श्रीनगर का नवपुरा इलाका. मार्च, 2012 का एक दिन. दोपहर के तीन बज रहे थे. 70 वर्षीय वली मोहम्मद अपनी लकड़ी के फर्नीचर बनाने वाली दुकान में काम करने के बाद खाना-खाने घर आए थे. अभी खाना परोसा ही जा रहा था कि दरवाजे पर किसी के ठकठकाने की आवाज आई. वली दरवाजा खोलने के लिए बाहर आए. दरवाजा खोला तो सामने 35-36 साल का एक नौजवान, एक महिला और तीन बच्चों के साथ, पीठ पर एक बड़ा-सा बैग लादे खड़ा था. महिला ने गोद में एक बच्ची को उठा रखा था. उनके दरवाजा खोलते ही सामने खड़े व्यक्ति ने झटके से बैग नीचे फेंका. महिला और बच्चों को पीछे छोड़कर वह उनसे लिपटते हुए फफक-फफककर रो पड़ा. वली हक्का-बक्का रह गए. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा है? रोने की आवाज सुनकर उनकी बड़ी बहू के साथ ही आस-पड़ोस के लोग वहां इकट्ठा हो गए. रोते-रोते ही उस युवक ने कश्मीरी में कुछ कहा. जिसका मतलब था, ‘मुझे माफ कर दो, मुझसे गलती हो गई थी, मैं सबकुछ छोड़कर अब आपके पास आ गया हूं.’ वली ने उस व्यक्ति से उसका नाम पूछा. जवाब मिला, ‘जहांगीर.’ वली को लगा उन्होंने कुछ गलत सुना है. उन्होंने दोबारा पूछा. उसने फिर अपना नाम दोहराया. सुनते ही वली उसे गले लगाकर जोर-जोर से रोने लगे. रोते हुए ही आसपास जमा हो चुके लोगों की तरफ देखते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरा जहांगीर आ गया. मेरा बेटा. सब कहते थे तू कभी नहीं आएगा लेकिन मैं जानता था तू एक दिन जरूर आएगा. अब मैं सुकून से मर सकूंगा.’
आसपास के लोगों ने वली मोहम्मद को संभाला. उन्हें सहारा देते हुए घर के अंदर ले गए. थोड़ा सामान्य होने के बाद वली ने साथ आई महिला और बच्चों के बारे में पूछा. जहांगीर ने बताया, ‘ यह आपकी बहू और पोते-पोतियां हैं.’ वली ने बच्चों को गले से लगा लिया. आंखों से आंसू थे कि थम ही नहीं रहे थे.
बीते कुछ महीनों में श्रीनगर और कश्मीर के दूसरे इलाकों में ठीक इसी तरह के कई वाकये देखने और सुनने को मिले. हर बार पिता व बेटे के नाम बदल गए पर उनकी अनपेक्षित मुलाकातों में भावनात्मक तीव्रता का उफान एक जैसा ही रहा. ऐसा जैसे अब उनकी जिंदगी पूरी तरह बदलने वाली है. तो आखिर ऐसा क्या खास था इन मुलाकातों में? ये लोग कौन थे? आखिर क्यों इनकी वापसी की उम्मीद किसी को नहीं थी? और बाद में क्या हुआ? इन सवालों के जवाब खोजने के लिए हम एक बार फिर जहांगीर से बात शुरू करते हैं.
सन् 1990. मार्च की 20 तारीख. वली मोहम्मद के तीन बच्चों में से सबसे छोटा बेटा जहांगीर तब तकरीबन 14 साल का रहा होगा. उस दिन जहांगीर के दोस्त उस्मान के एक रिश्तेदार के घर शादी थी. उस्मान जहांगीर को लेकर शादी में शामिल होने गया था. शादी में उस्मान को दूल्हे के लिए माला लाने भेजा जाता है. वे दोनों स्कूटर से बाजार की तरफ निकल पड़ते हैं. रास्ते में उस्मान जहांगीर को माला लेने से पहले एक और जगह चलने के लिए कहता है. यहां कुछ लोग उससे मिलना चाहते हैं. जहांगीर तैयार हो जाता है. श्रीनगर के उत्तरी इलाके में बने इस घर में उसकी मुलाकात यहां पहले से इकट्ठा करीब दर्जन भर लोगों से होती है. इस घटना के दो दिन बात सुबह जब वली सोकर उठते हैं तो उन्हें घर में कहीं जहांगीर दिखाई नहीं देता. उस दिन को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘ मैंने सोचा कि वह कहीं बाहर दोस्तों के साथ घूमने चला गया होगा. शाम तक आ जाएगा. खैर शाम से रात और रात से सुबह हो गई लेकिन जहांगीर का कहीं कोई अता-पता नहीं चला.’ थक-हारकर उन्होंने पुलिस में अपने बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज करवा दी. दिन, महीनों में तब्दील होते गए लेकिन जहांगीर की कोई खबर नहीं मिली.
करीब आठ महीने बाद वली के पास एक चिट्ठी आती है. इसकी इबारत पढ़कर उनके होश उड़ जाते हैं. चिट्ठी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मुजफ्फराबाद से आई थी. यह जहांगीर की थी. उसने लिखा था कि वह मुजफ्फराबाद से करीब सौ किलोमीटर दूर हिजबुल मुजाहिद्दीन (एचएम) के एक ट्रेनिंग कैंप में है. यहां उसके जैसे ढेर सारे लड़के हैं. उसका दोस्त उस्मान भी यहां है. उसने रफीक भाई की शादी के दिन कुछ लोगों से उसे मिलवाया था. उन्हीं के साथ वह यहां आया है. यहां उसे बंदूक चलाना और जेहाद करना सिखाया जा रहा है. वली बताते हैं, ‘चिट्ठी में लिखा था कि उसे अपने कश्मीर को भारत से आजाद कराना है. अब और गुलामी नहीं सहनी. यह काम सिर्फ हथियार से ही हो सकता है.’
जहांगीर के घर छोड़ने के ठीक बीस साल बाद एक और घटना हुई जहां उन्हें फिर उम्मीद की एक किरण दिखाई दी. 2010 में जम्मू कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर एक नीति बनाई थी. इसका मकसद था पूर्व आतंकवादियों का पुनर्वास करना. नीति में कहा गया था कि जम्मू कश्मीर के वे लोग जो नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार करके आतंकवादी प्रशिक्षण लेने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर गए हैं यदि अब उनका हृदय परिवर्तन हो गया हो और वे आतंकी गतिविधियां छोड़कर वापस अपने घर आना चाहते हैं तो सरकार उन्हें आने की इजाजत देगी. इसके साथ ही उनका पुनर्वास भी किया जाएगा. इसके तहत यह नियम बनाया गया कि पूर्व आतंकवादी जो पाकिस्तान से वापस आना चाहते हैं उनके परिवार वालों को संबंधित जिले के एसपी के सामने उसके समर्पण का आवेदन देना होगा. उस आवेदन का खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां विश्लेषण करेंगी. उनसे हरी झंडी मिलने के बाद उस व्यक्ति की घर वापसी का रास्ता साफ हो जाएगा. सरकार की इसी योजना के तहत 22 साल बाद जहांगीर अपने घर वापस आए हैं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक 855 लोग जिनमें आतंकवादी और उनके परिवार भी शामिल हैं, इस दौरान पाकिस्तान से जम्मू कश्मीर आ चुके हैं. इनमें 277 पुरुष, 140 औरतें और 438 बच्चे शामिल हैं. हालांकि सूत्रों की मानें तो आने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों से काफी ज्यादा है. इनके मुताबिक पिछले कुछ सालों में कश्मीर में लगभग 1,500 से ज्यादा पूर्व आतंकवादी पाकिस्तान या पीओके से वापस अपने घर जम्मू कश्मीर आए हैं. लोगों के वहां से आने की शुरुआत योजना लागू होने से बहुत पहले हो गई थी. राज्य सरकार के मुताबिक पाकिस्तान में अभी-भी कश्मीरी मूल के तकरीबन तीन हजार पूर्व आतंकी मौजूद हैं. उनमें से लगभग एक तिहाई राज्य की पुनर्वास नीति के तहत घाटी में वापसी करना चाहते हैं.
जम्मू कश्मीर के लिए यह बिल्कुल नई परिघटना है. ऐसी जो राज्य के लिए बेहद आशावादी तस्वीर बनाती है. लेकिन तस्वीर का एक दूसरा और भयावह पहलू भी है. पूर्व आतंकवादी पुनर्वास की जिस आखिरी उम्मीद पर वापस आए हैं वह इस समय राज्य में उन्हें दूर-दूर तक पूरी होती दिखाई नहीं देती. इससे बड़ी विडंबना यह है कि आज की हालत में ज्यादातर पूर्व आतंकवादी अपने परिवार और राज्य में भी सबसे अवांछित व्यक्तियों में शामिल हो गए हैं. इसका नतीजा है कि वे अपने घर से दूर जिस त्रासदी से गुजर रहे थे, आज फिर उसी में आकर फंस गए हैं. आखिर इन लोगों की वापसी के साथ ये हालात क्यों बने? ये लोग किन-किन त्रासदियों के बीच जी रहे हैं? और इनका राज्य में भविष्य क्या है? इन सवालों के जवाब जानने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर किन परिस्थितियों में जहांगीर और उनके जैसे हजारों लोग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी प्रशिक्षण लेने गए थे और वहां उनका मोहभंग कैसे हुआ.
