कुछ समय पहले लोकसभा सत्र के दौरान एक वीडियो के सामने आने पर काफी हो हल्ला मचा था. वीडियो में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सदन में चल रही महंगाई पर चर्चा के दौरान सोते हुए दिखाई दिए. मीडिया और कांग्रेस के आलोचकों ने मामले पर चुटकी लेते हुए कहना शुरू किया कि देखिए कैसे सदन में इतनी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही है और कांग्रेस के ‘पीएम इन वेटिंग’ खर्राटे भर रहे हैं. कांग्रेस जैसा कि अपेक्षित था राहुल की बंद आंखों के पीछे का अध्यात्म समझाती नजर आई. कोई राहुल द्वारा आंखें बंद करने को उनके गहन चिंतन में लीन होना बता रहा था तो कोई यह कहते हुए मानव शरीर का विज्ञान समझा रहा था कि नींद तो प्राकृतिक जरूरत है, आंख तो किसी की भी लग सकती है. कुछ कांग्रेसी वीर आगे बढ़कर वे तमाम तस्वीरें और वीडियो ले आए जिनमें अलग-अलग समय पर भाजपा समेत अन्य दलों के नेता आंख बंद कर नींद का आनंद ले रहे थे. इन सबके बीच कांग्रेसियों का एक धड़ा ऐसा भी था जो राहुल के सोने को पार्टी की सोई हुई किस्मत से जोड़ रहा था. इस तबके का कहना था कि जिसके हाथ में पार्टी की कमान है अगर वही सो रहा है तो पार्टी की स्थिति क्या होगी.
राहुल सो रहे थे या चिंतन में लीन थे यह तो वही बता सकते हैं लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से आज के दिन तक के कांग्रेस के सफर पर नज़र डालने से पता चलता है कि 16 मई को आए परिणामों में पार्टी की जो दुर्गति हुई उसे बीते करीब सौ दिनों में और गति मिली है.
हार के बाद के कांग्रेस के प्रदर्शन को मुख्य रूप से दो आधारों पर देखा जा सकता है. पहला हिस्सा पार्टी और उसकी आंतरिक स्थिति से जुड़ा है. दूसरा सदन और सड़क पर विपक्ष के नाते उसके प्रदर्शन से संबंधित है.
भीतर केे हाल
पार्टी के रूप में कांग्रेस के 16 मई के बाद से आज तक के सफर पर नज़र डालें तो पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनावों में उसकी हार ने उसके भीतर पहले से पल रहे गुस्से को जुबान दे दी. कैसे चुनाव में पार्टी की हुई बुरी हार से उसके नेताओं को पार्टी लाइन के इतर कुछ और कहने की हिम्मत मिल गई. सबसे पहले पार्टी के पूर्व सांसद मिलिंद देवड़ा ने पार्टी की हार के लिए दबी जुबान में राहुल को जिम्मेवार ठहराया. देवड़ा ने यह कहते हुए राहुल पर हमला बोला कि सलाहकारों से गलत सलाह लेने वाला व्यक्ति भी उतना ही जिम्मेवार है जितना गलत सलाह देकर चुनाव हरवाने वाले सलाहकार.
जैसे-जैसे समय गुजरता गया पार्टी नेताओं का नेतृत्व पर हमला भी बढ़ता गया. हार से पचासवें दिन के आसपास पंजाब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जगमीत बरार का बयान आया कि राहुल गांधी और सोनिया को अगले दो सालों तक पार्टी की कमान छोड़कर देश भ्रमण पर निकल जाना चाहिए. उन्हें पार्टी की कमान किसी और के हाथों में सौंप देनी चाहिए. मीडिया में आए बरार के बयान में उन्हें यह कहते बताया गया कि सोनिया और राहुल कुछ समय तक पार्टी को बख्श दें तो उसकी स्थिति जरूर बेहतर हो जाएगी. अपनी इन बातों के साथ ही बरार ने अध्यक्ष के लिए 10 साल से अधिक का कार्यकाल नहीं होने की भी मांग की. बरार ने सार्वजनिक तौर पर यह आरोप भी लगाया कि कांग्रेस के बड़े नेता आम कार्यकर्ताओं के साथ आवारा कुत्तों से भी बदतर व्यवहार करते हैं.
केरल में कांग्रेस के कई नेता सार्वजिनक तौर पर मोदी सरकार की तारीफ करते दिखे. स्थिति यह थी कि इसको लेकर कांग्रेस में ही वहां लडाई हो गई. केरल कांग्रेस मोदी प्रशंसकों और मोदी विरोधियों में बंट गई
इधर बरार हाईकमान को कमान छोड़ने की सलाह दे रहे थे तो दूसरी तरफ केरल में पार्टी नेता टीएच मुस्तफा राहुल गांधी को जोकर बताते नजर आए. यही नहीं पिछले चार महीनों में केरल कांग्रेस ने कई मौकों पर मोदी सरकार की तारीफ की है. हाल ही में ईराक से नर्सों को सुरक्षित भारत लाने पर केरल में कांग्रेस के कई नेता सार्वजिनक तौर पर मोदी सरकार की तारीफ करते दिखे. स्थिति यह थी कि इसको लेकर कांग्रेस में ही वहां लड़ाई हो गई. केरल कांग्रेस मोदी प्रशंसकों और मोदी विरोधियों में बंट गई.
