संघर्ष की पगडंडी पर 30 साल

बीते 17 और 18 जुलाई को नर्मदा घाटी से आए सरदार सरोवर बांध के हजारों विस्थापित और उनके समर्थकों ने ‘आएंगे दिल्ली, बजाएंगे ढोल, जगाएंगे सरकारों को’ के नारे के बीच राजधानी के जंतर-मंतर पर धरना दिया. मांग की गई कि विस्थापितों का समुचित पुनर्वास हो जिसके तहत पैसे की जगह सभी को जमीन के बदले जमीन और घर बनाने के लिए उचित मुआवजा दिया जाए. रैली में केंद्र सरकार के उस फैसले को लेकर भी सवाल उठाए गए जिसके तहत बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाने की बात की गई है. आंदोलनकारियों ने केंद्र सरकार को चेतावनी दी है कि अगर ऐसा हुआ तो वे चुप नहीं बैठेंगे और जलसमाधि लेंगे.

30 साल पहले इस आंदोलन का नारा था ‘कोई नहीं हटेगा बांध नहीं बनेगा’ लेकिन इतने बड़े आंदोलन और प्रतिरोध के बावजूद सरदार सरोवर बांध बना. अब भी विस्थापितों को बसाने, उन्हें मुआवजा दिलवाने, इसमें हो रहे भ्रष्टाचार और बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की लड़ाई जारी है. इस दौरान रैलियां, धरने, अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, सार्वजनिक सभाएं और पदयात्राएं की गईं. दूसरी तरफ सरकारों की ओर इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश भी लगातार जारी रही. आंदोलन ने इन सालों में सफलताएं भी अर्जित की हैं. इसी वजह से सरदार सरोवर परियोजना और अन्य बांधों के मामले में विस्थापन से पहले पुनर्वास की व्यवस्था, पर्यावरण व अन्य सामाजिक प्रभावों पर बात की जाने लगी है. इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने विचार के स्तर पर पर्यावरण और वर्तमान विकास के मॉडल पर सवाल उठाया और इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया है.

नर्मदा नदी पर नर्मदा घाटी विकास परियोजना के तहत 30 बड़े और 135 मध्यम आकार के बांध बनाने की योजना बनाई गई थी. जिसमें सरदार सरोवर बांध, महेश्वर बांध आदि विशालकाय परियोजनाएं  शामिल हैं. 1985 में इस परियोजना के लिए विश्व बैंक ने 450 करोड़ डॉलर का लोन देने की घोषणा की थी. 1989 में परियोजना के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन एक जन आंदोलन के रूप में सामने आया. आंदोलन ने इस परियोजना पर कई गंभीर सवाल खड़े किए और मांग की कि बांध निर्माण का काम रोक कर इस पर पुनर्विचार किया जाए. अपने तीस साल के सफर में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पुनर्वास के साथ-साथ बांध के पर्यावरणीय, जैविकीय व इससे उपजने वाली बीमारियों से स्वास्थ्य पर होने वाले असर जैसे मुद्दों को उठाया है.

1994 wesddfमें परियोजना को कर्ज देने वाले विश्व बैंक के एक दल ने नर्मदा घाटी का दौरा करने के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा कि सरदार सरोवर परियोजना गड़बड़ियों से भरी है. परियोजना से पर्यावरण पर क्या फर्क पड़ेगा इसका ठीक से आकलन तक नहीं किया गया है और मौजूदा तरीके से विस्थापन और पुनर्वास का काम पूरा नहीं हो सकता. इस रिपोर्ट के बाद विश्व बैंक को परियोजना के लिए दिया जाने वाला कर्ज वापस लेना पड़ा. आंदोलन के लिए यह बड़ी जीत थी. इसके बावजूद भारत सरकार ने बांध निर्माण का काम जारी रखा जबकि इसी साल केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय के एक विशेषज्ञ दल ने भी अपनी रिपोर्ट में परियोजना में हो रही पर्यावरण की भारी अनदेखी पर सवाल उठाया था. दिसंबर 2006 में सरदार सरोवर बांध बनकर तैयार हो गया. नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया. उस समय वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे. आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि इस बांध से करीब 3 लाख 20 हजार लोग प्रभावित हुए हैं.

