उत्तर प्रदेश की राजनीति लोकतंत्र का वह चमत्कार दिखा सकती है जो एक गरीब दलित की बेटी को देश के सबसे बड़े और ऐसे प्रदेश का चार बार मुखिया बना देता है जो जनसंख्या के लिहाज से दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश ब्राजील से भी बड़ा है. यहां की राजनीति ज्यादातर अन्य मामलों में भी अप्रत्याशित व्यवहार करती है. यहां किस व्यक्ति या पार्टी को चुनाव में जीत मिलेगी, यह सिर्फ उस व्यक्ति या पार्टी की बजाय एक ऐसे नाजुक संतुलन पर निर्भर करता है जो कई तत्वों के होने, न होने, होकर भी न होने या न होकर भी होने जैसी अजीबोगरीब स्थितियों से बन सकता है. इस वजह से यहां की राजनीति को साधना या समझना इतना मुश्किल है कि मझे हुए राजनीतिज्ञ और विश्लेषक भी हर तीसरे दिन इस पर अपनी समझ और धारणाएं बदल लेते हैं. इसके उदाहरण हर तीसरे दिन बदलते पार्टी के उम्मीदवारों और अखबारों के विश्लेषणों में देखे जा सकते हैं. आगे के पन्ने उन दस महत्वपूर्ण कारकों के बारे में बताते हैं जो काफी हद तक उत्तर प्रदेश की राजनीति को जैसी रहस्यमयी वह है वैसा बनाने के लिए जिम्मेदार हैं. गोविंद पंत राजू, जयप्रकाश त्रिपाठी, हिमांशु बाजपेयी और हिमांशु शेखर का आकलन
आसमानी अवसरवाद
पिछले कुछ वर्षों से चुनावों का सिलसिला उत्तर प्रदेश में कुछ इस तरह चल पड़ा है कि विधानसभा चुनाव खत्म होते नहीं कि लोकसभा चुनाव आ जाते हैं. फिर एक के बाद एक पंचायत, नगर पालिका और नगर निगम के चुनाव होते हैं. इससे प्रदेश कभी चुनाव की खुमारी से बाहर ही नहीं निकल पाता. लगातार होते रहने वाले चुनावों के बावजूद अपने जीवन में कोई बुनियादी बदलाव न आ पाने की स्थिति ने प्रदेश की जनता में एक किस्म की तटस्थता का भाव भर दिया है. शायद इसी कारण राज्य में मतदान का प्रतिशत निरंतर कम होता जा रहा है. उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए अब तक सर्वाधिक 56 फीसदी वोट 1974 में इंदिरा गांधी के दौर में पड़े थे. 2007 के चुनाव में बीएसपी की लहर के बावजूद मतदान सिर्फ 46 फीसदी ही हुआ था. उस चुनाव में 306 विजयी उम्मीदवार ऐसे थे जिन्हें कुल मत का 10 से 20 फीसदी ही मिला था. 20 विजयी उम्मीदवारों को तो 10 फीसदी से भी कम वोट मिले थे. 150 सीटें ऐसी थीं जिन पर जीत का अंतर 5000 से भी कम था.
यही गणित राज्य में जोड़-तोड़ और अवसरवादिता की राजनीति को पालता-पोसता रहा है. इसी का नतीजा है कि हाल ही में भाजपा ने बाबू सिंह कुशवाहा को 3-4 प्रतिशत कुशवाहा मतों के लिए पार्टी में शामिल कर लिया. उत्तर प्रदेश की राजनीति का मिजाज ही ऐसा है कि यहां हर पार्टी दूसरी पार्टी के विद्रोहियों को अपनी पलकों पर बैठाने को तैयार रहती है और एक दिन पहले ही दल बदल कर आए नेताओं को टिकट देकर सालों पुराने कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज करने में जरा भी संकोच नहीं करती.