हंगामा उस समय भी मचा जब कुछ समय पहले ही पार्टी के महासचिव और कभी राहुल गांधी के गुरु बताए जाने वाले दिग्विजय सिंह ने उनपर यह कहते हुए सवाल खड़ा कर दिया कि कैसे राहुल की शासक वाली तबीयत नहीं है और कैसे राहुल में मुखरता की कमी के कारण पार्टी लोगों की नजरों में कमजोर दिखी. इस वजह से चुनाव में युवा राहुल जैसे 44 साल के युवा की तरफ आकर्षित होने की बजाय 64 साल के मोदी की तरफ चले गए.
बीते 120 दिनों में राहुल की क्षमताओं को लेकर सार्वजिनक रूप से लगातार प्रश्न उठते रहे. उन पर सवाल उस समय भी उठा जब पार्टी ने लोकसभा में अपने नेता के रूप में दक्षिण से आने वाले मल्लिकार्जुन खड़गे का चुनाव किया. पार्टी का एक बड़ा वर्ग इससे सहमत नहीं था. इसका कहना था कि चूंकि चुनाव में पार्टी का चेहरा राहुल थे और उसकी जीत की स्थिति में वे ही प्रधानमंत्री बनते तो नेता विपक्ष की जिम्मेवारी भी उन्हीं को लेनी चाहिए. दिग्विजय सिंह ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि अगर राहुल को पार्टी का नेतृत्व करना है तो उन्हें सामने आकर करना चाहिए.
बीते सौ-सवा सौ दिनों में पूरे नेतृत्व को लेकर प्रश्न तो उठे ही, राहुल गांधी को लेकर पार्टी के भीतर हताशा, संदेह और नाराजगी वाले सवालों की सूची और बढ़ती गई. लेकिन राहुल इस दौरान एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पार्टी के एक कार्यकर्ता के मुताबिक ‘माटी के माधव’ ही बने रहे. ऐसा नहीं था कि राहुल को लेकर पार्टी नेताओं की हताशा बीते 100 दिनों की ही उपज है. संदेह और ‘राहुल से न होगा’ जैसी भावना पार्टी के कई नेताओं में बहुत पहले से थी लेकिन लोकसभा के परिणामों ने उसे और मजबूती दे दी. बाकी की कसर खुद राहुल ने हार के बाद अपनी निष्क्रियता से पूरी कर दी है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘पहले से ही कार्यकर्ताओं में राहुल को लेकर कोई जोश नहीं था. लेकिन सब हां में हां मिलाते रहे. लेकिन जब आप चुनाव हार गए और आप प्रधानमंत्री नहीं बन सकते लेकिन आगे वही बनने का आपका ख्वाब है तो फिर संसद में पार्टी को लीड करो ना भाई. वहां क्यों पीछे भाग रहे हो. उनके इस कदम से कार्यकर्ताओं में रहा सहा भ्रम भी दूर हो गया है. नेता में संघर्ष करने और जिम्मेदारी उठाने का दम होना चाहिए जो उनमें नहीं है.’
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई इसे राहुल के पार ले जाने की बात करते हैं. वे कहते हें, राहुल ही नहीं लोकसभा चुनावों में हार ने सबसे बडा प्रश्न पूरे गांधी परिवार पर लगाया है. पूरी फैमली फ्लॉप साबित हुई है.’
हालाकि रशीद के विपरीत ऐसी सोच वालों की कमी नहीं है जिन्हें प्रियंका गांधी उम्मीद के तौर पर दिखाई दे रही हैं. 16 मई के बाद के दिनों में ‘प्रियंका लाओ, पार्टी बचाओ’ का नारा पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की तरफ से और भी बुलंद हुआ है. तमाम शहरों में इस आशय के पोस्टर बैनर दिखाई दे रहे हैं. पार्टी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग मुखर होकर यह कहने लगा है कि अब राहुल से नहीं होगा और प्रियंका ही पार्टी का बेड़ा पार लगा सकती हैं. ऐसा नहीं है कि प्रियंका में प्रताप बस कार्यकर्ताओं को ही दिख रहा है. कुछ समय पहले ही पार्टी के वरिष्ठ नेता और महासचिव जनार्दन दिवदी ने प्रियंका पर बयान देते हुए कहा था कि प्रियंका गांधी की बचपन से ही राजनीति में रुचि है. द्विवेदी का कहना था, ‘जहां तक मुझे जानकारी है, राजनीति में प्रियंका की रुचि बहुत कम उम्र से ही थी. वे राजनीतिक घटनाओं की गहराई को शुरू से ही समझना चाहती थीं. प्रियंका की राजनीतिक समझ के बारे में 1990 में ही राजीव जी ने मुझे बता दिया था.’