नर्मदा नदी पर ही बने इंदिरा सागर बांध की बात करें तो इसके डूब क्षेत्र में कुल 255 गांव थे. इन्हीं में से खंडवा के पास मध्य प्रदेश का 700 वर्ष पुराना कस्बा ‘हरसूद’ भी था. ‘हरसूद’ को सन 2004 के मानसून में डूब जाना था इसलिए वहां के लोगों को उसी साल 30 जून को जबरन, बिना समुचित पुनर्वास की व्यवस्था किए उजाड़ दिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ देशभर के समाजसेवी, मानव अधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद, लेखक, बुद्धिजीवी, फिल्म व मीडिया क्षेत्र के लोग, छात्र-छात्राएं, महिलाएं, आदिवासी, किसान जुड़े हुए हैं. बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका अरुंधती रॉय भी इससे जुड़ी रहीं. उन्होंने इस मुद्दे पर ‘द कॉस्ट ऑफ लिविंग’ नाम से एक किताब भी लिखी. 2006 में आमिर खान ने विस्थापितों के पुनर्वास के समर्थन में मेधा पाटकर का समर्थन किया था और प्रदर्शनकारियों से मिलने भी गए, जिसके बाद उनका जबरदस्त विरोध किया गया. यहां तक कि गुजरात के सिनेमाघरों में उनकी फिल्म ‘फना’ पर भी रोक लगा दी गई.

2011 में सुप्रीम कोर्ट ने नर्मदा बचाओ आंदोलन को झूठे शपथ-पत्र पेश करने पर फटकार लगाई थी. यह आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका था. हालांकि अदालत द्वारा आंदोलन के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई नहीं की गई. अदालत ने यह फटकार इंदौर के जिला जज की ओर से की गई जांच के परिणामों को देखने के बाद लगाई थी. जांच परिणामों पर आधारित रिपोर्ट में कहा गया था कि आंदोलन से जुड़े लोगों ने अपने हलफनामे में जो दावे किए हैं वे पूरी तरह झूठे हैं. हालांकि आंदोलन करने वालों का कहना था, ‘देवास जिले के जिन पांच गांवों को लेकर शपथ-पत्र पेश किया गया था, वहां के सारे लोग आदिवासी थे, जो कि डूब रहे थे. उनकी मांग थी कि उन्हें नकद नहीं जमीन चाहिए और अगर जमीन नहीं मिलेगी तो वे नहीं हटेंगे.’ मामला हाईकोर्ट गया तो हाईकोर्ट ने भी कहा कि इन्हें जमीन दी जाए. बाद में एनवीडीए (नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण) ने कहा कि चूंकि यहां पांच करोड़ रुपये की लागत से एक पुल बनाया जा रहा है, इसलिए इनके पुनर्वास की कोई जरूरत नहीं, लेकिन जमीन अधिग्रहित की जा चुकी थी. इसलिए मामला फिर सुप्रीम कोर्ट गया. वहां एनबीए (नर्मदा बचाओ आंदोलन) की ओर से कहा गया, ‘लोगों की जमीन छिन गई है. अब उनके पास इसका कानूनी अधिकार भी नहीं है, जबकि एनवीडीए का कहना था कि जमीन हमने नहीं ली है.’ मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इंदौर के जिला जज को जांच कर अपनी रिपोर्ट देने को कहा था. जिला जज ने अपनी रिपोर्ट ने कहा था, ‘जमीन एनवीडीए ने नहीं ली है यह आदिवासियों के ही पास है.’ इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एनबीए कोर्ट को गुमराह कर रहा है और उसे फटकार पड़ी, जबकि एनवीडीए की ओर से जमीन अधिग्रहित की गई थी. बाद में एनबीए ने इसका रीजॉयंडर (जवाबी दावा) देने की भी कोशिश की लेकिन कोर्ट ने इसे स्वीकार नहीं किया.