युवकों के आतंकवादी बनने का सफर
26 साल पहले सन् 1987 में राज्य विधानसभा के चुनावों में कथित धांधली होने की बात को लेकर पूरे जम्मू-कश्मीर में एक अभूतपूर्व गुस्से की लहर थी. पूरे सूबे में युवा सड़क पर उतर आए. राज्य की एक बडी़ आबादी का मानना था कि केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के प्रत्याशियों को फर्जीवाड़ा करके चुनाव हरवाया है.
1990 में सरहद पार गए और जून, 2012 में वापस आए पूर्व आतंकी एहसान उल हक कहते हैं, ’87 के चुनाव में धांधली ने सारा माहौल खराब कर दिया. युवाओं को लगा कि अब हथियार उठाने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचा है.’
हिजबुल मुजाहिद्दीन (एचएम) के संस्थापक सदस्य एवं श्रीनगर और बड़गाम जिले के कमांडर रहे हनीफ हैदरी (55 वर्ष) उस समय एक लोहे के कारखाने में वेल्डिंग का काम करते थे. वे बताते हैं, ‘मैंने उस चुनाव में मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट का जमकर प्रचार किया. यह उन इस्लामिक पृथकतावादी दलों का गठबंधन था जो अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कॉन्फ्रेंस को उखाड़ फेंकना चाहते थे. मैं उस चुनाव में सैयद मोहम्मद यूसुफ शाह का चुनाव प्रभारी था. यूसुफ शाह की जीत पूरी तरह पक्की थी लेकिन नतीजे आने पर उसे हारा हुआ बताया गया. यह नतीजा उस चुनाव में हुई भयानक धांधली का सबसे बडा उदाहरण था.’ यही यूसुफ शाह आगे चलकर एक बड़ा आंतकवादी सैयद सलाउद्दीन बना. उस समय चुनाव के बाद सलाउद्दीन को उसके कई साथियों समेत गिरफ्तार कर लिया गया. हैदरी को भी पुलिस ने उस समय हिरासत में ले लिया था.
हैदरी के मुताबिक, ‘ चुनाव में हुई धांधली ने स्थापित कर दिया कि भारत सरकार खुद चुनावों में विश्वास नहीं करती. उससे न्याय मिलने की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं. हमें समझ में आ गया कि कश्मीर पर कब्जा करके बैठी भारत सरकार को उखाड़ फेंकने का समय आ गया है. यह काम शांतिपूर्वक और लोकतांत्रिक तरीके से नहीं हो सकता था क्योंकि इसका हश्र हम देख चुके थे. उसके बाद पूरे कश्मीर में यह नारा गूंजने लगा – हमें इलेक्शन और सलेक्शन नहीं चाहिए. हमें आजादी चाहिए. आजादी से कम कुछ भी मंजूर नहीं.
हथियारों के दम पर भारत सरकार को कश्मीर से खदेड़ने और कश्मीर को आजाद कराने के उद्देश्य से युवा सरहद पार पीओके और पाकिस्तान में पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा संचालित आतंक के ट्रेनिंग कैंपों में जाने लगे. 1988-89 तक आते-आते कश्मीर की आजादी को लेकर जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ ) से जुड़े चरमपंथी पाकिस्तान जाकर ट्रेनिंग करके और वहां से हथियारों से लैस होकर वापस कश्मीर आ चुके थे. 30 जुलाई, 1988 को श्रीनगर के टेलीग्राफ ऑफिस को बम से उड़ाकर जेकेएलएफ के चरमपंथियों ने कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू होने की औपचारिक घोषणा कर दी थी.
पू्र्व आंतकी सैफुल्ला फारुख उस दौर को याद करते हैं, ‘तब पूरे कश्मीर में दो नारे हर एक की जुबां पर छाए हुए थे. पहला यह कि हम क्या चाहते आजादी और दूसरा, पाकिस्तान जाएंगे, क्लाशनिकोव लाएंगे.’
जहांगीर श्रीनगर के अपने घर से पाकिस्तान के आतंकी प्रशिक्षण शिविर तक पहुंचने का अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं, ‘ मैंने किसी को अपने घर में नहीं बताया था कि मैं पाकिस्तान जा रहा हूं. जाने वाली रात हम कुल 65 के करीब लोग थे. श्रीनगर से हम 20 लोग थे. बाकी जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों से थे. अधिकांश लड़के गांवों से थे. हम रात को निकले. कुपवाड़ा बॉर्डर से पाकिस्तान में हमें दाखिल होना था. पहाड़ और जंगलों से होते हुए हम आगे बढ़ रहे थे. रास्ते में कई लड़कों की हिम्मत जवाब दे गई. कुछ इतना थक गए थे कि आगे जाने की स्थिति में नहीं रहे. वे वहीं रुक गए. पांच लड़के रास्ते में पहाड़ों पर चढ़ते हुए फिसल कर नीचे गिर कर मर गए. दो लड़के रास्ते में आर्मी स्नाइपर्स की गोलियों से मारे गए.’ जहांगीर याद करते हुए बताते हैं कि कैसे रास्ते में सात लोगों की मौत के बाद उनके गाइड ने सभी लड़कों से कुरान की आयतें पढ़ने के लिए कहा था. इस तरह चार दिन के बाद ये लोग पीओके स्थित दूध निहार बॉर्डर पहुंचे और वहां से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर. इसके बाद जहांगीर व उनके साथियों को मुजफ्फराबाद ले जाया गया. मुजफ्फराबाद पहुंचने के बाद उन्हें एक ट्रक में चढ़ने को कहा गया.
जहांगीर बताते हैं, ‘हम सबके हाथ बांधकर आंखों पर काली पट्टी बांध दी गई थी. मुझे याद है उसके बाद हमें एक-एक कर ट्रक के अंदर चढ़ा दिया गया. ट्रक में शायद बैठने के लिए कुछ नहीं था. हम सब खड़े थे. ट्रक स्टार्ट हुआ और चल पड़ा. हमें पता नहीं था कि हमें कहां ले जाया जा रहा है. रास्ते में कई लड़कों ने ट्रक में उल्टियां कर दी. अंदर हमारा दम घुट रहा था. लगभग आठ घंटे के लगातार चलने के बाद ट्रक एक जगह रुका. हमें एक-एक कर उतारा गया. हाथ और आंखें खोल दी गईं.’
इन लोगों को हिजबुल मुजाहिद्दीन के ट्रेनिंग कैंप में ले जाया गया. यह दीनी कैंप था. उस समय को याद करते हुए जहांगीर कहते हैं, ‘जब हमारी आंख खुली तो सामने आर्मी के मिलेट्री कैंपों की तरह एक बड़ा कैंप दिखाई दिया. हमें नहीं पता था कि हम इस वक्त कहां हैं. वहां पर 10 हजार के करीब कश्मीरी लड़के थे.’ वे बताते हैं कि कैंप का जीवन बहुत मुश्किल था. लेकिन वे इसके लिए तैयार थे क्योंकि उनके कश्मीर की आजादी का रास्ता यहीं से होकर निकलना था.
पीओके के इस कैंप में अगले तीन महीने तक जहांगीर और उनके साथियों की ट्रेनिंग हुई. इन्हें बम बनाने और चलाने से लेकर, एंटी एयरक्राफ्ट गन चलाना, और गुरिल्ला यद्ध के तौर-तरीके आदि सिखाए गए. इसके बाद 25 लड़कों के एक समूह के साथ जहांगीर को आगे की ट्रेनिंग के लिए अफगानिस्तान भेज दिया.
पाकिस्तान से मोहभंग और उसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन
जहांगीर पाकिस्तान-अफगानिस्तान में ट्रेनिंग लेने गए पहली पीढ़ी के युवकों में से नहीं थे. उनके इन कैंपों में पहुंचने के दो-तीन साल पहले से जम्मू कश्मीर के युवक वहां जाकर ट्रेनिंग ले रहे थे. इस समय तक हैदरी अफगानिस्तान में छह महीने का प्रशिक्षण पूरा कर मुजफ्फराबाद में रहने लगेे थे. यह 1989 की बात थी जब उन्हें एक नए आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन (एचएम) बनाने के बारे में बताया गया. तब तक जेकेएलएफ आतंकवादियों का सबसे प्रभावशाली संगठन था. इसका घोषित मकसद कश्मीर की आजादी. जमात ए इस्लामी से जुड़े हिजबुल मुजाहिदीन के उदय ने इस पूरी लड़ाई को अपेक्षाकृत धर्मनिरपेक्ष हथियारबंद सशस्त्र संघर्ष के बजाय इस्लामी और पाकिस्तान समर्थित बना डाला. कुछ महीनों बाद ही हैदरी इस संगठन में कमांडर बने और श्रीनगर आ गए.
