हिंदी में एक कहावत है – दूसरों के घरों में झांकने से पहले अपना आंगन बुहार लेना चाहिए. शायद राहुल गांधी और उनकी पार्टी को अभी सबसे ज्यादा यही करने की जरूरत है. केवल दिल्ली और पूरे देश वाली दिल्ली, दोनों की सरकारें आज कांग्रेस की हैं. हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, असम, केरल सहित देश के अन्य 12 राज्यों में भी कांग्रेस या उसके गठबंधन की ही सरकारें हैं. तो क्या इन राज्यों को उन्होंने आदर्श की स्थिति में पहुंचा दिया है? क्या यहां गांधी-नेहरु के सपनों के 10 फीसदी पर भी चलने वाली सरकारों का राज है? क्या इन प्रदेशों में मनरेगा से लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की दूसरी तमाम योजनाएं बढ़िया से चल रही हैं? क्या यहां भ्रष्टाचार पर लगाम लगते और इस मोर्चे पर स्थिति सुधरती दिख रही है? क्या यहां कांग्रेस की स्थिति हर बीते दिन के साथ सकारात्मक बदलावों के चलते बेहतर हो रही है? अगर ऐसा नहीं है तो राहुल किस मुंह से अपनी पार्टी के कब्जे से बाहर वाले राज्यों को रंगीन बाग दिखाए जा रहे हैं? क्या वे देश की जनता को इतना नादान समझते हैं कि बाकी जगह उनकी पार्टी की सरकारें क्या कर रही हैं या वे उनसे क्या करवा पा रहे हैं इसका उसे कोई भान ही नहीं है? पहले अपना घर दुरुस्त करने वाली बात को रेखांकित करना इसलिए भी जरूरी है कि नेहरू-गांधी परिवार के परंपरागत चुनाव क्षेत्रों – अमेठी, रायबरेली, सुल्तानपुर – में ही कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया. यानी दुनिया भर की दशा बदलकर उसे संतुष्ट करने का दावा करने वाले लोगों पर उनके घर के लोगों को ही भरोसा नहीं हो पा रहा है.
अगर 2012 के परिणामों की नजर से राहुल के नजदीकी भविष्य पर नजर डालें तो 15वीं लोकसभा में उनका प्रधानमंत्री न बनना अब लगभग तय हो चुका है
एक और कहावत है – थोथा चना बाजे घना. इस बार के चुनावों में राहुल का व्यवहार कुछ-कुछ ऐसा भी रहा. युवावस्था में गुस्सा आना स्वाभाविक है. चुनावों की गरमा-गरमी में दो-चार बातें इधर-उधर की कह जाना भी चलता है. मगर दूसरी पार्टी के चुनावी घोषणापत्र को ही फाड़कर फेंक देना सार्वजानिक और राजनीतिक शिष्टाचार की हर सीमा को लांघ जाना है. अगर केवल भारतीय क्रिकेट टीम का उपकप्तान बनाए जाने पर विराट कोहली पर यह सवाल उठ रहा है कि कई बार उनका व्यवहार संयत नहीं होता तो राहुल तो पूरे देश का ही कप्तान बनने के दावेदार माने जा रहे हैं. वे उम्र में भी विराट कोहली से करीब 20 साल बड़े हैं.
अगर उनके पिता की ही बात करें तो राजीव गांधी उनकी आज की उम्र से दो साल पहले ही देश के प्रधानमंत्री बन गए थे. उन्हें राजनीति का अनुभव भी राहुल से काफी कम था. ब्रिटेन के वर्तमान प्रधानमंत्री डेविड केमरन भी मात्र 43 साल की उम्र में बिना किसी राजनीतिक विरासत के प्रधानमंत्री बन गए थे. मगर राहुल सक्रिय राजनीति में आने के आठ साल बाद भी राजनीति के नौसिखिये बने हुए हैं. बुनियादी जरूरतें तो आज भी हमारे देश की 70 फीसदी आबादी की वही बिजली, पानी, सड़क, रोजगार आदि ही हैं. तो कितनी जगह और कितनी बार इन्हें जानने-समझने की राहुल को जरूरत है! क्या वे इतने कमजोर छात्र हैं कि उन्हें 12वीं कक्षा की उम्र में भी पांचवीं कक्षा का पाठ लगातार पढ़ते रहना होता है? क्या उन्हें देश के सामने खड़े 12वीं कक्षा के सवालों को समझने और उन्हें हल करने के लिए कुछ करने की जरूरत महसूस नहीं होती?