जनार्दन दिवदी के इस बयान के कुछ समय बाद ही पार्टी के एक अन्य वरिष्ठ नेता ऑस्कर फर्नाडिस ने प्रियंका को और सक्रिय भूमिका दिए जाने की वकालत की. उनका कहना था कि प्रियंका को पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जानी चाहिए. उनमें बहुत क्षमता है. ऑस्कर के बाद पूर्व मंत्री जयराम रमेश भी प्रियंका को राहुल से अधिक करिश्माई बताते हुए प्रियंका लाओ मुहिम में शामिल होते दिखे.
‘प्रियंका लाओ, पार्टी बचाओ’ वाली इस मुहिम में सबसे आगे इलाहाबाद के कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं. ‘कांग्रेस का मून, प्रियंका कमिंग सून’ सरीखे पोस्टर वहां पिछले 100 दिनों में कई दफा दिखाई दिए. इलाहाबाद के कांग्रेस कार्यकर्ता अजय तिवारी कहते हैं, ‘ देखिए राहुल भैया का टेस्ट दूसरा है. वो अलग टाइप के इंसान हैं. सीधे आदमी हैं. अभी की जो राजनीति हो रही है उसको प्रियंका दीदी सही से हैंडिल कर सकती है.’
खैर, इस तरह से पूरी पार्टी में एक धड़ा मजबूती से प्रियंका को पार्टी का चेहरा बनाने की मांग कर रहा है. चुनाव हारने के बाद पिछले 100 दिनों में यह मांग और मुखर हुई है. लेकिन इसका सबसे मजेदार पहलू यह है कि जैसे ही यह चर्चा गर्म होती है प्रियंका खुद इस पर पानी डाल देती हैं. प्रियंका के ऐसा करने को पार्टी के एक नेता उनकी मजबूरी बताते हैं.
कांग्रेस के शैडो ट्विटर अकाउंट्स को जनता ने कितनी गंभीरता से लिया ये उन अकाउंट्स के फॉलोवर्स की संख्या देखकर पता चलता है. किसी के 22 फॉलोवर हैं तो किसी के 24 या 64
‘प्रियंका भी जानती हैं कि पार्टी कार्यकर्ता क्या चाहते हैं. लेकिन जब सोनिया जी ही कह देती हैं कि प्रियंका अमेठी और रायबरेली तक सीमित रहेंगी तो फिर प्रियंका के पास विकल्प क्या बचता है. सोनिया जी ने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन लिया है. वो राहुल हैं. अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया. अब या तो प्रियंका पावर के लिए अपनी मां और भाई से युद्ध करें जोकि वो कर नहीं सकतीं.’ गांधी परिवार के करीबी एक कांग्रेसी नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘अपनी तरफ से घरवाले जो दे दें लेकिन भारतीय समाज में लड़कियां घरवालों से अपना हिस्सा नहीं मांगती क्योंकि उन्हें डर होता कि ऐसा करने के बाद जब वो अगली बार मायके आएंगी तो कोई उन्हें पानी के लिए भी नहीं पूछेगा. इसी मनःस्थिति से प्रियंका भी जूझ रही हैं.’
प्रियंका के पक्ष में हो रही बयानबाजी और लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल पर लगातार हो रहे हमलों के कारण पार्टी के भीतर अलग युद्ध चल रहा है. राहुल की लगातार हो रही आलोचना और प्रियंका से उनकी तुलना के कारण कांग्रेस के भीतर राहुल कांग्रेस का भी तेजी से उदय हुआ है. आज से लगभग 30 दिन पहले पार्टी के तकरीबन 16 पार्टी सचिवों ने कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी से मुलाकात की. इन सचिवों की मांग थी कि राहुल के खिलाफ जो भी पार्टी के बड़े नेता बयानबाजी कर रहे हैं उनको तत्काल ऐसा करने से रोका जाए. सारे महासचिवों और वरिष्ठ नेताओं को उनकी तरफ से एक चिट्ठी भेजी जाए कि किसी रूप में सार्वजनिक तौर पर राहुल गांधी की आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाएगी. अगर बयानबाजी बंद नहीं हुई तो इन नेताओं से भी उनके राजनीतिक जीवन का हिसाब-किताब लिया जाएगा. और यह सब सार्वजनिक होगा. द्विवेदी सचिवों के इस आक्रामक रवैये से हतप्रभ थे. उन्होंने इस मांग स्वीकारते हुए सारे महासचिवों और कई वरिष्ठ नेताओं को इस बाबत चिट्ठी भेज दी.
राहुल के बचाव में उतरी सचिवों की टीम को पुराने और नए कांग्रेसियों के बीच बढ़ती तकरार से जोड़ कर भी देखा जा सकता है. राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘पार्टी अब दो खेमों में बंट गई हैं. एक तरफ सोनिया कांग्रेस है तो दूसरी तरफ राहुल कांग्रेस. दोनों समूहों में तनातनी जारी है.’