जेकेएलएफ और एचएम के बीच पनप रहे अंतर का असर ट्रेनिंग कैंपों में ट्रेनिंग पा रहे लड़ाकों पर भी पड़ा. पूर्व आतंकवादी बताते हैं कि कैंपों में पाकिस्तानी ट्रेनर एक सोची-समझी रणनीति के तहत श्रीनगर और कश्मीर की अन्य जगहों से आए लड़कों के बीच अलगाव पैदा करने का काम करते थे. दरअसल उनके लिए श्रीनगर से आए लड़कों को बरगला पाना आसान नहीं था. जबकि गांव के लड़कों को वे अपनी मर्जी से ढाल लेते थे. थोड़ा बहुत सोचने-समझने वाले लड़के आजादी के नाम पर चल रही इस लड़ाई के तौर तरीकों पर गाहेबगाहे सवाल उठाते रहते थे. जहांगीर बताते हैं, ‘पीओके के आम लोग भी कहते थे कि तुम लोग यहां आकर फंस गए हो. यहां कश्मीरियों को छोड़कर सभी को फायदा है. जेहाद के नाम पर फंड आ रहा है. धंधा चल रहा है. वे हमें सिखाते थे कि शिया काफिर हैं उन्हें मारना है. दरगाह और स्कूलों को खत्म करना है. मस्जिदों में बम फोड़कर लोगों में दहशत लाना है. मैं उनसे पूछा करता था कि मस्जिद में बम फेंकना कहां का जेहाद है. हम लोग तो यहां आजादी की लड़ाई लड़ने आए हैं.’ कई पूर्व आतंकवादी इस प्रचलित धारणा को भी गलत बताते हैं कि पीओके में पाकिस्तान का समर्थन है. उनके मुताबिक मीरपुर, रावलकोट, बाग-कोटली और पूंछ आदि में पाकिस्तान का भारी विरोध है.
इन्हीं दिनों एचएम ने खुले तौर पर जेकेएलएफ पर तंज कसने शुरू कर दिए. इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों संगठन एक दूसरे से संघर्ष की स्थिति में आ गए. सन् 1990 से 1993 के बीच दोनों संगठनों ने एक-दूसरे के 200 से अधिक लोगों को मार दिया. जेकेएलएफ ने उस समय आरोप लगाया था कि एचएम आईसआई के साथ मिलकर उसके लोगों को मार रहा है. हैदरी बताते हैं, ‘ एचएम का गठन बहुत सोच-समझकर किया गया था. इसका एक बेहद समर्पित और मजबूत वैचारिक आधार था. यही कारण है कि संगठन आज भी जिंदा है और लड़ रहा है. इसके पीछे हमारा उद्देश्य कश्मीर को भारत से अलग करके एक इस्लामिक राज्य बनाना था. हमारी रणनीति व्यापक थी. हमने सोचा था कि भारत को हराने के बाद पाकिस्तान में हमारी बड़ी भूमिका हो जाएगी. हम पाकिस्तान को पूरी तरह से एक इस्लामिक राज्य बना देंगे.’
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‘सैयद सलाउद्दीन तो सर्कस का शेर है, वह भी अधमरा’
जो भी कश्मीरी लड़के पाकिस्तान में कश्मीर की आजादी की बात करते हैं वेे लोग उन्हें बॉर्डर पर भेजकर मरवा देते हैं. वे कश्मीर की आजादी के खिलाफ हैं. जहां तक सलाउद्दीन (हिजबुल मुजाहिदीन का प्रमुख) की बात है तो देखिए कि उसके चारों बेटे यहां जम्मू कश्मीर में सरकारी नौकरी कर रहे हैं. चीफ कमांडर के बेटों को नौकरी मिल रही है, उनके पास पासपोर्ट है लेकिन जब आम कश्मीरी पासपोर्ट मांगता हैं तो सरकार कहती है नहीं देंगे, क्योंकि तुम्हारा दूर का रिश्तेदार पहले आतंकवादी था. यह किस तरह का न्याय है. सलाउद्दीन तो बस वहां बैठकर आईएसआई के आदेश पर बयान देने का काम करता है. वह सर्कस के शेर जैसा है. जिसकी एक टांग टूटी हुई होती है. गले में पट्टा होता है. वह पहले से ही अधमरा होता है. उसे नचाने वाला आता है और जब आकर पीछे हंटर मारता है तो वह दहाड़ना शुरु कर देता है.
हनीफ हैदरी, हिजबुल मुजाहिद्दीन के संस्थापक सदस्य
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सैफुल्लाह बताते हैं, ‘ इन संगठनों के लोगों ने आपस में एक दूसरे के इतने लड़कों को मारा है जितने सेना के हाथों भी नहीं मारे गए.’
इसके बाद एचएम के नेताओं के बीच आपसी लड़ाई शुरू हो गई. वह अलग-अलग गुट में बंटने लगा. हर दिन दो लोग मिलकर नया संगठन खड़ा कर लेते थे. एक समय के बाद तो ऐसी स्थिति हो गई कि पता नहीं चलता था कि कौन किसको मार रहा है. हैदरी कहते हैं, ‘ यह सबकुछ बेहद दुखद था. हम कश्मीर के लिए लड़ रहे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्यों हम एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं. क्यों संगठन लगातार कमजोर हो रहा है. इसके पीछे के कारणों को जानने मैं पाकिस्तान स्थित ट्रेनिंग कैंपों में गया. वहां की स्थिति देखकर मैं हैरान रह गया. वहां जाकर मेरा पाकिस्तान और सशस्त्र संघर्ष से मोहभंग हो गया. मुझे पता चला कि इस सब बर्बादी के पीछे आईएसआई और पाकिस्तान का हाथ है. वही कश्मीर में गुटबाजी के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार थे.’
ऐसा ही एक आतंकी ट्रेनिंग बेस कैंप जो मुजफ्फराबाद के पास था, में जब हैदरी पहुंचे तो उन्होंने पाया कि पाकिस्तानी एजेंसियों ने कैंप को आतंकवाद की फैक्ट्री में बदल दिया है. यहां हजारों की संख्या में अलग-अलग देश और नस्ल के लोग अलग-अलग पार्टियों के कैंप में ट्रेनिंग ले रहे हैं. इन लोगों के लिए विचारधारा का कोई मतलब नहीं था.
‘ मैंने 11 अलग-अलग कैंपों में 11 अलग संगठनों के लोगों को पाया. जब मैं इन संगठनों के कमांडरों से मिला और उनसे पूछा कि इतने संगठन क्यों बने हुए हैं. सब एक साथ क्यों नहीं हैं. तो उन्होंने मुझसे कहा कि हर संगठन की अपनी अलग धार्मिक और राजनीतिक विचारधारा है.’ हैदरी बताते हैं, ‘ इस तरह से वहाबियों के पास तहरीक उल मुजाहिद्दीन और लश्कर ए तैयबा था, शियाओं का हिजबुल मोहमिनीन तो सुन्नियों का हिजबुल मुजाहिद्दीन और हिज्ब ए इस्लामी था. इस तरह से तमाम ऐसे संगठन बने हुए थे. उस समय मैंने तय कर लिया कि मेरे जेहाद के दिन पूरे हो चुके हैं. मेरा आजादी की इस लड़ाई से मोहभंग हो चुका था. मैंने सब छोड़ दिया. ‘
हैदरी ही नहीं पाकिस्तान आए तमाम कश्मीरी नौजवानों का धीरे-धीरे पाकिस्तान की असलियत से सामना होने लगा. उन्हें समझ आने लगा कि उनको धोखा दिया जा रहा है. जिस देश को वे अपनी आजादी की लड़ाई में साथी मानकर चल रहे थे उसका इस समर्थन के पीछे अपना एजेंडा है. इनमें से ज्यादातर लड़के खुद को छला हुआ महसूस करने लगे. जल्दी ही इसकी प्रतिक्रिया भी यहां दिखाई देने लगी. हैदरी जानकारी देते हैं, ‘ मैंने वहां कश्मीरी लड़कों के लिए जम्मू और कश्मीर रिफ्यूजी वेल्फेयर एसोसिएशन शुरू की. दिन में मैं एक दुकान पर वेल्डिंग का काम करता और रात में पूर्व आंतकियों को बुलाकर उनके साथ मीटिंग करता. उनकी समस्याएं सुनता और यहां से कैसे निकल सकते हैं इस पर हम चर्चा करते.’ इन बैठकों में ही यह तय हुआ कि पाकिस्तान सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया जाएगा. फिर धीरे-धीरे पाकिस्तान के खिलाफ धरना-प्रदर्शन के आयोजन होने लगे. ये प्रदर्शन पाकिस्तान की कश्मीर में भूमिका और वहां रह रहे जम्मू कश्मीर के युवकों के साथ किए जा रहे बुरे सलूक के खिलाफ था.