खैर, आंदोलन के दौरान नेतृत्व के काम करने के तरीके और नजरिये में फर्क भी देखने को मिला. आंदोलन से जुड़े कुछ लोग इसे विभेद या मनमुटाव न मानते हुए एक तरह से काम के बंटवारे के रूप में देखते हैं. वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं जो दूसरी राय रखते हैं. इनका मानना है कि आंदोलन में जिस तरह काम के क्षेत्र का बंटवारा हुआ है वह नेतृत्व की सीमा को दर्शाता है, क्योंकि इस अनौपचारिक विभाजन के बाद भी उनके काम करने की पद्धति, सोच और शैली में कोई फर्क देखने को नहीं मिला है. नाम व झंडा भी पुराना ही है. इसका मतलब जो विभाजन हुआ है उसके पीछे व्यक्तिवादी नजरिया है. एक तरह से यह मध्य वर्ग के अहम का टकराव और द्वंद्व है.

निश्चित तौर से आंदोलन की कुछ सीमाएं भी रही होंगी. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान कहते हैं, ‘यह मुद्दा आधारित आंदोलन था. ऐसे आंदोलनों की एक सीमा होती है. ऐसे आंदोलन में समाज के बाकी सवाल जैसे वर्ग, जाति, लिंग छूट जाते हैं. इसकी वजह यहां राजनीतिक प्रकिया का अभाव होना है, जिसका असर नेतृत्व, कार्यकर्ताओं और इसके काम पर देखने को मिलता है. इससे आंदोलन की वैचारिक समझ पुख्ता नहीं हो पाती और राजनीतिक रूप से अस्पष्टता देखने को मिलती है. इसमें मुद्दे के आधार पर कोई भी शामिल हो सकता है. नतीजे में हम देखते हैं कि जिन क्षेत्रों में आंदोलन मजबूत है, वहां दक्षिणपंथी ताकतें हावी हैं.’

कई लोगों का मानना है कि इस आंदोलन के इतने लंबे समय तक चलने की पीछे एक वजह यह भी है कि इसे मध्यमवर्गीय किसानों का समर्थन रहा है. एक उदाहरण सन् 1994 का दिया जाता है जब दिग्विजय सिंह ने यह प्रस्ताव दिया था कि बांध की ऊंचाई 436 फीट तक कर देंगे. इस प्रस्ताव से निमाड़ तो बच रहा था लेकिन नीचे के आदिवासी क्षेत्र डूब रहे थे, हालांकि बाद में इस प्रस्ताव को मान लिया गया.

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आंदोलन का प्रभाव

तीस साल बाद मुड़कर देखें तो पहला सवाल यही उठता है कि यह आंदोलन किस हद तक अपने मकसद को हासिल करने में कामयाब रहा? तमाम विरोध और प्रतिरोध के बीच बांध तो बन गया और लड़ाई का दायरा सिमट कर उचित पुनर्वास और मुआवजे तक आ पहुंचा, लेकिन क्या आंदोलन को इस सीमित नजरिये से ही देखा जाना चाहिए? रहमत भाई ने 11 साल तक आंदोलन के साथ एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया है और खुद भी बांध प्रभावित हैं. मंथन अध्ययन केंद्र से जुड़े रहमत का कहना है, ‘अगर 30 साल बाद आंदोलन का समग्रता में मूल्यांकन करें तो भले ही हम बांध बनने से नहीं रोक पाए हों लेकिन इसके व्यापक प्रभाव पड़े हैं. अब जबरिया विस्थापन करना उतना आसान नहीं रह गया है. आंदोलन से पहले विस्थापन के मामलों में जमीन के बदले जमीन की नीति नहीं थी. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने जब विस्थापन के मुद्दे को उठाना शुरू किया तो असंवेदनशीलता इस हद तक थी कि सरकार के पास इससे प्रभावित होने वाले लोगों को लेकर कोई आंकड़ा तक नहीं था. आंदोलन की वजह से ही सरकार सरदार सरोवर बांध के मामले में जमीन के बदले जमीन की नीति लाने को मजबूर हुई. हालांकि इसमें भी कई खामियां हैं. इसी तरह से स्थानीय स्तर पर देखें तो इस आंदोलन का प्रभाव विस्थापन के मुद्दे के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है. इससे समुदाय का दूसरे मुद्दों पर भी सशक्तिकरण हुआ है. उनमें सामाजिक जागरूकता आई है और अब लोग स्वयं अपने अधिकारों के लिए आगे आने लगे हैं.’