जानकार बताते हैं कि इस तनातनी की शुरूआत उसी समय हो गई थी जब राहुल ने पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की बात शुरु की. पार्टी के एक सचिव कहते हैं, ‘ पार्टी के वरिष्ठ नेता राहुल के प्रयोगों से हमेशा नाखुश रहे. राहुल ने पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने की जो पहल शुरू की उससे ये लोग हमेशा नाराज रहे. क्योंकि पहले ये अपने पिट्ठुओं को एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में भरते थे. आम कांग्रेसी को कभी उसमें जगह नहीं मिलती थी. अगर सही मायने में कांग्रेस संगठन का लोकतांत्रीकरण हो गया जो कि राहुल चाहते हैं और संगठन के चुनाव होने लगे तो इन लोगों की दुकानें बंद हो जाएंगी.’
लोकसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी के भीतर संगठन के चुनाव कराने की चर्चा एक बार फिर गर्म हुई थी. पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद कमलनाथ का कहना था कि कांग्रेस की स्थिति सुधारने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि वर्किंग कमिटी का चुनाव किया जाए. पहले एक निर्वाचित वर्किंग कमिटी बनाई जानी चाहिए. बकौल कमलनाथ, ‘हमें पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है. लेकिन पार्टी में कई ऐसे नेता है जो इसका विरोध करते हैं. एक बार चुनाव हो जाएं तो फिर ऐसे लोगों को संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा.’
कमलनाथ और पार्टी के कई अन्य नेताओं के संगठन के चुनाव कराने संबंधी बयान आने के बाद राहुल ने उससे सहमति जताई थी. उनका कहना था कि उनका प्रयास है कि पार्टी में ब्लॉक स्तर से लेकर अध्यक्ष पद तक के लिए चुनाव होना चाहिए. पार्टी के एक युवा नेता कहते हैं, ‘राहुल की इसी सोच के कारण ये नेता लोकसभा हारने के बाद उनके पीछे पड़े हुए हैं. ये लोग हर सार्वजनिक मंच पर राहुल को नाकाबिल ठहराने में लगे हैं. ये कांग्रेसी राहुल की राजनीतिक हत्या करना चाहते हैं. ये लोग प्रियंका जी के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं. राहुल विरोधी इन कांग्रेसियों ने ही हाल में मीडिया में यह खबर प्लांट कराई कि राहुल अपनी बहन प्रियंका के बड़े बेटे को गोद लेने वाले हैं. और अब वही उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी होगा.’
चुनाव हारने के बाद पार्टी के सामने एक बड़ी चुनौती इस रूप में भी आई कि उसके कई नेता उसका दामन छोड़कर या तो बाहर जा चुके हैं, या ऐसा करने की तैयारी कर रहे हैं. एक महीने पहले ही 45 साल से पार्टी का झंडा-डंडा उठाकर घूमने वाले हरियाणा के खांटी कांग्रेसी नेता चौधरी बीरेंद्र सिंह ने पार्टी को अलविदा कह दिया. बीरेंद्र, सोनिया के समर्थन में कांग्रेस छोड़कर तिवारी कांग्रेस में शामिल हो गए थे. महाराष्ट्र में कुछ समय पहले शिवसेना से पार्टी में आए नारायण राणे आर या पार की मुद्रा में आ गए थे. खुद को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी मांग से निपटने के लिए पार्टी को बहुत पापड़ बेलने पड़े. असम में पार्टी की करारी हार के बाद तरुण गोगोई ने सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंपा जिसे सोनिया ने खारिज कर दिया. सोनिया के इस्तीफा खारिज करने संबंधी निर्णय का असम में पार्टी के कई विधायकों ने सरेआम विरोध किया. वहां स्वास्थ्य मंत्री हिमांता बिस्व सर्मा समेत कई कांग्रेसी इस्तीफा देकर बाहर जा चुके हैं.
पिछले कुछ समय में हुए उपचुनाव पार्टी के लिए थोड़ी राहत जरूर लेकर आए. उसे उत्तराखंड, बिहार, कर्नाटक, राजस्थान में हुए उपचुनावों में सफलता मिली. पार्टी की वरिष्ठ नेता और यूपी की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं, ‘देखिए तेजी से लोगों का मोदी सरकार से मोहभंग हो रहा है.
इसी का नतीजा आपको उपचुनावों में दिखाई दिया है. हमारा कार्यकर्ता फिर से खड़ा हो रहा है.’
जोशी को भले लगता है कि उनका कार्यकर्ता खड़ा हो रहा है लेकिन हकीकत यह है कि अभी भी स्थानीय स्तर पर अधिकांश राज्यों में पार्टी हताशा का माहौल है. आनेवाले दिनों में हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव होने वाले हैं. पार्टी इन दोनों जगहों पर लंबे समय से सत्ता में है. पार्टी हारती है या जीतती है यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा लेकिन इन राज्यों में उसकी गतिविधियों को देखें तो लगता है कि वह मनोवैज्ञानिक तौर पर पहले ही हार चुकी है. हरियाणा में एक पार्टी कार्यकर्ता केवल श्रीवास्तव कहते हैं, ‘पार्टी ने लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी कोई सबक नहीं लिया. आप देख ही रहे हैं पिछले तीन महीने से क्या चल रहा है. बडे नेता तो अपनी-अपनी नौकरियों पर वापस चले गए. किसी ने वकालत शुरु कर दी तो किसी ने कुछ और. गरीब कार्यकर्ता के पास क्या विकल्प बचा है. लोकसभा चुनाव में जो हुआ वो तो हुआ ही उसके बाद तो हालत और खराब होती जा रही है.’ केवल जैसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है जो पार्टी की दिन-प्रतिदिन हो रही फजीहत को देखने के लिए अभिशप्त हैं.
