस्से में इतनी कुशलता का परिचय दिया कि दो बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ भी मात खा गए.

मगर सवाल उठता है कि राष्ट्रपति का पद क्यों? एक कारण तो साफ है: पाकिस्तान में राष्ट्रपति को कानून से सुरक्षा मिलती है. मगर फिर सवाल उठता है कि जरदारी को तो इसकी जरूरत ही नहीं क्योंकि वो हर मुश्किल को पहले ही खत्म कर चुके हैं. उनके करीबी लोग बताते हैं कि पाकिस्तान की राजनीति में हर खिलाड़ी की ये प्रवृत्ति होती है कि वो ज्यादा से ज्यादा शक्तियां अपने हाथ में लेने की कोशिश करता है. जैसा मुशर्रफ पिछले नौ सालों से कर रहे थे. दूसरी बात ये है कि जरदारी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे क्योंकि वो स्नातक ही नहीं हैं जिसके बिना कोई भी पाकिस्तानी नागरिक नैशनल असेंबली का सदस्य ही नहीं हो सकता. उनके करीबी ये भी बताते हैं कि जरदारी को अपनी सुरक्षा की भी चिंता है. राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के दौरान जरदारी इस्लामाबाद स्थित अपना घर छोड़कर प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के आधिकारिक आवास में रहने लगे थे. बेनजीर की हत्या से बुरी तरह हिल चुके जरदारी अपनी और अपने बच्चों की सुरक्षा क लेकर बेहद चिंतित थे.Mr President Zardari,flanked by daughtersBakhtawar (left) andAsifa, addresses MPs

जरदारी ने राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रतिद्वंदियों को भारी अंतर से हराया और उनकी इस जीत को लोकतांत्रिक और विश्वसनीय कहा जा रहा है. वे पाकिस्तान के पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं जो इस तरह से चुने गए हैं. उनके पास सरकार और सैन्य प्रमुख को बर्खास्त करने और अहम नियुक्तियों की शक्ति है. नौ सितंबर को शपथ ग्रहण समारोह के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में उनका कहना था, मेरी शक्तियां कम करना संसद के हाथ में है. संसद की अहमियत राष्ट्रपति से ज्यादा होगी.मगर पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और तहरीके-इंसाफ पार्टी के अध्यक्ष इमरान खान कहते हैं, जरदारी ने अपने फायदे के लिए देश की संप्रभुता को दांव पर लगा दिया है.पूर्व पीपीपी सीनेटर और स्तंभकार शफकत महमूद कहते हैं, जरदारी एक राजनीतिक पार्टी के मुखिया भी हैं जबकि राष्ट्रपति को राजनीति और विवादों से दूर रहना चाहिए.

साफ तौर पर लगता है कि जरदारी ने अपनी पत्नी के अनुभवों से सबक सीखा है जिन्हें दो बार प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया गया था. बेनजीर अक्सर शिकायत किया करती थीं कि उनके पास पद तो है मगर शक्ति नहीं. जरदारी ने सुनिश्चित किया है कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत न रहे. आज अगर नवाज शरीफ ये कह रहे हैं कि जरदारी ने उन्हें धोखा दिया है तो ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वो जरदारी की उस रणनीति को समझ नहीं पाए जिसके तहत उन्होंने मुशर्रफ को तो हटा दिया मगर बर्खास्त जजों की बहाली नहीं की. इनमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी भी शामिल हैं जो अगर बहाल हो जाते तो विवादास्पद नेशनल रिकंसिलिएशन आर्डिनेंस को रद्द कर सकते थे जिसके तहत जरदारी पर लगे आरोप हटा लिए गए थे.

जरदारी के विवादास्पद अतीत से कहीं ज्यादा उनके देशवासियों को उन शक्तियों से डर लग रहा है जो उन्हें मिल गई हैं. कराची स्थित जाने-माने राजनीतिक अर्थशास्त्री अकबर जैदी कहते हैं, भ्रष्टाचार की तो कोई परवाह ही नहीं करता क्योंकि पाकिस्तान में हर कोई भ्रष्ट है. मगर संसदीय व्यवस्था वाले इस देश में वो बतौर राष्ट्रपति कुछ ज्यादा ही शक्तिशाली हो गए हैं. ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना सबक बहुत जल्दी सीख लिया है. वे लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुशर्रफ हैं. ये एक आश्चर्य है कि ये देखने के बाद भी कि 1999 में तख्तापलट के बाद मुक्तिदाता करार दिए गए मुशर्रफ का हश्र क्या हुआ, कोई इस पद पर बैठना चाहेगा. जरदारी को अब खुद को मुक्तिदाता साबित करना होगा.नजम सेठी भी कुछ यही बात दोहराते हुए कहते हैं, उनकी सबसे बड़ी चुनौती कट्टरपंथ से उपजे आतंकवाद का मुकाबला करने की है. घर में स्थिरता और भारत व अमेरिका से अच्छे रिश्ते इसी बात पर निर्भर करेंगे. अर्थव्यवस्था को संकट से उबरना भी इसी बात पर टिका है.”

आतंकवाद और आर्थिक संकट दो ऐसे मुद्दे हैं जिनपर तुरंत कुछ किए जाने की जरूरत है. इस साल फरवरी में हुए चुनाव मुशर्रफ के खिलाफ जनादेश साबित हुए जिनकी अमेरिका का पिट्ठू बनने के लिए काफी समय से आलोचना हो रही थी. जरदारी को भी इसी अहम इम्तहान से गुजरना होगा. पाकिस्तान को अमेरिकी मदद की जरूरत है और इसलिए वह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में अमेरिका का विरोध करने की स्थिति में नहीं है. और ये वही कारक है जिसने मुशर्रफ को बेहद अलोकप्रिय बना दिया था. मुशर्रफ का कोई राजनीतिक प्रतिद्वंदी नहीं था क्योंकि उन्होंने ऐसी सारी शख्सियतों को निर्वासित कर दिया था. जरदारी के सामने नवाज शरीफ हैं जो ये देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि बर्खास्त जजों की बहाली के मुद्दे पर जरदारी क्या करते हैं. हो सकता है वे सबको हैरानी में डालते हुए इफ्तिखार चौधरी को बहाल कर दें मगर ज्यादातर लोगों को इसकी संभावना कम ही लगती है.

मुशर्रफ की नौ साल की तानाशाही के बाद जरदारी की जनसंपर्क मशीनरी दिन-रात एक कर उन्हें ऐसे राष्ट्रपति के रूप में पेश करने की कोशिश में लगी है जिसे लोगों ने चुना है. यहां तक के सफर में उनकी तकदीर की बड़ी भूमिका रही है. अब उनके पास एक दुर्लभ मौका है. यहां से वे जो भी करेंगे उस पर तकदीर से ज्यादा उनकी मर्जी की मुहर होगी. आसिफ अली जरदारी के अजीब मगर असाधारण घटनाओं से भरे सफर के आखिरी अध्याय में अब भी कई मोड़ बाकी हैं.

हरिंदर बवेजा