पाला बदलने की राजनीति का पहला बड़ा प्रयोग यहां मुलायम सिंह यादव ने दिसंबर 1989 में किया था जब वे रातों-रात जनता दल के नेता बनकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे. दिसंबर 1993 में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत मुलायम सिंह ने बसपा से दोस्ती करके की और मुख्यमंत्री पद संभाला था. इसके बाद दोनों दलों के संबंध बिगड़े और दो जून, 1995 को लखनऊ में हुए स्टेट गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों दलों की राहें एकदम जुदा हो गईं. फिर शुरू हुआ बीजेपी और बीएसपी की दोस्ती और दुश्मनी का सिलसिला, जिसमें बीजेपी ने मायावती से धोखा खाने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति के सबसे सनसनीखेज दल-बदल को अंजाम दिया. कांग्रेस में बड़ी टूट हुई. नरेश अग्रवाल के एक दर्जन साथी कांग्रेस छोड़ कर लोकतांत्रिक कांग्रेस के रूप में और बसपा के 35 से अधिक विधायक जनतांत्रिक बसपा के रूप में कल्याण सिंह के साथी बने और उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी को सहारा दिया. आया राम-गया राम का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है. प्रदेश ने इसी दौर में जगदंबिका पाल के रूप में एक दिन का अभूतपूर्व मुख्यमंत्री भी देखा और इसी दौर में नरेश अग्रवाल, हरिशंकर तिवारी, चौधरी लक्ष्मीनारायण आदि अनेक ऐसे विधायकों की भी चल निकली जो हर सरकार में शामिल रहने का गुर सीख गए थे. अजित सिंह ने भी इसी दौर में सत्ता का स्वाद चखा और फिर हमेशा सत्ताधारी पार्टी का हिस्सा बने रहने का नुस्खा हासिल कर लिया जो आज भी उनके काम आ रहा है.
बुंदेलखंड की दर्जन भर सीटों पर कांग्रेस ने बसपा और सपा के उन नेताओं को टिकट दिए हैं जो कल तक उसके धुर विरोधी थे
आज उत्तर प्रदेश की राजनीति में नेताओं के लिए पार्टियां बदलना अचरज और नैतिकता की बात नहीं रही. ज्यादातर जनता को भला लगे या बुरा उनका अपना वोट बैंक (जात-धर्म पर आधारित) इससे ज्यादा प्रभावित नहीं होता. हाल के दिनों में भी इस तरह की घटनाओं की बाढ़-सी देखने को मिली जब नेताओं ने दल बदल किए और दूसरी पार्टियों ने उन्हें सिर-आंखों पर बैठाया. नरेश अग्रवाल और उनके पुत्र तमाम घाटों से होते हुए एक बार फिर से समाजवादी घाट लग गए. इसी तरह महज कुछ दिन पहले तक अजित सिंह की सबसे विश्वस्त रही अनुराधा चौधरी ने भी दूसरा दरवाजा देखने का फैसला किया तो मुलायम सिंह के दरवाजे पर ही दस्तक दी. जवाब में अजित सिंह का कहना था, ‘यह अवसरवाद है.’
बुंदेलखंड की कम से कम दर्जन भर सीटें ऐसी हैं जिन पर कांग्रेस ने बसपा और सपा के उन सिटिंग विधायकों और कार्यकर्ताओं को टिकट थमा दिया है जो कल तक उसके धुर विरोधी थे. भाजपा का किस्सा तो सबके सामने ही है. कुशवाहा के अलावा, अवधेश कुमार वर्मा और बादशाह सिंह के पुनर्वास का जुगाड़ उसने कर दिया था. बस कुशवाहा के मामले में थोड़ी फजीहत हो गई. यही दशा सपा की है. अखिलेश यादव डीपी यादव को पार्टी में लाने का विरोध करते हैं लेकिन बसपा से निकाले गए बलात्कार के आरोपित गुड्डू पंडित को शामिल करते जरा भी नहीं सोचते.