पिछले चार महीने में पार्टी नेताओं की गतिविधियों को देखें तो उससे नेतृत्व के अभाव के साथ ही पार्टी नेताओं की आपसी खींचतान का भी प्रमाण मिलता है. उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार ने जैसे ही पी सदाशिवम का नाम केरल के राज्यपाल के लिए फाइनल किया, कांग्रेस की तरफ से इस पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं. पार्टी नेता आनंद शर्मा ने जहां इसकी जमकर आलोचना करते हुए इसे गलत ठहराया वहीं पूर्व मंत्री मनीष तिवारी भाजपा के इस फैसले में कोई भी कानूनी गड़बड़ी नहीं है जैसा स्टैंड लेते नजर आए.
पार्टी में अव्यवस्था का क्या आलम है यह साक्षी महाराज के बयान से उपजे विवाद के समय भी पता चला. भाजपा नेता साक्षी महाराज द्वारा मदरसों पर दिए विवादित बयान के बाद पार्टी का एक धड़ा कुछ भी बोलने से बचता रहा. उसे लगता था कि इससे वे भाजपा के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने वाले जाल में फंस सकते हैं. वहीं मनीष तिवारी और राशिद अल्वी जैसे नेता भी थे जो साक्षी महाराज की उच्चतम स्वर में आलोचना करते दिखाई-सुनाई दिए. इस घटना के बाद ही पार्टी के संचार सेल प्रमुख अजय माकन ने ट्विट कर कहा कि पार्टी के प्रवक्ताओं को ही केवल पार्टी का दृष्टिकोण रखने का अधिकार है. माकन ने लगे हाथ पार्टी के प्रवक्ताओं की सूची भी जारी कर दी.
‘अगर जनार्दन दिवेदी को पता है कि प्रियंका काबिल हैं तो क्या प्रियंका की मां को नहीं पता कि उनके बेटे और बेटी में से काबिल कौन हैं. लेकिन उन्होंने राहुल जी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया’
माकन के इस कदम को पार्टी के एक धड़े ने मुंह बंद रखने की धमकी के तौर पर देखा. लेकिन जिन मनीष तिवारी और राशीद अल्वी के कारण यह किया गया था वे चुप होने वालों में नहीं थे. कुछ समय बाद ही तिवारी का बयान आ गया कि वे पार्टी के बहुत पुराने कार्यकर्ता हैं और उन्हें अपनी बात रखने से कोई नहीं रोक सकता.
बयानों के कारण पार्टी की फजीहत उस समय भी हुई जब जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि 60-70 साल के कांग्रेसी नेताओं को सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए. द्विवेदी के बयान को आनन फानन में पार्टी ने उनका निजी बयान बताकर राहत की सांस ली.
ऐसे उदाहरण पार्टी की उस दशा की तरफ ही इशारा करते हैं जहां नेतृत्व या तो नहीं है या फिर उसमें पहले वाली ताकत नहीं. एक भ्रम की स्थिति है. शीर्ष के कमजोर होने के कारण चीजें अधिक लोकतांत्रिक तो हो जाती हैं लेकिन उनके अराजक होने का खतरा बना रहता है.
संसद में और सड़क पर
संसद में और सड़क पर विपक्ष के रूप में कांग्रेस ने अभी तक अपनी भूमिका कुछ उसी तरह निभाई है जैसी हमारे अधिकांश बॉलीवुड कलाकार हॉलीवुड की फिल्मों में निभाते दिखते हैं. यानी उनका वहां होना न होना एक बराबर ही है.
चुनाव परिणामों ने जब पार्टी की झोली में कुल जमा 44 सीटें सौंपी उसी दिन से उसमें चर्चा शुरू हो गई कि सरकार तो गई ही नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी के भी लाले पड़ गए हैं. नेता प्रतिपक्ष के लिए 55 सीटों का होना जरूरी है. खैर पार्टी को जब पता चला कि अधिकार के तौर पर तो उसे नेता प्रतिपक्ष का पद मिलने से रहा सो उसने नैतिकता की दुहाई देनी शुरू कर दी. लेकिन भाजपा कांग्रेस के इस चक्कर में नहीं फंसी. पार्टी ने शुरू में ही अनौपचारिक तौर पर यह मैसेज दे दिया कि वह उस कांग्रेसी परंपरा को बनाए रखना चाहती हैं जिसमें संख्या कम होने पर विपक्ष को स्थान देने की गुंजाइश नहीं हुआ करती है.