वर्षों से भोपाल गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ रहे अब्दुल जब्बार भी कुछ इसी तरह की राय रखते हैं. उनका कहना है, ‘बांध तो बन गया लेकिन इससे बड़े बांधों को लेकर सवाल खड़ा करने में सफलता मिली है और बड़े बांधों के क्या नुकसान हो सकते हैं, इसका संदेश देश ही नहीं देश से बाहर भी गया है. इसे कम करके नहीं आंका जा सकता है. जिन सैकड़ों गांवों के लोग इस आंदोलन में शामिल हुए उन्होंने यह जाना कि आंदोलन क्यों जरूरी है और सरकार अगर गलत करती है तो क्यों और कैसे लड़ना चाहिए.’

शुरुआती दौर से ही एनबीए से जुड़े रहे खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन के संयोजक शंकर तड़वले कहते हैं, ‘इस आंदोलन ने देशभर के कार्यकर्ताओं को जोड़ने और दूसरे आंदोलनों को प्रेरणा देने का काम भी किया है. आंदोलन से देश के सामने यह बात आ सकी कि विस्थापन के बाद लोगों को किस तरह की त्रासदी झेलनी पड़ती है. इसके बाद ही सरकारें विस्थापन के बाद पुनर्वास को लेकर अपनी सोच बदलने पर मजबूर हुईं.

नर्मदा बचाओ आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता और धार जिले के खापरखेड़ा गांव के डूब प्रभावित देवराम कनेरा कहते हैं, ‘पिछले तीस सालों से हम अपनी जान को हथियार बनाकर लड़ रहे हैं. इस वजह से शायद यह इकलौता आंदोलन है, जिसमें उजड़ने के बाद लोग जमीन के बदले जमीन पाने में कामयाब रहे हैं. सरकार 88 पुनर्वास स्थल बनाने को भी मजबूर हुई है. यह सब आंदोलन से ही संभव हो सका है. हम 12 अगस्त से फिर सत्याग्रह कर रहे हैं.’

बड़वानी जिले के डूब क्षेत्र में आने वाले गांव छोटा बरदा के निवासी और नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता महादेव भगवान दास का कहना है, ‘हम भले ही बांध बनने से नहीं रोक पाए हों लेकिन अब तक हम यहां संघर्ष की वजह से ही टिके हुए हैं. अगर आंदोलन नहीं होता तो हम 15-20 साल पहले ही उजाड़ दिए गए होते.’ आंदोलन के भविष्य को लेकर उनका कहना है, ‘हमें मुआवजे के बलबूते नहीं रहना है. हम जीवन की लड़ाई लड़ रहे हैं और इसे आगे भी जारी रखेंगे.’

नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता और भीलखेड़ा गांव (बड़वानी) के कैलाश अवास्या का कहना है, ‘तीस साल बाद भी लोग हटे नहीं बल्कि पूरी ताकत के साथ डटे हुए हैं. लोग यह लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं सभी गांवों के लिए लड़ रहे हैं, हम आगे भी लड़ते और संघर्ष करते रहेंगे.’