अगर 2012 के परिणामों की नजर से राहुल के नजदीकी भविष्य पर नजर डालें तो 15वीं लोकसभा में उनका प्रधानमंत्री न बनना अब लगभग तय हो चुका है. अगर चुनावों के परिणाम अनुकूल होते और केंद्र सरकार कुछ और मजबूत होती तो बहुत संभावना थी कि किसी बहाने से मनमोहन सिंह को हटाकर उनके स्थान पर राहुल को लाया जाता. मगर 70 असंतुलित बैसाखियों पर टिकी सरकार का प्रधानमंत्री बनने से शुरुआत करने का साहस राहुल शायद ही कर सकेंगे. अब जो होगा वह शायद यह कि यदि आगे का कुछ समय कांग्रेस के लिए थोड़ा अच्छा रहता है और विपक्ष की हालत में कोई खास सुधार नहीं होता तो अगला आम चुनाव पार्टी राहुल के नेतृत्व में लड़ सकती है. नहीं तो, नेतृत्व तो राहुल का ही रहेगा मगर शायद उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की बात चुनाव से पहले न कहकर एक बचाव का रास्ता बचाकर रखा जाए. राहुल और कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता क्या हो इस बारे में विचार करने के लिए उन्हें उस प्रदेश की ओर ही देखना होगा जिसे वे अपना कहते हैं और जिसने उन्हें हालिया चुनावों में सबसे बड़ा सबक सिखाया है.
अगर आज से दो साल पहले की बात करें तो समाजवादी पार्टी एकदम विलुप्ति के कगार पर खड़ी नजर आ रही थी. 2007 के विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार के बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में भी उसकी सीटें 37 से घटकर 23 पर पहुंच गई थीं. इसके बाद फिरोजाबाद उपचुनाव में अखिलेश की छोड़ी सीट से उनकी पत्नी डिंपल को भी राज बब्बर के हाथों शर्मनाक हार झेलनी पड़ी थी. मगर इसके बाद जो किया गया वह बड़ा सोच-समझकर बिना शोर-शराबे के हुआ. पार्टी की कमान एक प्रकार से अखिलेश के हाथों में सौंप दी गई. अमर सिंह सरीखे अनुपयोगी लोगों को पार्टी से चलता कर दिया गया. और अपनी गलतियों को न केवल मुलायम और अखिलेश ने माना बल्कि सार्वजनिक तौर पर उन्हें स्वीकार करके उनके लिए जनता से माफी भी मांगी. परिणाम आज सारी दुनिया के सामने है.
अगले लोकसभा चुनाव में भी अभी दो साल से कुछ ज्यादा का समय है. कुछ से कुछ ज्यादा अनुपयोगी बल्कि नुकसानदेह लोग राहुल के साथ भी हैं. और कुछ गलतियां उनसे भी हुई ही होंगी. तो राहुल ने जो कुछ भी अब तक सीखा है उसका इस्तेमाल करते हुए उन्हें इन सभी चीजों से पार पाने के प्रयास करने ही होंगे. नहीं तो वे केवल दुआ ही कर सकते हैं कि उनके सामने वाली पार्टियां इतनी मजबूत न हो जाएं कि वे उनकी और उनकी पार्टी की कमजोरियों का फायदा उठा लें.