कांग्रेस के पिछले चार महीने से अधिक के कार्यकाल का 95 फीसदी हिस्सा रागदरबारी के लंगड़ की तरह धर्म की उस लड़ाई में चला गया जिसमें पार्टी नैतिकता के आधार पर सत्ता पक्ष से नेता प्रतिपक्ष का पद देने की मांग करती रही. ऐसे में भाजपा सरकार बिना किसी खास विपक्षी ब्रेकर के टॉप गियर में ही चलती रही. कांग्रेस के साथ यहां दोहरा संकट था. पहला यह कि उसे नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए गिड़गिड़ाना पड़ रहा था. दूसरा भाजपा उसे विपक्ष के रूप में भी स्वीकार नहीं कर रही थी. वह विपक्षी दलों में एआईएडीएमके, बीजू जनता दल और तृणमुल कांग्रेस जैसे दल यहां तक कि सपा तक को संबोधित करती नजर आती थी, लेकिन कांग्रेस कांग्रेस की अनदेखी कर रही थी.
कांग्रेस के लिए इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह थी कि उसके जैसे ही विपक्ष में बैठी हुई पार्टियां भी उससे दूर भाग रही थीं. टीएमसी और एआईएडीएमके जैसी पार्टियों ने स्पीकर से विनती की कि सदन में सीटों का निर्धारण होते समय उन्हें कांग्रेस के साथ बैठने के लिए सीटें नहीं दी जाएं. ये पार्टियां कांग्रेस के साथ कहीं से जुड़ती हुई नहीं दिखना चाहती थीं. यहां तक कि लोकसभा की जिस उपसभापति की कुर्सी पर बैठने के अरमान कांग्रेस संजो रही थी उस पर पानी फेरते हुए भाजपा ने वह भी जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके को दे दी.
इस तरह से भाजपा ने तो सदन में कांग्रेस को हाशिए पर फेंका ही अन्य विपक्षी दलों ने भी उसे अछूत मानकर उससे दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझी. इसका उदाहरण उस समय भी दिखा जब मोदी के प्रिंसिपल सेक्रेट्री नृपेंद्र मिश्रा की अध्यादेश के माध्यम से हुई नियुक्ति पर संसदीय मोहर लगाने का समय आया. कांग्रेस सभी विपक्षी दलों से इसकी खिलाफत करने की साझा रणनीति बनाती रही. लेकिन तृणमूल और सपा-बसपा जैसी पार्टियों ने – जिन्होंने लोकसभा में इसका विरोध किया था – यूटर्न मारते हुए राज्यसभा में अध्यादेश समर्थन कर दिया.
जिन एक-दो मौकों पर कांग्रेस लोकसभा में थोड़ा सक्रिय दिखी उनमें से एक था मल्लिकार्जुन खड़गे का वह संबोधन जिसमें उन्होंने कांग्रेस को सौ कौरवों के सामने पांच पांडवों के समान बताया था. इसके अलावा राहुल भी जब सांप्रदायिक हिंसा पर चर्चा की मांग को लेकर लोकसभा के वेल में उतरे तो सदन के बाहर चर्चा का माहौल गर्म हो गया. लेकिन जब इसपर सदन में चर्चा हुई तो उन्होंने उस चर्चा में हिस्सा नहीं लिया. इन गिने-चुने अवसरों के अलावा कांग्रेस सदन में वही कर रही थी, जो करते हुए कैमरे ने राहुल गांधी को पकड़ा था. यानी वह सो रही थी.
पार्टी का बचाव करते हुए रीता कहती हैं, ‘देखिए विरोध के लिए अभी बहुत जल्दी है. हम सरकार के कामों पर नजर बनाए हुए हैं. जहां जरूरी होगा वहां जरूर हम विरोध करेंगे. हम पूरी तरह सक्रिय हैं.’
रीता भले सक्रियता की बात करें लेकिन सदन के बाहर सड़क पर भी कांग्रेस मोदी सरकार को किसी मुद्दे पर न तो सही से घेरते हुई दिखी और न ही दिल्ली दरबार पहली बार परिचित हो रहे नरेंद्र मोदी को अपने 10 साल के प्रशासनिक अनुभव के आधार पर कोई सलाह ही दे पाई. जो थोड़ा-बहुत उसने कुछ किया भी तो ऐसा था मानों किसी ने कनपटी पर बंदूक रखवाकर कराया हो. उल्टा, वह अपनी हरकतों से हास्य का संचार जरूर करती नजर आई.
उदाहरण के लिए. प्रधानमंत्री मोदी जब जापान यात्रा पर गए थे उसी समय राहुल गांधी अमेठी गए हुए थे. वहां लंबे समय से जनता बिजली कटौती से त्रस्त थी. सो सांसद महोदय को देखा तो अपना रोष व्यक्त करने लगी. जनता का गुस्सा देख राहुल ने मामला मोदी के सिर मढ़ने की ठानी. मीडिया से कहा कि आप देख रहे हैं देश की जनता कैसे बिजली कटौती से जूझ रही है लेकिन मोदी जी जापान में जाकर ड्रम बजा रहे हैं. जनता ने राहुल के बयान पर क्या सोचा यह तो पता नहीं लेकिन सोशल मीडिया पर लोग उनके इस बयान पर मनोरंजन करते जरूर दिखे.