पाकिस्तान ट्रेनिंग करने गए लोगों में से कई ऐसे थे जिन्होंने ट्रेनिंग खत्म होने के बाद हथियार डाल दिए. उन्होंने कैंप, आतंक और आजादी की लड़ाई दोनों से मुंह मोड़ लिया. कई ऐसे थे जिनका बढ़ते समय के साथ आजादी की लड़ाई की जमीनी हकीकत से सामना होने पर मोहभंग हो गया. इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि इस कथित आजादी की लड़ाई का संचालन पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के हाथ में था. हाल ही में पीओके से वापस लौटे मोहम्मद यूसुफ कहते हैं, ‘ मुझे वहां जाने के दो साल के भीतर ही समझ आ गया कि आईएसआई व पाकिस्तान का क्या एजेंडा है. मुझे पता चल गया कि इन लोगों को कश्मीर की आजादी से कोई मतलब नहीं है. भारत के खिलाफ लड़ाई में कश्मीर इनके लिए सिर्फ मोहरा भर है.’
वहीं कुछ समय के बाद ही वहां दूसरे आतंकी संगठनों के बीच भी आपसी लड़ाई शुरू हो गई. इन हालात में कुछ सालों के भीतर ही कई कश्मीरियों ने इस कथित आजादी की लड़ाई से किनारा कर लिया. 1995 तक पाकिस्तान और पीओके में ऐसे कश्मीरियों की संख्या काफी बढ़ गई जो लड़ाई छोड़कर बतौर शरणार्थी यहां रहने लगे थे. वे तभी से वापस अपने घर आना चाहते थे. लेकिन यह सोचकर उस दिशा में नहीं बढ़ पाते थे कि अगर वे ऐसा करते पकड़े जाते हैं तो आईएसआई और आतंकी संगठनों के लोग उन्हें मार डालेंगे और किसी तरह जान बचाकर भारत पहुंच गए तो भारत सरकार उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेगी.
इन लोगों द्वारा पाकिस्तान विरोध की शुरुआत होने के बाद उसका सबसे ज्यादा असर भारतीय हिस्से वाले कश्मीर में हुआ. यहां के युवाओं के सामने पाकिस्तान की असलियत खुल चुकी थी. लड़कों ने पीओके और पाकिस्तान जाना धीरे-धीरे बंद कर दिया. कश्मीर से जेहाद की ट्रेनिंग के लिए लड़के आने बंद हो गए. अब आलम यह हो गया कि 10-15 आतंकियों के समूह में कुल इक्का-दुक्का ही कश्मीरी होते थे. कश्मीरियों के मोहभंग को देखते हुए पाकिस्तान ने कश्मीर में पाकिस्तानी लड़कों को भेजना शुरू किया. लश्करे तैयबा जैसा संगठन जिसके पूरे कैडर में सभी पाकिस्तानी हैं, उसको आईएसआई ने कश्मीर में सक्रिय करना शुरू किया.
इस बीच अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले ने पाकिस्तान की हालत और खराब दी. अब उसे अफगानिस्तान के मोर्चे पर भी निपटना था. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का अलग दबाव था सो पाकिस्तान कश्मीर से दूर होता चला गया. हैदरी कहते हैं, ‘ हालत इतनी खराब हो गई कि पाकिस्तान में जेहाद के लिए चलने वाले कैंपों में राशन तक खत्म हो गया. जो अमीर पंजाबी कश्मीर में जेहाद के नाम पर पैसा और राशन भेजते थे उन्होंने अब तालिबान को सपोर्ट करना शुरू कर दिया था.’
पीओके में बने इन हालात का कश्मीर घाटी पर भी असर पड़ा. जानकार बताते हैं कि हिजबुल के समर्थन में आ रही गिरावट के कारण ही आज यह आलम है कि यहां एचएम पर लश्कर ए तैयबा भारी पड़ रहा है. हिजबुल को यहां कैडर नहीं मिल रहा है. सरकार इसे स्थानीय लोगों के आतंकवाद से मोहभंग होने के रूप में देखती है. आंकड़े बताते हैं कि आज घाटी में आतंक की घटनाएं पिछले 20 सालों में सबसे निचले स्तर पर हैं. दो साल पहले के आंकड़े बताते हैं कि साल 2011 की तुलना में 2012 में आतंकी हिंसा में जहां 26 फीसदी की कमी आई वहीं हताहत होने वालों की संख्या में 48 फीसदी की गिरावट आई है.
इन पूर्व आतंकवादियों की पूरी व्यथा समझने के लिए हम एक बार फिर जहांगीर की कहानी पर वापस चलते हैं. अफगानिस्तान पहुंचे जहांगीर को भी कुछ महीनों के भीतर ही यह पता चल गया था कि वे यहां अलग तरह से गुलाम बनाए जा रहे हैं. यहीं एक ऐसी घटना हुई जिससे जहांगीर का कैंप के जीवन से मोहभंग हो गया. इसबारे में वे बताते हैं, ‘ कश्मीर में किन-किन जगहों को निशाना बनाना है इसको लेकर दो पाकिस्तानी कमांडर हम 25 लड़कों की क्लास ले रहे थे. उन्होंने कहा कि भारतीय सेना की सप्लाई लाइन को काटने के लिए सबसे पहले हमें पुलों को निशाना बनाना पड़ेगा. मैंने खड़े होकर कहा कि ऐसा करना गलत होगा. इससे भारतीय सेना को कोई दिक्कत नहीं होगी. उन्हें सप्लाई पहुंचाने के लिए पुल की जरूरत नहीं है. अगर उन्हें इसकी जरूरत पड़ती भी है तो वे चंद घंटों में ही अपनी जरूरत के लिए आपातकालीन पुल तैयार कर लेंगे. ऐसे में अगर हम पुल उड़ाते हैं तो इससे कश्मीर की आम जनता को परेशानी और नुकसान उठाना पड़ेगा. अधिकारियों ने कुछ लोगों की तरफ इशारा करके मुझे बाहर निकालने को कहा. उन्होंने मुझे एक पेड़ से बांध दिया. मुझे यकीन हो गया था कि ये लोग अगले कुछ समय में मेरा गला काट देंगे. मैं बुरी तरह डर गया था. तभी मेरे कुछ कश्मीरी दोस्त मुझसे मिलने आए और कहा कि अब तुम्हारे बचने का एक ही उपाय है कि तुम खुद के पागल हो जाने का नाटक करो. अगले तीन दिनों तक मैं वहीं पेड़ से बंधा हुआ पाकिस्तान का राष्ट्रीय गीत और फिल्मी गाने गाता रहा. अमेरिका को गाली देता रहा. कमांडरों को पहले गाली देता फिर उनकी तारीफ करता.’
इसके बाद कमांडरों को भरोसा हो गया कि जहांगीर सच में पागल हो गए हैं. उनकी रस्सी खोल दी गई. फिर एक रात वे वहां से भाग निकले और कई महीनों तक मुजफ्फराबाद की एक मस्जिद में रहे. यहीं उनकी मुलाकात शफीक नाम के एक लड़के से हुई जिसने मुजफ्फराबाद ट्रेनिंग कैंप में उनके साथ ही ट्रेनिंग की थी. वह जेकेएलएफ से जुड़ा था. यह जानने के बाद कि जहांगीर संगठन में फिर वापस नहीं जाना चाहता शफीक उसे अपने घर ले गया. उसका घर पीओके के दक्षिण में स्थित कोटली जिले के सरसावां गांव में था. जहांगीर बताते हैं, ‘ शफीक अपने मां बाप का इकलौता लड़का था और वह जेहाद छोड़ना नहीं चाहता था. उसने अपने घरवालों से कहा कि वह जा रहा है लेकिन जहांगीर वहीं रहेगा. अगर उसे कुछ हो जाता है तो फिर जहांगीर को ही वे अपना बेटा मान लें.’ बकौल जहांगीर, ‘मैं वहां तीन साल रहा और इसी दौरान शफीक के मारे जाने की खबर भी हम लोगों को मिली. इसके बाद उन्होंने मुझे अपना बेटा ही मान लिया.’ शफीक के परिवार वालों ने ही उनकी शादी करवा दी. जहांगीर बताते हैं, ‘ वे लोग मुझे जान से ज्यादा प्यार करते थे लेकिन मुझे अपने घरवालों की बहुत याद आती थी. मैंने अपनी पत्नी को कह दिया था कि एक दिन मैं अपने घर वापस जाऊंगा.’
इन लोगों के घर वापसी के सपने के परवान चढ़ने की शुरुआत 2004 से मानी जा सकती है. तब भारत सरकार और तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के बीच लंबी बातचीत के बाद बॉर्डर पर स्थिति थोड़ी सामान्य होने लगी थी. नियंत्रण रेखा के आर-पार बसों की आवाजाही शुरू हो गई. इसके बाद से पाकिस्तान में बैठे इन लोगों की घर वापस की छटपटाहट और बढ़ गई.