चरम पर मुसलिम राजनीति
यूं तो देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं लेकिन मुसलमान वोटों को लेकर जैसी मारामारी उत्तर प्रदेश में मची है वैसी किसी और राज्य में नहीं है. पिछले कुछ सालों में मुसलमान यहां वह बीमार बनकर उभरा है जिसकी खिदमत में सौ अनार हाजिर हैं. सपा, बसपा और कांग्रेस तो इसके पुराने दावेदार थे ही पर हाल का उत्तर प्रदेश काफी बदल गया है. आज यहां बहुत बड़ी तादाद में नए और छोटे दल उभर आए हैं जो खुद को मुसलमानों का असल पैरोकार बताते हैं. राजनीतिक विश्लेषक शमीम खान कहते हैं, ‘मुसलमानों के सामने पार्टियां ही बढ़ी हैं विकल्प नहीं.’ पीस पार्टी, उलेमा काउंसिल, नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी, परचम पार्टी, राष्ट्रीय इंकलाब पार्टी, वेलफेयर पार्टी, राष्ट्रीय पीस पार्टी, यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा, मोमिन कॉंफ्रेंस, कौमी एकता दल, इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल आदि नामों से भरी यह फेहरिस्त बड़ी लंबी है. इनमें से ज्यादातर की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद पंख लगे हैं, जिनमें मुसलमानों की बड़ी आबादी ने उत्तर प्रदेश में पहली बार सपा से अपने मोहभंग का संकेत दिया था.
इसके बाद की लड़ाई 2012 का चुनाव ही है जिसमें हर पार्टी मुसलमानों के आगे खुद को सपा के विकल्प के रूप में पेश करना चाहती है.
तकरीबन चार करोड़ मुसलमान देश के सबसे बड़े सूबे की लगभग 130 सीटों पर जीत-हार का फैसला करते हैं. इनमें से सत्तर सीटों पर वे बीस प्रतिशत से ज्यादा हैं और 40 पर 30 से 35 प्रतिशत के बीच. इसलिए मुसलमानों की हलकी सी करवट इस राज्य की सियासत की तस्वीर बदल सकती है. 2009 के चुनावों में सबने इसकी झलक देखी है. तब कल्याण सिंह के सपा में आगमन से नाराज मुसलमानों ने दशकों बाद कांग्रेस को खुश होने का मौका दे दिया था. इसी के चलते जहां सपा के सभी 11 मुसलिम प्रत्याशी चुनाव हार गए वहीं उम्मीद के विपरीत कांग्रेस जमानों बाद बीस लोकसभा सीटों के पार पहुंची. 2009 की चुनावी कामयाबी ने ही कांग्रेस का यह भरोसा मजबूत किया कि मुसलमानों को सपा से तोड़ा भी जा सकता है. इसी के चलते 2009 से 2012 तक दिग्विजय सिंह एक खास तरह की भूमिका में दिखे. यह भूमिका उनकी अपनी पार्टी के लिए सिरदर्द भी बनी. पीछे-पीछे राहुल गांधी भी बुनकरों के पैकेज, आरटीआई से मदरसों को बाहर करने और मुसलिम आरक्षण का समर्थन करते हुए मुसलमानों के बीच गए.
यह मुसलमानों की नाराजगी का भय ही था कि मुलायम सिंह को सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने पर मजबूर होना पड़ा और व्यक्तिगत हमले तक करने वाले आजम खां को पार्टी में मान-मनौव्वल करके वापस लाना पड़ा. इनके सहारे से ही मुलायम ने तीन बार उत्तर प्रदेश की सत्ता देखी और इसी की खातिर उन्होने मुल्ला मुलायम का संबोधन भी स्वीकार किया. मुसलिम राजनीति की नब्ज़ पहचानने वाले डॉ. खान आतिफ कहते हैं, ‘लंबे समय तक कांग्रेस मुसलमानों को दंगों और हिंदूवादी संगठनों का भय दिखाकर वोट लेती रही.’ इसके बाद मंदिर-मस्जिद के दौर में सपा ने कांग्रेस से ज्यादा आक्रामकता के साथ मुसलमानों की तरफदारी की और उनका सपा से जुड़ाव मौजूदा दौर तक आ पहुंचा है. पर अब यह जुड़ाव इतना सीधा और सरल नहीं है. झउआ भर सियासी पार्टियों के साथ-साथ उलमा के राजनैतिक हस्तक्षेप ने मुसलिम राजनीति को और भी उलझा दिया है. नदवातुल उलमा, दारूलउलूम देवबंद और फिरंगी महल जैसी कई इस्लामिक संस्थाएं इसी राज्य में हैं, जिनका प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बड़ा प्रभाव है. यही वजह है कि उलमा अपनी अलग पार्टी भी बनाते हैं और पार्टियों की गोद में भी बैठ जाते हैं. इसके लिए इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के बाद उनके वारिस राहुल गांधी को भी नदवा जाना पड़ता है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी फिरंगीमहल गेट बनवाते हैं और मुसलमानों को लगभग अछूत मानने वाली पार्टी भाजपा को भी लखनऊ में शिया उलमा के एक तबके को साथ लेकर चलना पड़ता है. अपने में ही उलझी मुसलिम राजनीति उत्तर प्रदेश की राजनीति को किस हद तक उलझा रही है अनुमान लगाना मुश्किल है.
