देश के संविधान ने नागरिकों से जो वादे किए थे, जो लक्ष्य रखे थे, उनमें से बहुत सारे पूरे हुए हैं, बहुत कुछ नहीं पूरे हुए. यह बड़ा सवाल है कि उनका विश्लेषण करके देखा जाए कि क्या पूरा हुआ है और क्या नहीं. मोटी सी बात है कि एक पहला वादा यह था कि गरीबी दूर होगी, अशिक्षा दूर होगी, सबको बराबरी का हिस्सा मिलेगा, लेकिन यह सब पूरा नहीं हुआ है. न गरीबी दूर हुई, न अशिक्षा दूर हुई. यह लक्ष्य अभी बहुत दूर हैं. बहुत सारी चीजें हैं जो अभी नहीं पूरी नहीं हो सकी हैं. अगर संविधान और वर्तमान परिस्थितियों का ढंग से विश्लेषण किया जाए तो स्थितियां साफ होंगी.
संविधानसभा में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि जो संविधान हम बनाने जा रहे हैं, हमें ये आशा है कि उसके सहारे गरीबी दूर होगी, पिछड़ापन दूर होगा, हर एक भारतीय के सर पर छत पर होगी, सबके तन पर कपड़ा होगा. अगर संविधान ये सब नहीं कर सका तो संविधान मेरे लिए कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं होगा. उस आधार पर अगर जांचें तो असफलता ही असफलता नजर आएगी. लेकिन इस संविधान के अंतर्गत हमारी उपलब्धियां भी बहुत हैं. दोनों ही पक्ष हैं, उपलब्धियां भी हैं, असफलताएं भी हैं.
उन सारे लक्ष्यों को पाने के प्रयास चल रहे हैं. हर सरकार अपने हिसाब से प्रयास करती है. मौजूदा सरकार भी प्रयास कर रही है. और हमें आशा करनी चाहिए कि वह अच्छा कर पाएगी. हमारा देश बहुत बड़ा है, बहुत बड़ी आबादी है, विविधताएं हैं, हितों के संघर्ष हैं, सबको देखते हुए समय लग सकता है लेकिन जो वर्तमान सरकारें हैं, उनकी दिशा ठीक है. देर जरूर लग रही हैं. वर्तमान सरकार से जनता में इतनी आशाएं पैदा हो गई हैं कि सबको लगता है कि देर हो रही है, जल्दी होना चाहिए, बहुत कुछ और होना चाहिए.
संविधान दिवस या आम्बेडकर दिवस मनाया जा रहा है लेकिन केवल दिवस मनाने से कुछ होने वाला नहीं है. हमारे देश में उत्सव मनाने की, भाषण देने की और जलसे करने की प्रवृत्ति बहुत बलवती है लेकिन जब जमीन पर काम करने की बात आती है, वहां हम लोग पिछड़ जाते हैं
लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है. इसमें ऐसा नहीं कह सकते कि यात्रा का अंत हो गया, ऐसा नहीं हो सकता. यह यात्रा ऐसी है कि चलती रहती है, जब तक लोकतंत्र सुरक्षित है, तब तक हमें आशावान रहना चाहिए.
यह जो सेक्युलरिज्म या समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की बातें उठ रही हैं, मैं समझता हूं कि यह कोई मुद्दा नहीं है. इन शब्दों को हटा देने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है. पूरे संविधान की मूल भावना ये है कि किसी भी नागरिक के साथ जाति के आधार पर या मजहब के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं कहा जा सकता. वर्तमान सरकार की जो नीतियां हैं, वे समाजवादी तो किसी तरह से नहीं हैं. तो उन शब्दों को हटाएं या न हटाएं उनसे कोई फर्क नहीं पड़ता. सवाल यह है कि अगर समाजवाद को आप बेसिक फीचर मानते हैं तो समाजवादी नीतियां होनी चाहिए. समाजवादी नीतियों को तो गुडबाय कह दिया गया है. तो ये शब्द संविधान में पड़े रहें या हटा दिए जाएं, कोई अर्थ नहीं हैं.
संविधान दिवस या आम्बेडकर दिवस मनाया जा रहा है लेकिन केवल दिवस मनाने से कुछ होने वाला नहीं है. हमारे देश में उत्सव मनाने की, भाषण देने की और जलसे करने की प्रवृत्ति बहुत बलवती है लेकिन जब जमीन पर काम करने की बात आती है, वहां हम लोग पिछड़ जाते हैं. आप संविधान की बात कर रहे हैं, संविधान में एक भाग है नागरिकों के मूल कर्तव्य. सबसे पहला मूल कर्तव्य है कि प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य होगा कि वह संविधान का अनुसरण करे और संविधान के आदर्शों और संविधान की संस्थाओं का आदर करे. लेकिन हमारे देश में 99 फीसदी लोगों को मालूम ही नहीं है कि संविधान किस चिड़िया का नाम है. क्या संविधान है भारत का, क्या नागरिकों के अधिकार हैं, क्या मूल कर्तव्य हैं. भयंकर सांविधानिक निरक्षरता है. जो पढ़े लिखे लोग हैं, उनमें भी सांविधानिक निरक्षरता है. सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि बजाय जलसे करने और भाषण देने के, कोई ऐसी योजना सामने आनी चाहिए कि जिसके द्वारा देश के हर गांव में, हर घर में, हर व्यक्ति को संविधान के बारे में जागरूक किया जाए. सांविधानिक साक्षरता दिवस के रूप में व्यापक आंदोलन चलाया जाना चाहिए.
(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव व संविधान विशेषज्ञ हैं )