पुनर्वास की नीति और पाकिस्तान से वापसी
पाकिस्तान से वापस अपने घर का सफर इन लोगों के लिए बेहद डरावना, खर्चीला और परेशान करने वाला रहा. जम्मू-कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर इनकी वापसी के लिए 2010 में जो नीति बनाई उसके तहत पूर्व आतंकवादियों के भारत में वापस आने के लिए चार रास्ते चिह्नित किए गए. ये थे- वाघा बॉर्डर, इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा (नई दिल्ली), उरी-मुजफ्फराबाद और पूंछ-रावलकोट. लेकिन सरकारी नीति की यह शर्त शुरुआत में ही पुनर्वास के इरादों पर बड़े सवाल खड़ा कर देती है. इससे जुड़ी सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि जितने पूर्व आतंकी पाकिस्तान से वापस जम्मू कश्मीर आए हैं उनमें से मुश्किल से कोई ही इन रास्तों से वापस आया हो. वजह यह कि पाकिस्तान इन रास्तों के जरिए इन लोगों को सीमापार नहीं करने देता. यदि ये किसी तरह छुपते-छुपाते भारतीय सीमा में दाखिल हो भी जाते हैं तो भारतीय सेना इन्हें अंदर नहीं आने देती.
पूर्व आतंकी असलम खान अपना ऐसा ही एक अनुभव साझा करते हैं, ‘मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रात के अंधेरे में छुपते-छुपाते भारतीय सीमा पर पहुंचा था. मैंने बीएसएफ के जवानों को बताया कि मैं एक पूर्व आतंकवादी हूं और सरकारी नीति के तहत वापस आया हूं. लेकिन मेरी हालत उस समय खराब हो गई जब बीएसएफ के अधिकारी ने मुझे चुपचाप वापस पाकिस्तान चले जाने को कहा.’ असलम के मुताबिक जवानों ने उनसे कहा कि यदि वे वापस नहीं गए तो उन्हें वहीं गोली मार दी जाएगी. उन्हें अपने परिवार सहित वापस लौटना पड़ा. वे बाद में नेपाल के रास्ते (सरकारी नीति में यह रास्ता अवैध है) जम्मू कश्मीर वापस आ पाए.
हालांकि, इक्का-दुक्का लोग ऐसे भी हैं जो किसी तरह से बचते-बचाते हुए सीमा पार करके वापस आने में सफल रहे हैं. हालांकि उनके लिए यह यात्रा कदम-कदम पर जानलेवा जोखिम से भरी रही. इन्हीं रास्तों से वापस आए सरफराज बताते हैं, ‘ हमारे पास नेपाल बॉर्डर से आने के लिए पैसा नहीं था. इस रास्ते से पहुंचाने के लिए एजेंट हमसे पांच लाख रुपये मांग रहे थे लेकिन मेरे पास पांच हजार रुपये तक नहीं थे. बॉर्डर क्रॉस करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं था. हम अपने घर आने के लिए मुजफ्फराबाद से रात में निकले. रात भर लगातार चलते रहे. उसी में बारिश हो गई और हम पूरी तरह से भीग गए थे. लेकिन हम रुके नहीं चलते रहे. रास्ते में हमें कहीं कोई पाकिस्तानी सैनिक नहीं मिला और हम पाकिस्तानी सीमा पार कर आए. जब तक हम भारतीय सीमा में दाखिल हुए तब तक उजाला हो चुका था. हालांकि कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था. रात भर चल कर हम लोग थक चुके थे तो सामने एक खेत में लगी फसल की आड़ में बैठ गए. अभी वहां हमें बैठे कुछ मिनट ही हुए थे कि कहीं कोई हूटर बजा और देखते-देखते हमें भारतीय सैनिकों ने घेर लिया. हमसे उन्होंने अगले तीन घंटे तक पूछताछ की. उसके बाद हमें पुलिस को सौंप दिया गया.’ सरफराज की पत्नी जाहिदा 15 दिन के बाद जमानत पर रिहा हो गईं. लेकिन सरफराज पर पुलिस ने जनसुरक्षा अधिनियम (पीएसए) लगाया था. वह छह महीने बाद जेल से बाहर आ पाए.
सरफराज की कहानी चंद अपवादों में से एक हैं. बाकी असलम जैसी कहानी लगभग हर उस व्यक्ति की है जिसने सरकार द्वारा तय किए गए या बॉर्डर के रास्तों से वापस आने की कोशिश की. जितने भी लोगों ने उन रास्तों से वापस आने की कोशिश की उन्हें वापस लौटा दिया गया. लेकिन ऐसा हुआ क्यों?
पूर्व आतंकी बशीर अहमद कहते हैं, ‘हमें भी नहीं पता. पाकिस्तान का तो समझ में आता है कि वह नहीं चाहेगा कि पूर्व आतंकवादी समर्पण करने के लिए भारत की सीमा में दाखिल हो क्योंकि इससे यह साबित हो जाएगा कि पाकिस्तान में आतंकवादी मौजूद है. उसने उन्हें पनाह दे रखी है. लेकिन भारत सरकार ने जब खुद ही हम लोगों की वापसी के लिए नीति बनाई है तो फिर वह क्यों चिह्नित रास्तों से हमें आने नहीं देती यह हमारी समझ के बाहर है.’
इस पूरे मामले में पाकिस्तान स्थित भारतीय उच्चायोग की भूमिका भी अजीबोगरीब है. जैसे ही लोगों को पता चला कि सरकार ने वापस जाने के लिए चार रास्ते चिह्नित किए हैं. इन लोगों ने पाकिस्तान स्थिति भारतीय उच्चायोग से संपर्क करना शुरू किया. इन्हें सूचना मिली थी कि वीजा, बाकी जरूरी दस्तावेज और भारत लौटने की अनुमति उन्हें वहीं से मिलेगी.
खैर, जहांगीर जैसे तमाम लोग उस समय हैरान रह गए जब इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायोग ने उनकी किसी तरह से मदद करने से इनकार कर दिया. पूर्व आतंकी एहसान कहते हैं, ‘उच्चायोग के अधिकारियों ने हमसे कहा कि हमें सरकार द्वारा चिह्नित चार रास्तों से घर जाने के बारे में सोचना छोड़ देना चाहिए. यह संभव नहीं है. उच्चायोग के लोगों ने वापस जाने का एक चौंकाने वाला तरीका बताया. उन्होंने कहा आप लोग ऐसा करो नेपाल के रास्ते चले जाओ. जब आप अपने घर पहुंच जाएंगे तो हम कागजी कार्रवाई वहीं पूरी करा लेंगे. आपके पुनर्वास का काम उसके बाद शुरू हो जाएगा.’
भारतीय उच्चायोग द्वारा मदद से इनकार करने और नेपाल के रास्ते भारत जाने की सलाह देने के बाद ये लोग इस बात पर विचार करने लगे कि आखिर कैसे नेपाल के रास्ते से भारत जा सकते हैं.
जहांगीर बताते हैं कि उनकी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो उन्हें नेपाल के रास्ते भारत पहुंचाने के लिए तैयार हो गए. लेकिन इसके लिए घर के हर सदस्य के हिसाब से एक लाख रुपये का खर्च था. पांच लोगों के लिए उन्हें पांच लाख रुपये देने पड़े. नेपाल के रास्ते से अपने घर कश्मीर आए पूर्व आतंकी हमीद पठान बताते हैं, ‘ वहां एजेंट नेपाल जाने के लिए वीजा के लिए एप्लाई करवाते हैं. हमें यह कहना होता है कि हम अपने रिश्तेदार की शादी के लिए जा रहे हैं या इलाज कराने या घूमने. इसके बाद नेपाल जाने के टिकट के साथ ही वापस पाकिस्तान आने का भी टिकट कटाते हैं ताकि उन्हें लगे कि सामने वाला जा रहा है तो वापस भी आएगा. जहांगीर जानकारी देते हैं, ‘ ये सारे काम कराने वाले एजेंट कराची में हैं. कराची एयरपोर्ट पर छोड़ने के बाद वे नेपाल में अपने एजेंट का नंबर और संपर्क आदि दे देते हैं.’ काठमांडू पहुंचने के बाद वहां एक दूसरा एजेंट मिलता है जो इन लोगों को नेपाल सीमा पार करवाकर गोरखपुर लाता है. इन एजेंटों को पहले से यह निर्देश होता है कि पाकिस्तान से आ रहे इन लोगों के पासपोर्ट वह अपने कब्जे में लेकर तुरंत नष्ट कर दे जिससे यह सबूत मिट जाए कि वे पाकिस्तान से आ रहे हैं. इसके बाद ये लोग ट्रेन से जम्मू पहुंचते हैं. पूर्व आतंकवादी वापसी और पुनर्वास की नीति के तहत आए हैं इसलिए जम्मू आते ही सीधे अपने क्षेत्र के थाने में जाकर रिपोर्ट करते हैं.
एक नई त्रासदी की शुरुआत
अभी तक वापस आए पूर्व आतंकियों के मन में इस बात की जरा भी शंका नहीं थी कि कश्मीर में एक और त्रासदी उनका इंतजार कर रही है. यूसुफ अपनी आपबीती सुनाते कि हुए कहते हैं, ‘वापस आने के बाद पुलिस ने मुझ पर पाकिस्तान से ग्रेनेड लाने का झूठा केस दर्ज कर दिया. हमें कई दिनों तक बड़गाम थाने में बंद रहना पड़ा. आप ही बताइए कोई पत्नी और चार बच्चों के साथ ग्रेनेड लेकर आएगा? पत्नी को कहा कि वह दूसरे मुल्क की लड़की है. बॉर्डर क्रॉस करके भारत आई है. जबकि हम दोनों नेपाल वाले रास्ते से बच्चों के साथ आए थे. मुझ से कहा गया मैं नेपाल से अवैध तरीके से भारत आया हूं. पत्नी का केस पिछले पांच सालों से चल रहा है. मैं कहता हूं गलती मैंने की मुझे सजा दो. उस बेचारी को क्यों परेशान कर रहे हो.’