जातिवाद और मंडल राजनीति की रंगभूमि
जातिवाद उत्तर प्रदेश की राजनीति का पुराना राग है तो मंडल आयोग के बाद पिछड़ों की राजनीति ने भी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें जमा लीं. उत्तर प्रदेश में इसी राजनीति ने कांग्रेस को हाशिए पर पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई. मुलायम के एम-वाई (मुसलिम-यादव) समीकरण ने समाजवादी पार्टी को और दलित-पिछड़ा गठजोड़ ने बसपा को प्रदेश की राजनीति की बड़ी ताकतें बना दिया. बाद में मुलायम सिंह ने इसमें क्षत्रियों को जोड़ने की जुगत भिड़ाई तो बसपा 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़कर नई ऊंचाइयों पर पहुंच गई.
2009 के लोकसभा चुनावों की कामयाबी ने ही कांग्रेस का यह भरोसा मजबूत किया कि मुसलमानों को सपा से तोड़ा भी जा सकता है
इस बार के चुनावों में भाजपा यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों, ब्राह्मणों आदि को अपने पक्ष में करने के प्रयासों में लगी है तो कांग्रेस महादलितों के लिए कोटा के भीतर कोटा की बात कर रही है. पिछड़ी जातियों को साधने के क्रम में भाजपा बसपा सरकार में मंत्री रहे और भ्रष्टाचार का प्रतीक बन कर उभरे बाबू सिंह कुशवाहा जैसे लोगों को भी अपनी पार्टी में शामिल करने से परहेज नहीं कर रही. उधर कांग्रेस अवसरवाद की नाव पर हर समय सवार रहने वाले राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह के साथ जातीय समीकरणों को साधने में लगी है. हद तो तब हो जाती है जब हमेशा नई तरह की राजनीति की बातें करते रहने वाले राहुल गांधी भी जातीय समीकरणों को साधने के लिए सैम पित्रोदा को बढ़ई बताने लगते हैं. आज अगर समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए बेनीप्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनावी अभियान की धुरी बने हुए हैं तो इसका कारण उनका कुर्मी समुदाय से होना भी है जो राज्य में 100 के करीब सीटों पर खासा प्रभाव रखती है.
उत्तर प्रदेश में चुनाव में टिकट पाने के लिए किस क्षेत्र में किस नेता ने जनता के बीच क्या और कैसा काम किया है, यह महत्वपूर्ण नहीं. योग्यता का असली पैमाना होता है कि उम्मीदवार की जाति क्या है. यहां जातीय संतुलन को साधने की कला को अंग्रेजी में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ या ‘सोशल जस्टिस’ जैसे आकर्षक नाम दिए गए हैं. हालत यह है कि चुनाव में प्रत्याशियों की सूची जारी करते हुए हर पार्टी यह बताना नहीं भूलती कि इस सूची में किस जाति के कितने उम्मीदवार हैं. अब तो अधिकारियों को भी यही कह कर नियुक्त किया जाता है कि वह फलां जाति का है.
राज्य में चुनावी गणित के खिलाड़ियों की पहली नजर इस बात पर टिकी रहती है कि राज्य में कुल वोटरों का 25 फीसदी हिस्सा पिछड़ी जातियों का है और लगभग 18 फीसदी मुसलिम, 13 फीसदी जाटव और 10 फीसदी जाट वोटर हैं. राज्य में दस फीसदी से अधिक ब्राह्मण और इससे कुछ कम यादव वोट हैं. लगभग नौ फीसदी अन्य दलित जातियां व शेष अन्य जातियां हैं. यही गणित राज्य के जनप्रतिनिधियों का सारा हिसाब-किताब बनाता-बिगाड़ता है.