आंदोलन से जुड़े मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव शरदचंद्र बेहार कहते हैं, ‘इस आंदोलन ने तथाकथित विकास के मॉडल के खिलाफ पहली बार आवाज उठाई. यह पहला उदाहरण था जिसने यह रास्ता दिखाया कि कैसे बड़ी विकास परियोजनाओं का भी विरोध किया जा सकता है. इससे पहले ऐसी परियोजनाओं को सिर्फ अच्छा ही माना जाता था. विकास के इस स्याह पक्ष को सरकार के साथ-साथ जनता भी नजरअंदाज करती थी. इस पक्ष को सामने लाना और उसे स्थापित करना ही इस आंदोलन की पहली बड़ी उपलब्धि रही है. दूसरी उपलब्धि यह है कि इसने बताया कि बड़े बांधों के दुष्प्रभावों से मात्र इंसानों को ही नुकसान नहीं होता है बल्कि इसका डूब क्षेत्र बनने से जमीन, वहां का इतिहास, स्थानीय पेड़-पौधे, पर्यावरण, संस्कृति भी डूबते हैं. इस तरह से बड़े बांधों से होने वाले मानवीय, सामाजिक, सांस्कृतिक और प्राकृतिक आघात को विमर्श के केंद्र में लाने में इस आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इसके प्रभाव से ही यह संभव हो सका कि अब नाभिकीय और खनन जैसी बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ लगातार आंदोलन हो रहे हैं. इसने उन्हें रास्ता दिखाने का काम किया है. यह इस आंदोलन की ही साख थी कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व बांध आयोग बना तो मेधा पाटकर को भी सदस्य बनाया गया.’

 

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गहरे जख्म छोड़ गया देश का सबसे बड़ा विस्थापन

विजय मनोहर तिवारी

एक साल पहले इंदिरा सागर बांध के इलाके में एक बार फिर जाने का मौका मिला. तब मुझे 2004 के मानसून के विकट दिन याद आ गए. इस परियोजना में करीब 250 गांव डूबे. हरसूद नाम का छोटा सा शहर जून 2004 में डूब क्षेत्र में आया था. दुनिया भर के मीडिया ने तब दिखाया था कि एक हजार मेगावाट बिजली हजारों परिवारों के लिए किस कदर अंधेरा लेकर आई थी. ज्यादातर लोग मामूली मुआवजा लेकर निकले या निकाले गए. हरसूद वालों के लिए छनेरा नाम की जगह पर एक उजाड़ पथरीला मैदान दिया गया था, जहां बीच बारिश में विस्थापितों को अपने घर बनाने थे. सब कुछ बेहद अमानवीय ढंग से हुआ.

10 साल के कांग्रेस राज में बांध एक तरफा ढंग से बनता गया. पुनर्वास के नाम पर कुछ हुआ नहीं था. 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा की सरकार मध्य प्रदेश में बनी. विकास का राग अलापने वाली सरकार के लिए हरसूद देश में विस्थापन और पुनर्वास का एक शानदार मॉडल बनाने का मौका था, जो बेलगाम और भ्रष्ट अफसरशाही के हाथों उसने गंवा दिया गया. खाने-कमाने वाली राजनीति के खेल में नेता बेगुनाह नहीं थे. पदों की अंधी होड़ में उन्हें ऐसी कोई ट्रेनिंग ही नहीं दी जाती, जब उन्हें सिखाया जाए कि आम आदमी के हितों से जुड़े इस तरह के संवेदनशील मसलों पर वे किस तरीके से पेश आएं. ज्यादातर नेताओं के पास अपना कोई नजरिया ही नहीं है. वे इतने ईमानदार भी नहीं हैं कि अफसर डर से खुद बेईमानी न करें. यह विस्थापन इनके मकड़जाल में उलझी एक दर्दनाक कहानी है.