पुनर्वास योजना के तहत आए लगभग सभी पूर्व आतंकियों और उनके परिवार वालों के साथ कुछ इसी तरह का सलूक हुआ है. जहांगीर कहते हैं, ‘ मैं भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ 11 दिनों तक श्रीनगर के एक पुलिस थाने में बंद रहा. उन्होंने हमारे पास मौजूद आखिरी 850 डॉलर भी अपने पास रख लिए. हमने उनसे कहा भी कि हम तो बीवी बच्चों के साथ आए हैं. हमारे पास कोई बंदूक भी नहीं फिर हमसे ऐसा सलूक क्यों किया जा रहा है.’ ये पूर्व आतंकवादी हर लिहाज से राज्य में सबसे आसान शिकार हैं. ऐसे लोगों को कानूनी मदद मुहैया करा रहे वरिष्ठ अधिवक्ता ताज हुसैन कहते हैं, ‘पुनर्वास तो दूर की बात है. सरकार इन्हें यहां शांति से रहने भी नहीं दे रही. अवैध तरीके से बॉर्डर क्रॉस करने, पासपोर्ट कानून का उल्लंघन करने से लेकर इग्रेस एंड इंटरनल मूवमेंट कंट्रोल ऑर्डिनेंस (बिना वैध दस्तावेजों के आवाजाही), दुश्मन एजेंट अध्यादेश, पीएसए जैसे तमाम कानूनों के तहत इन पर केस दर्ज कर दिए जाते हैं.
ऐसा ही एक मामला किश्तवाड़ के मुजम्मिल खान का है. वे जम्मू कश्मीर में हिजबुल मुजाहिद्दीन के ऑपरेशन कमांडर थे. वे बताते हैं, ‘ पुनर्वास की नीति बनने के बाद मैंने एके 47 और दो जिंदा मैग्जींस के साथ समर्पण किया था. आर्मी ने मुझे छोड़ दिया लेकिन पुलिस ने उठाकर जेल में डाल दिया. मैं तीन साल जेल में रहा. वहां से बाहर निकला तो आज तक पुनर्वास की बाट जोह रहा हूं. अभी घर चलाने के लिए मजदूरी करता हूं. हमारा भी पंजाब और उत्तर-पूर्व के पूर्व आतंकवादियों की तर्ज पर पुनर्वास किया जाना चाहिए.’
ऐसे भी कई मामले हैं जहां पूर्व आतंकवादियों के मुताबिक सेना और पुलिस के लोग खुद उनसे कहते हैं कि वे किसी बड़े हथियार के साथ सरेंडर करें ताकि उनका जल्दी और अच्छे से पुनर्वास हो. लेकिन यहां सरेंडर करने के बाद उन पर तमाम तरह के केस लाद दिए जाते हैं. ऐसा ही कुछ अब्दुल गनी के साथ हुआ. गनी के मुताबिक वे जब से आए हैं तब से पुलिस उन्हें कुछ हथियार और गोला बारूद के साथ ‘आत्मसमर्पण’ के लिए कह रही है. वे कहते हैं, ‘ मैं जानता हूं वे लोग अपनी पदोन्नति और मेडल के लिए यह सब कराना चाहते हैं. लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी करने के लिए मैं हथियार कहां ले आऊं?’
वापस आए लोगों में तमाम लोग ऐसे हैं जो बाहर पुलिस और सरकार की उपेक्षा और उत्पीड़न के साथ ही घरवालों से अलग स्तर पर जूझ रहे हैं. साल 2010 में जब मंजूर अहमद बड़गाम जिले के नरबल स्थित अपने घर पहुंचे तो कुछ दिनों तक सबकुछ ठीक रहा. आस-पड़ोस वालों से लेकर दूर तक के सारे रिश्तेदार उनसे मिलने आए. सभी ने उन्हें भविष्य के लिए शुभकामनाएं दी. लेकिन एक महीने में सबकुछ बदल गया. भाइयों ने अपनी व्यवस्था कहीं और कर लेने की बात कहनी शुरू कर दी. बकौल मूंजूर, ‘उन्होंने दबे छुपे शब्दों में यह कहना शुरु कर दिया कि 20 साल तक तो तुम यहां थे नहीं. तुम्हारी वजह से पुलिस और एजेंसी वाले हमें पीटते थे. अब तुम आ गए हो तो अपनी और अपने परिवार की व्यवस्था देखो.’
मंजूर, उनकी पत्नी और चार बच्चों को उनके भाइयों ने घर से बाहर निकाल दिया है. फिलहाल वे पूंछ जिले में एक किराए के मकान में रहते हैं. मंजूर के हिस्से की संपत्ति उनके भाइयों ने सालों पहले ही अपने नाम करा ली थी. पूर्व आतंकवादी सैफुल्ला बताते हैं, ‘ हमारी वापसी से सरकार खुश है या नाराज, यह तो पता नहीं लेकिन अधिकांश पूर्व आतंकवादियों के परिवार वाले, खासकर के उनके भाई वगैरह काफी नाराज हैं. दरअसल ये लोग इनके हिस्से की संपत्ति पहले ही अपने नाम करा चुके हैं. इन्हें विश्वास था कि पीओके गए लड़के कभी नहीं आएंगे. अब चूंकि इन लोगों की वापसी हो रही है तो इन्हें चिंता है कि कहीं वे संपत्ति में अपना हक ना मांगने लगे.’
इस बात से सरकार इनकार नहीं करती कि उसने पूर्व आतंकियों की वापसी के लिए जो नीति बनाई उसमें इनके पुनर्वास का आश्वासन है. लेकिन पिछले चार सालों में किसी एक व्यक्ति का भी सरकार ने पुनर्वास नहीं किया. पिछले साल जम्मू कश्मीर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष महबूबा मुफ्ती के एक प्रश्न के जवाब में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सदन को जानकारी दी थी कि बीते तीन सालों में 360 पूर्व आतंकी पाकिस्तान से अपने घर वापस जम्मू कश्मीर आए हैं और चूंकि सभी लोग सरकार द्वारा तय रास्ते के बजाय नेपाल के रास्ते से भारत आए हैं इसलिए इनमें से किसी का भी पुनर्वास नहीं किया गया. इन लोगों के प्रति राज्य सरकार का रुख आज तीन साल बाद भी बिल्कुल नहीं बदला है. तहलका ने इस मामले पर राज्य सरकार से कई बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन अभी तक हमें उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिली. ऐसे मामलों में राज्य मानवाधिकार आयोग से भी कुछ उम्मीद की जा सकती है लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग का रवैया बेहद हास्यास्पद है. आयोग के सदस्य रफीक फिदा सफाई देते हैं, ‘हमें तो इस मसले पर कुछ पता ही नहीं. पूर्व आतंकवादियों में से किसी ने हम से संपर्क नहीं किया.’
पूर्व आतंकवादी बताते हैं कि उनके लिए सरकार द्वारा तयशुदा रास्तों से वापसी मुमकिन ही नहीं है. सरकार के इस रवैए को सारे पूर्व आतंकवादी धोखाधड़ी करार देते हैं. एहसान उल हक सवाल उठाते हैं, ‘सरकार अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती है. इनसे पूछा जाना चाहिए कि हम लोग तय रूटों से आएं इसके लिए इन्होंने क्या किया? पाकिस्तान के साथ क्या इन्होंने इस संबंध में कोई बात की? अपने इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायोग को हमें वीजा और जरूरी कागजात मुहैया कराने के किए कहा? क्या बॉर्डर पर खड़ी सेना को इन्होंने कहा कि जो पूर्व आतंकी आत्मसमर्पण करने आ रहे हैं उन्हें आने दो? स्थिति यह रही है कि जो लोग पाकिस्तानी एजेंसियों से किसी तरह छुपते-छुपाते बॉर्डर तक पहुंचे उन्हें सेना के लोग वापस नहीं जाने की स्थिति में गोली मारने की धमकी देते हैं. ऐसे में सरकार का यह कहना है कि ये लोग निर्धारित रुटों से नहीं आए एक बेहद अमानवीय और भद्दा मजाक है.’
यूसुफ कहते हैं, ‘इस बात का क्या मतलब कि हम किस रूट से आए. अरे आ तो गए हैं. हमारा पुनर्वास करो. जब तक मैं यहां नहीं आया था. सेना और सीआईडी के लोग मेरे अब्बू के पास रोज आते थे. उनसे कहते थे कि वे मुझे पाकिस्तान से वापस बुला लें. यहां सरकार मुझे नौकरी देगी. पैसा भी देगी. अब्बू ने मुझे उनके कहने के बाद ही वापस आने के लिए चिट्ठी लिखी. तभी मैं आया. लेकिन यहां आने के बाद वे लोग अपना वादा भूल गए. फौज तो कम से कम परेशान नहीं करती लेकिन सीआईडी वाले तो आए दिन तंग करते रहते हैं.’