जो राहुल गांधी पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा थे और जिनके ऊपर भाजपा को घेरने की प्राथमिक जिम्मेवारी थी, वे पिछले सवा-सौ दिन ईद का चांद बने रहे. राहुल से 20 साल ज्यादा उम्र वाले मोदी ने जहां चुनावों में उनसे ज्यादा रैलियां की, ज्यादा दूरी कवर की और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे छुट्टी पर जाते नहीं दिखे वहीं राहुल पिछले चार महीने में अधिकांश समय छुट्टी पर ही रहे. औपचारिक रुप से उनके बारे में मीडिया क्या बताएगा जब उनकी पार्टी के नेताओं को ही पता नहीं रहता कि वे देश में हैं भी कि नहीं. पूरी पार्टी को शर्मिंदा करने वाला वह वाकया लोगों के जहन में ताजा होगा जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विदाई भोज से राहुल गायब थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ शर्मनाक उनका गायब रहना नहीं था बल्कि ये था कि पार्टी के लोगों को पता ही नहीं था कि वे कहां हैं.’
पिछले चार महीनों में न तो राहुल ने कोई प्रेस कॉंफ्रेंस की और न ही सरकार के किसी कदम की मजबूत आलोचना. यहां भी मोर्चा संभालने का काम सोनिया गांधी ने ही किया. वे ही भाजपा की सांप्रदायिकता से जनता को आगाह करती नजर आईं. स्थिति को ऐसे समझा जा सकता है कि मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी.
मोदी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर कांग्रेस ने एक रचनात्मक कदम उठाते हुए दर्जन भर सरकारी मंत्रालयों के शैडो ट्विटर अकाउंट जरूर बनाए. यहां विशेषज्ञों की सेवा लेते हुए वह इन मंत्रालयों की कथित नाकामियां सामने लाती दिखी. लेकिन कांग्रेस के इस प्रयास को जनता ने कितनी गंभीरता से लिया ये उन ट्विटर अकाउंटों के फॉलोवरों की संख्या देखकर पता चलता है. किसी के 22 फॉलोवर हैं तो किसी के 24 या 64.
राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘पिछले चार महीनों में कांग्रेस हर मोर्चे पर फेल ही दिखाई दी है. पूरी पार्टी में हताशा का भाव है. न उसमें कहीं कोई जिम्मेदारी उठाता दिख रहा है और न ही जल्द इसमें बदलाव की ही सूरत दिख रही है.’
मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में बदलाव की खबरों पर सबसे अधिक मुखर विरोध संघ के संगठन भारतीय मजदूर संघ की ओर से सामने आया. कांग्रेस यहां भी मुंह में ही बोलती दिखाई दी
एक तरफ जहां मोदी सरकार की रचनात्मक आलोचना से पार्टी चूकती दिखाई दी वहीं उसके नेता समय-समय पर मोदी सरकार की प्रशंसा करके पार्टी की फजीहत भी कराते रहे. मोदी सरकार के शपथ लेने के एक महीने के भीतर ही तिरुअनंतपुरम से सांसद शशि थरूर ने मोदी की तारीफ करके पूरी पार्टी को सकते में डाल दिया. थरूर ने अपने एक लेख में लिखा ‘ बहुमत मिलने के बाद मोदी और बीजेपी के जिस रवैये का विरोधी दलों को अंदेशा था वह गलत साबित हुआ है. बीजेपी ने पुराने तरीकों को त्याग कर सभी को चौंका दिया है. मोदी के सकारात्मक रवैये के साथ सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश की हम प्रशंसा करते हैं और इस बदलाव की अनदेखी करना गलत होगा.’ थरूर के इस लेख के सामने आते ही कांग्रेस में हड़कंप मच गया. किसी को उम्मीद नहीं थी कि उनकी अपनी पार्टी का नेता एक महीने में ही मोदी सरकार को इस तरह का प्रशंसा पत्र भेंट करेगा. कांग्रेस थरूर की प्रशंसा से कितना बौखलाई थी यह मणिशंकर अय्यर के बयान से साबित हो जाता है. अय्यर ने थरूर की आलोचना करते हुए कहा कि उनके इस बयान के बाद लोकसभा में पार्टी की संख्या 44 से 43 हो गई है.
कुछ दिनों बाद ही थरूर ने एक बार फिर हंगामा तब मचाया जब मोदी सरकार में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से मुलाकात के बाद उन्होंने ट्वीट किया. थरूर ने लिखा कि भारत की शैक्षणिक चुनौतियों पर ईरानी के साथ अच्छी चर्चा हुई. मैं समर्पित और मिलनसार मंत्री की सराहना करता हूं. मानव संसाधान विकास मंत्रालय के लिए शुभकामनाएं.’ थरूर के इस ट्वीट के बाद फिर से कांग्रेस के कई नेता सफाई देते और मांगते दिखाई दिए.