दिग्विजय सिंह ने दस साल एकछत्र राज किया था. पिछले 12 साल में भाजपा सरकार में तीन मुख्यमंत्री हुए. शिवराजसिंह चौहान को दस साल से ज्यादा हो गए. उन्हें तीन बार लगातार अच्छे-खासे बहुमत से चुना गया. हांलाकि किसी के भी राज में इस तरह कोई खास कदम नहीं उठाए गए. आप आज भी हरसूद, छनेरा, काला पाठा, चैनपुर और सतवास के पुनर्वास स्थलों पर जाकर देख सकते हैं कि इस सरकार को मिली ताकत यहां किसी के कुछ काम नहीं आई. मुझे अफसोस के साथ यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि यह विस्थापन हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की नाकामी की एक घृणित मिसाल है.

भ्रष्ट अफसरों के लिए यह इलाका एक टकसाल बन गया था. जांच एजेंसियों ने 13 अफसरों को रिश्वत लेते हुए पकड़ा था. वे उन चील-गिद्धों की तरह पेश आए जो अपने हिस्से का मांस नोचने के लिए जमीन पर पड़े मुर्दों के ऊपर मंडराते हैं. यहां डेढ़ लाख की बेदखल आबादी उनके लिए पौष्टिक आहार की तरह उपलब्ध थी. ढाई हजार से ज्यादा भुक्तभोगी खंडवा की अदालत में सालों तक चक्कर लगाते रहे. ऐसे कई परिवार हैं, जो बीते 11 सालों में तीन-तीन शहरों में बसने की नाकाम कोशिश में लगे रहे हैं. हरसूद के एक प्रतिष्ठित परिवार से आने वाले आरटीआई एक्टीविस्ट धर्मराज जैन ने आरटीआई के जरिए एक कामयाब लड़ाई लड़कर अपना हक हासिल तो कर लिया मगर इसमें एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो गई. दस साल में बांध से 2500 करोड़ रुपये की बिजली बनी. छह साल का मुनाफा ही करीब 1800 करोड़ रुपये का था. यह आंकड़ा इसलिए ध्यान देने योग्य है, क्योंकि यहां से बेदखल हुए लोगों को उनकी संपत्तियों का कुल मुआवजा मिला था सिर्फ 1170 करोड़ रुपये. इसमें हरसूद शहर का मुआवजा था मात्र 68 करोड़ रुपये!

नर्मदा बचाओ आंदोलन के सुविधाहीन और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने इस अमानवीय और लोगों के दिलों पर गहरे जख्म छोड़कर गए विस्थापन को गुमनाम नहीं रहने दिया. बांध पूरा बनने के बावजूद 91 गांवों में भूअर्जन ही शुरू नहीं हुआ था. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने हाईकोर्ट की शरण ली. बांध में पानी पूरा न भरने के लिए याचिका लगाई गई. विस्थापितों की बात सरकार ने नहीं, अदालत ने सुनी. चीफ जस्टिस रवींद्रन ने कहा कि सरकार को यह हक ही नहीं था कि वह इन गांवों के लोगों को जाने के लिए कहें. पूरे इलाके में ऐसी अनगिनत उलझनें थीं, जिनमें हजारों लोग फंसे हुए थे. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में लंबित तीन याचिकाएं नर्मदा बचाओ आंदोलन की टीम को विस्थापन के दस साल बाद भी व्यस्त बनाए रहीं. जो कुछ भी ठीक हुआ वह आलोक अग्रवाल, शिल्वी, चितरूपा जैसे कार्यकर्ताओं के संघर्ष का नतीजा है, जिन्हें मध्य प्रदेश के व्यापमं ब्रांड सरकारी तंत्र ने हमेशा हतोत्साहित किया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हरसूद विस्थापन का कवरेज करते हुए इसे करीब से देखा और इसे अपनी किताब ‘हरसूद 30 जून’ में संकलित किया है)

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