ये लोग 20-22 साल के बाद अपने घर वापस आए हैं. चूंकि इनमें से ज्यादातर लोग अपनी किशोरावस्था में ही सरहद पार चले गए थे ऐसी स्थिति में इनके पास जम्मू-कश्मीर का निवासी होने का कोई पहचान पत्र नहीं है. यानी एक तरह से जम्मू कश्मीर की नागरिकता का काम करने वाला ‘स्टेट सबजेक्ट’ नहीं हैं. राज्य में जिसके पास यह दस्तावेज होता है वही लोग जमीन जायदाद खरीद सकते है. इन्हीं लोगों को सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा का अधिकार होता है.
सबसे ज्यादा दिक्कत इन लोगों की पत्नियों और बच्चों के साथ हैं. पूर्व आतंकियों में से लगभग सभी ने पीओके या पाकिस्तान की लड़कियों के साथ शादी की है. ऐसे में उनकी पत्नियों की पहचान का मामला अधर में लटका हुआ है. यहां आने के बाद का अपना अनुभव बताते हुए जहांगीर की पत्नी साजिया कहती हैं, ‘ मैं सिर्फ यहां इसलिए हूं क्योंकि मेरे शौहर यहां आने चाहते थे. नहीं तो मेरा यहां मन एक सेकेंड भी नही लगता. न यहां की औरतों से हमारी सोच मिलती है, न जुबान, न रहन-सहन और न पहनावा. हम किसी से अपनी बात नहीं कर सकते.’
साजिया का अनुभव कोई अपवाद नहीं है. एक पूर्व आतंकी की पत्नी सबा परवीन कहती हैं, ‘ पहली दिक्कत तो यह है कि हमारी भाषा इन लोगों से बिलकुल अलग है. हमें कश्मीरी समझ में नहीं आती. ये लोग कश्मीरी भाषा में ही बात करते हैं. हम हिंदी, पंजाबी और उर्दू जानते हैं लेकिन इस भाषा में बात करने वाले बहुत कम लोग हैं यहां.’
इन महिलाओं के मन में इस बात की भी गहरी टीस है कि वे शायद कभी अपने घर वालों से नहीं मिल पाएंगी. साजिया कहती हैं, ‘ यहां इन लोगों के परिवार के सदस्य हमें पूरी तरह से नहीं अपना रहे हैं. ऐसे में अगर कल को इन्हें कुछ हो गया तो मैं अपने बच्चों को लेकर कहां जाऊंगी. यहां की लड़कियों का तो इस देश में मायका है. हमारा तो इनके अलावा कोई नहीं है और हम अपने घर भी नहीं जा सकते. शादी के बाद ही ये हमें छोड़कर चले आते तो तकलीफ नहीं होती. आज हमारे बच्चे हैं. ये उग्रवादी रहे हैं तो होंगे. इससे मेरा और मेरे बच्चों का क्या लेना देना.’ पूर्व आतंकी मतीन की पत्नी निशत फातिमा कहती हैं, ‘ सरकार से हमें कुछ नहीं चाहिए. हम तो बस अपने पति के कारण यहां आ गए. बस हमें हमारे घरवालों से मिलने जाने की इजाजत दे दें. जो बस उरी-मुजफ्फराबाद जाती है उससे हमें अपने घरवालो से भी मिलने जानें दें. हम पर रहम करें.’
हाल ही में यूसुफ की पत्नी शबीना के पिता का मुजफ्फराबाद में देहांत हो गया लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी वे अपने पिता को देखने नहीं जा पाईं. युसूफ कहते हैं, ‘शबीना के अब्बू के इंतकाल पर मैंने हर जगह मिन्नतें कीं. मैंने कहा कि बस एक बार मेरी पत्नी को उसके पिता को देखने जाने दो लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं सुनी.’ सरकार को कोसते हुए युसूफ कहते हैं, ‘यह किस तरह का भेदभाव है. यासीन मलिक को आप पाकिस्तान जाने के लिए पासपोर्ट देते हैं. वह वहां जाकर शादी करता है. हाफीज सईद के साथ बैठक करता है. हमेशा आता-जाता है लेकिन हमारी पत्नियों को जाने की इजाजत नहीं है. जो लोग गन कल्चर को लेकर यहां आए उन्हें आप पासपोर्ट दे देते हो.’
पूर्व आतंकवादियों की पत्नियों के साथ ही इनके बच्चों का जीवन भी यहां बेहद एकाकी और अलगाव से भरा है. पूर्व आतंकवादी जमील का 12 वर्षीय पुत्र इरफान कहता है, ‘ मेरे सभी दोस्त मुजफ्फराबाद में हैं. यहां के लड़कों की भाषा मुझे समझ नहीं आती.’ इन बच्चों की आगे की पढाई भी एक बड़ी दिक्कत है. बड़गाम के मंजूर अहमद कहते हैं, ‘ मेरा बड़ा बेटा वहां 10 वीं पास करके आया है लेकिन यहां आने के बाद उसका कहीं एडमिशन नहीं हो रहा है. पिछले दो सालों से मैं सबके सामने हाथ जोड़ रहा हूं लेकिन स्कूल वाले हमारे बच्चों को एडमिशन देने से बिना कोई कारण बताए इंकार कर रहे हैं.’ यह अनुभव यहां लौटने वाले लगभग हर व्यक्ति का है. जहां तक प्रशासन की बात है तो वह इस समस्या को स्वीकार तो करता है लेकिन सीधा हल सुझाने की दिशा में कुछ करता नहीं दिखता. डीजीपी अशोक प्रसाद के अनुसार, ‘नागरिकता और आगे की पढ़ाई के लिए डिग्रियों की वैधता जटिल मामले हैं. उनके हल होने में थोडा समय लगेगा क्योंकि ये कानूनी और संवैधानिक मसला है. बाकी उनके जीवन को बेहतर बनाने की हम लगातार कोशिश कर रहे हैं.’
जब इन पूर्व आतंकवादियों का पुनर्वास नहीं हुआ तो इन्होंने राज्य में अपने स्तर पर रोजी-रोजगार करने की ठानी लेकिन इस मामले में भी इनके साथ मुसीबतें कम नहीं हैं. 2010 में पीओके से वापस आए फारुक अहमद शाह कहते हैं, ‘हमें कोई काम नहीं देता. जहां भी काम मांगने जाते हैं लोग हमारे मिलिटेंट बैकग्राउंड के कारण काम देने से इंकार कर देते हैं. एक तरफ रोजी रोटी का कोई इंतजाम है नहीं, वहीं हर दूसरे दिन पुलिस, सीआईडी पूछताछ के नाम पर बुलाती है. घंटों बैठाए रखती है. महीने में 20 दिन तो यही निकल जाते हैं. जब से आए हैं तभी से परेशान कर रहे हैं.’ पूर्व आतंकवादी अमजद अहमद कहते हैं, ‘यहां आने के बाद हमारे पास कोई रोजगार नहीं है. हम में से हर व्यक्ति पीओके में कोई ना कोई रोजगार कर रहा था लेकिन यहां हमारे सामने रोजी-रोटी का संकट है. 20-22 सालों में हमने जो भी कमाया था वह पूरा पैसा तो यहां आने में खर्च हो गया. अब यहां हमारे पास कोई रोजगार नहीं है.’ वापस आए ज्यादातर लोगों में से कोई दिहाड़ी मजदूरी कर अपना पेट पाल रहा है तो कोई ऑटो चलाकर या अन्य तरीकों से किसी तरह से दो जून की रोटी का इंतजाम अपने परिवार के लिए कर रहा है.
ये तमाम लोग आने के बाद किस तरह की अमानवीय स्थिति में जी रहे हैं, कितने प्रताड़ित हैं इसका पता उस समय चला जब हाल ही पाकिस्तान से वापस आए एक पूर्व आंतकी सैयद बशीर अहमद शाह ने खुद को आग लगाकर आत्महत्या कर ली थी. बशीर के 15 वर्षीय पुत्र फैजान कहते हैं, ‘अब्बू बहुत परेशान थे. पिछले साल ही हम लोग मुजफ्फराबाद से यहां आए थे. अम्मी यहां आने से रोक रहीं थीं लेकिन अब्बू नहीं माने. यहां आने के हफ्ते भर बाद ही अब्बू के बड़े भाई ने हमें घर से बाहर जाने के लिए कह दिया. हमारे पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी. कुछ दिन के लिए हम अपने एक रिश्तेदार के पास चले गए. अब्बू के पास पैसे नहीं थे. वे घरों की रंगाई-पुताई का काम करने लगे. मजदूरी से जो पैसे मिलते थे उससे रोज का खर्च चलता था. दो महीने बाद उनसे वह दिहाड़ी मजदूरी भी छिन गई. घर खर्च के लिए लोगों से उन्होंने पैसे उधार लिए. वे लोग भी अपने पैसे मांगने लगे. आखिर में इन्हीं बातों का तनाव झेलते हुए उन्होंने एक दिन खुद पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगा ली.’