अभी कुछ समय पहले ही कांग्रेस तब अवाक रह गई जब दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का ठीक उस समय एक बयान आया जब बीजेपी जोड़-तोड़ करके दिल्ली में अपनी सरकार बनाना चाहती थी, शीला का कहना था, ‘लोकतंत्र में चुनी हुई सरकारें हमेशा अच्छी होती हैं क्योंकि वे लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. और अगर बीजेपी सरकार बना सकती है तो यह दिल्ली के लिए अच्छा है.’ शीला के इस बयान से पहले तो पूरी पार्टी सकते में आ गई. फिर अपनी चिढ़ को छुपाते हुए पार्टी नेताओं ने कहा कि ये शीला जी के अपने विचार हैं. शीला द्वारा कांग्रेस को दिए इस जख्म पर भाजपा ने यह कहकर नमक रगड़ा कि शीला जी वरिष्ठ राजनेता हैं अगर कुछ कह रही हैं तो इसका मतलब है.
कांग्रेस को शीला दीक्षित से मिले जख्म अभी हरे ही थे कि दिग्विजय सिंह ने उस पर एक और हमला कर दिया. हाल ही में कश्मीर में आई बाढ़ और उससे मची त्रासदी को लेकर कांग्रेस मोदी सरकार पर हमलावर थी. तर्क वही पारंपरिक थे कि सरकार सो रही थी. लोगों को राहत नहीं मिल रही है. सरकार त्रासदी को लेकर गंभीर नहीं है आदि आदि. लेकिन कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पार्टी लाइन को छोड़कर किसी और पटरी पर ही दौड़ने लगे. दिग्विजय ने कश्मीर बाढ़ में मोदी सरकार के कार्यों की न सिर्फ प्रशंसा की बल्कि मोदी के पीओके में राहत पहुंचाने की पेशकश की भी खूब तारीफ की. इसके अलावा जिस जन-धन योजना को कांग्रेस अपनी पिछली सरकार का आइडिया बता रही थी उसके लिए दिग्विजय सिंह ने मोदी सरकार की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की.
फजीहत कराने के इस क्रम में कमलनाथ भी पीछे नहीं रहे. विनोद राय के इंटरव्यू से 2जी मामले में एक बार फिर शुरू हुई चर्चा के बीच कमलनाथ का बयान आया कि कैसे उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर 2जी आवंटन के बारे में चेताया था. कमलनाथ ने कहा, ‘मैंने उस वक्त प्रधानमंत्री को लेटर लिखकर 2जी आवंटन को लेकर आगाह किया था. यह लेटर सरकारी फाइलों में है’. अपने ही पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में पार्टी के ही वरिष्ठ नेता की टिप्प्णी से कांग्रेस एक बार और शर्मसार हुई.
करीब 125 दिनों के इसी कालखंड में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री जयराम रमेश मोदी को भारत का रिचर्ड निक्सन बताते नजर आए. एक साक्षात्कार में जयराम ने मोदी की तारीफ करते हुए कहा, ‘ मोदी में भारत के रिचर्ड निक्सन के तौर पर उभरने की पूरी क्षमता है. जिस तरह से निक्सन ने चीन को अमेरिका के लिए खोला, उसी तरह से मोदी में क्षमता है और वह चीन और पाकिस्तान से डील करते समय निक्सन जैसा बन सकते हैं. इन देशों से डील करने में जो आज़ादी मोदी के पास है वह मनमोहन सिंह के पास नहीं थी.’
हाल ही में मोदी के अमेरिका यात्रा पर उनके दिए भाषणों पर भी कांग्रेसी नेता विभाजित दिखे. एक धड़ा जहां मोदी के भाषणों की सार्वजनिक तौर पर तारीफ करता दिखा वहीं पार्टी का दूसरा वर्ग आलोचना कर रहा था. इस तरह से एक तरफ जहां कांग्रेस का एक धड़ा मोदी और उनकी सरकार की समय समय पर पिछले 125 दिनों में प्रशंसा करता दिखा वहीं पार्टी के दूसरे नेता दूसरे सुर में बात करते दिखाई दिए. इसे कांग्रेस समर्थक परिवक्वता और पार्टी में लोकतंत्र का उदाहरण बता सकते हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता.
आने वाले समय में कांग्रेस किस दिशा में आगे बढ़ेगी या उसने पिछली हार से कितना सीखा है इसका पता उस एंटनी कमेटी रिपोर्ट से भी चलता है जिसको लोकसभा चुनाव में हार के कारणों को पता लगाने की जिम्मेदारी दी गई थी. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि चुनाव में हार के लिए पार्टी का नेतृत्व अर्थात राहुल गांधी और सोनिया गांधी किसी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. नेतृत्व से कोई गलती नहीं हुई. अपनी रिपोर्ट में एंटनी ने नेतृत्व के अलावा पूरी कायनात को कांग्रेस की हार का जिम्मेवार ठहरा दिया. ऐसे आत्मनिरीक्षण के दम पर पार्टी का कल आज से कितना बेहतर होगा आने वाला समय ही बताएगा.