हाल ही में वापस आए मोहम्मद अशरफ वानी उर्फ जमील की स्थिति इतनी खराब हो गई कि उन्हें अपनी बेटी की मजबूरी में शादी करनी पड़ी. जमील कहते हैं, मेरे पास यही विकल्प था कि अपनी बेटी को घर पर रखकर भूख से मार डालूं या कुछ करूं. मैंने उसकी शादी कर दी. मैं उसका गुनहगार हूं, वह 11 वीं में पढ़ती थी. मजबूरी में मैंने उसकी शादी की. न हमारे पास पहचान पत्र है, न राशन कार्ड. पता नहीं कब तक जिंदा रहेंगे हम. जमील बताते हैं उन्होंने ऑटो चलाकर अपना गुजारा करने की बात सोची थी लेकिन सरकार कहती है कि जब वे यहां तीन साल रह लेंगे तब उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस मिलेगा. इस समय उनके पास कोई रोजगार नहीं है और वे जैसे-तैसे गुजारा कर रहे हैं.
अपनी समस्याओं और मांगों को लेकर ये लोग श्रीनगर में कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. अब हालात ऐसे हो गए हैं कि कई परिवारों ने वापस पाकिस्तान जाने के बारे में सोचना शुरू कर दिया है. हाल ही में सेना ने बारामुला से बॉर्डर क्रॉस करके पाकिस्तान जाने का प्रयास करते हुए पांच परिवारों को गिरफ्तार किया था. पिछले दो महीने में तीन परिवारों के वापस जाने की भी खबरें आईं जिसमें दो परिवार उत्तरी कश्मीर के बंदीपुर जिले से थे और एक श्रीनगर से.
एहसान बताते हैं, ‘ अभी लगभग 25 हजार के करीब कश्मीरी लड़के पाकिस्तान में हैं. वे सभी वहां से आना चाहते हैं लेकिन हम उनसे कहते हैं, यहां आओगे तो भूखे मारे जाओगे. इसलिए वहीं रहो.’ जहांगीर झुंझलाते हुए कहते हैं, ‘आप से नहीं संभल रहा है तो हमें किसी तीसरे मुल्क में भेज दो. लोग सऊदी और कहां-कहां नौकरी करने जा रहे हैं लेकिन हम शहर से बाहर नहीं जा सकते. हम यहां कैद हो गए हैं. अगर मान लीजिए दिल्ली वगैरह में काम की तलाश में चले गए भी तो पुलिस पकड़ के कहेगी कि उसने एक बड़ा आतंकवादी पकड़ा है. लियाकत शाह का उदाहरण हमारे सामने है.’
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‘पाकिस्तान में अब भी आतंकवादी शिविर चल रहे हैं’
पाकिस्तान में आतंक की ट्रेनिंग तो अभी-भी चल रही है. लेकिन पहले जैसी स्थिति नहीं है. जो लड़के कश्मीर से आए थे वे धीरे-धीरे सब हकीकत जान गए. इन लोगों को कहा गया था कि जेहाद में बरकत है. जेहाद में सबकुछ है. बड़े-बड़े वादे किए जाते थे कि कश्मीर आजाद होगा लेकिन हकीकत में पाकिस्तान और यहां की सेना को इससे कोई मतलब नहीं है. पाकिस्तान अपने स्वार्थ और मकसद के लिए इन्हें इस्तेमाल कर रहा है. ये खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. जेहाद के लिए पहले जो ब्रेनवाश किया जाता था वह अब मुमकिन नहीं है. दूसरा यहां पर जेहादी गुटों के जो बड़े नेता हैं, उनके लड़के तो खुद जेहाद से बाहर हैं और वे यहां गरीब बच्चों को इस्तेमाल करते हैं. यहां जो कश्मीरी लड़के हैं वे भी देख रहे हैं कि भारतीय कश्मीर में स्थिति बेहतर हुई है. मुसलमान लड़के वहां से आईएएस बन रहे हैं, पढ़ाई कर रहे हैं. उन्हें सरकारी नौकरियां मिल रही हैं. भारतीय कश्मीर में तो स्थिति बेहतर हो रही है. इसलिए अब ये लड़के पाकिस्तानी ट्रेनिंग कैंपों का रुख नहीं करते.
हफीज चाचड़, पाकिस्तान में बीबीसी के पूर्व संवाददाता
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इन पूर्व आतंकवादियों की राज्य में जो दुर्दशा है वह खुद ही कई खतरों को आमंत्रित कर सकती है. वरिष्ठ पत्रकार और जम्मू कश्मीर पर बने तीन सदस्यीय वार्ताकारों के समूह के सदस्य दिलीप पड़गांवकर इस बारे में इशारा करते हैं, ‘ यह एक दुखद सच है कि इन लोगों का पुनर्वास नहीं किया जा रहा. हम इन लोगों से मिले हैं. सरकार को ये सोचना चाहिए कि अगर वह इन लोगों का पुनर्वास नहीं करेंगे तो इसका फायदा आईएसआई और कश्मीर विरोधी ताकतें ही उठाएंगी.’ कुछ इसी तरह की बात हाल ही में पाकिस्तान से लौटे पूर्व आतंकवादी फारुक अहमद भी कहते हैं, ‘सरकार खुद चाहती है कि लोग मिलिटेंट बने. आज हमारे बच्चे तिल-तिल मर रहे हैं. अब ऐसे में कोई मुझे 10 लाख रुपये किसी गलत काम के लिए देगा तो क्या मैं नहीं लूंगा.’
एक तरफ पूर्व आतंकवादी वापस कश्मीर आने और अपने पुनर्वास को लेकर संघर्ष कर रहे हैं तो इधर एजेंसियां भी उनके ‘हृदय परिवर्तन’ की सच्चाई पर नजर बनाए हुए हैं. खुफिया विभाग के एक अधिकारी कहते हैं, ‘ हमें बिलकुल चौंकन्ना रहने की जरूरत है. सभी को पता है कि अफजल गुरु भी सरेंडर्ड मिलिटेंट ही था. डबल क्रॉस की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.’ सरकार ने बेशक इन लोगों के लिए पुनर्वास की नीति बना दी हो लेकिन खुफिया विभाग का यह रवैया काफी हद तक इनके लिए मुसीबत का सबब बना हुआ है. खुफिया विभाग के अधिकारियों का यह भी कहना है कि पूर्व आतंकवादियों में से ज्यादातर ने पाकिस्तानी महिलाओं से शादी कर ली है. इनके बच्चे भी हैं. ऐसे में इनकी नागरिकता का दर्जा एक बड़ी समस्या है. पत्नी को वापस भेजा जा सकता है, लेकिन बच्चों का क्या करेंगे? सबसे बड़ा डर यह है कि आने वाले समय में ये बच्चे एक स्पष्ट नागरिकता के अभाव की स्थिति में कश्मीर विवाद की पहचान न बन जाएं. रॉ के पूर्व प्रमुख आनंद वर्मा कहते हैं, ‘इन लोगों को सरकार का साथ देना चाहिए. कुछ ऐसा नहीं करना चाहिए जिससे यहां के अमन चैन को कोई नुकसान पहुंचे. एजेंसियों को ध्यान रखना होगा कि इनके बीच ब्लैक शीप (संदिग्ध) ना आ जाएं. इन लोगों पर कुछ समय तक नजर रखने की जरूरत है.’
घाटी में पृथकतावादी भी इनकी वापसी को लेकर खुश नहीं है. सैयद अली शाह गिलानी कहते हैं, ‘ ये लोग लालच में आ गए. इन्हें यहां नहीं आना चाहिए था. पुर्नवास नीति के नाम पर भारत सरकार ने इन्हें पकड़ने के लिए जाल बिछाया जिसमें ये लोग फंस गए.’ जहां तक पूर्व आतंकवादियों की बात है तो वे खुद इन प्रथकतावादी संगठनों और उनके नेताओं की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाते हैं. जहांगीर कहते हैं, ‘आजादी की बात करने वाले ये लोग भारत और पाकिस्तान दोनों से पैसा लेते हैं. इनके बच्चे लंदन और अमेरिका में पढ़ रहे हैं. इन्होंने शहीदों की कब्रें बेच दीं. हम हुर्रियत के लोगों की कोठियों पर कब्जा करेंगे. इन्होंने ही हमें बंदूकें पकड़ाईं थी अब ये लोग आराम से नहीं बैठ सकते .’
चाहे राज्य सरकार हो, सुरक्षाबल, खुफिया एजेंसियां, प्रथकतावादी या अपना परिवार, हर किसी के लिए पाकिस्तान से आ रहे ये पूर्व आतंकवादी इस समय सबसे अवांछित व्यक्ति बन चुके हैं. ऐसा ही रहा तो मुमकिन है कि आने वाले समय ये भी राज्य की उन दर्जनों मानवीय त्रासदियों में शुमार हो जाएं जिनका जम्मू-कश्मीर के पास कोई स्थाई समाधान नहीं है.