बंटवारा या बंदरबांट
उत्तर प्रदेश देश का इकलौता राज्य है जहां की मुख्यमंत्री इसे चार टुकड़ों में बांटने की वकालत कर रही हैं. जबकि इनमें से तीन हिस्सों के लिए यहां कभी कोई गंभीर आंदोलन या मांग ही नहीं रही.
हरित प्रदेश या पश्चिमांचल जैसे शब्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए यदा-कदा उठते रहे हैं. राष्ट्रीय लोकदल इसकी पैरवी यदा-कदा करता रहा है. लेकिन उत्तराखंड, झारखंड या तेलंगाना की मांगों जैसी गंभीरता इसमें नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग करने की जो मांग है उसके पीछे विकास और सुशासन के तर्क से ज्यादा पिछड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश और सूखे बुंदेलखंड से पीछा छुड़ाने का भाव ज्यादा है. या फिर इस मांग के पीछे अजित सिंह की व्यक्तिगत राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं रही हैं.
पूर्वांचल की गाहे-बगाहे उठने वाली मांग अलग बोली और इलाके के पिछड़ेपन की बुनियाद पर टिकी है. लेकिन एक समग्र आंदोलन या क्षेत्रीय स्वाभिमान का तत्व इसमें से हमेशा नदारद रहा है. हालांकि अमर सिंह पूर्वांचल के बहाने अपनी राजनीति जमाने की कोशिश में लगे हुए हैं, लेकिन उनके अभियान का असर उनकी पार्टी की हैसियत जितना ही प्रभावी है.
अकेला बुंदेलखंड ऐसा इलाका है जहां अलग राज्य के लिए एक आंदोलन है. विकास का हर नारा बुंदेलखंड के लिए फीका रहा है. वन और खनिज संपदा की भरमार होने पर भी यहां आम आदमी के हिस्से बदहाली ही आती रही है. प्रदेश में भूख से दम तोड़ने वाले किसानों में भी सबसे अधिक इसी इलाके से होते हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा की तर्ज पर बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा यहां लंबे समय से आंदोलन की अलख जगा रहा है. इसके अलावा कुछ और राजनीतिक पार्टियां भी हैंजो बुंदेलखंड केंद्रित राजनीति कर रही हैं. हाल ही में खड़ी हुई बुंदेलखंड कांग्रेस के सर्वेसर्वा राजा बुंदेला हैं जिन्होंने कांग्रेस से अपनी राहें जुदा करके अलग राज्य के नाम पर अपनी राजनीतिक जमीन तलाशने का फैसला किया है. वर्तमान में यहां के 20 में से 14 विधायक बसपा के हैं और यह इलाका पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है.
राज्य विभाजन की इस पृष्ठभूमि में मायावती ने एक झटके में उत्तर प्रदेश को पश्चिम प्रदेश, पूर्वांचल, बुंदेलखंड और अवध प्रदेश के नाम से चार टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव कर दिया. न विपक्ष से कोई सलाह मशविरा किया गया और न ही राज्य की जनता से. नतीजा यह हुआ कि प्रस्तावित अवध प्रदेश में पड़ने वाले जिलों के तीन करोड़ 65 लाख से ज्यादा निवासी हक्के-बक्के रह गए. मायावती की इस घोषणा के पीछे अलग-अलग वजहें तलाशी जा रही हैं. कुछ लोग यह मानते हैं कि मायावती यह सोचती हैं कि जब वे केंद्र में राजनीति करें तो उनके क्षेत्रीय छत्रपों का कद बहुत बड़ा न होने पाए इसीलिए वे इस तरह का विभाजन चाहती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर प्रकाश कुमार कहते हैं, ‘यह विभाजन प्रस्ताव सोवियत संघ के बंटवारे के गोर्वाच्योफ के प्रस्ताव की तरह है. अगर यह प्रस्ताव मंजूर होता है तो इससे न सिर्फ भारत का संघीय ढांचा प्रभावित होगा बल्कि संसद का स्थायित्व भी गड़बड़ा जाएगा.’ केंद्र ने इस प्रस्ताव को फिलहाल वापस भेज दिया है और इसका मंजूर होना अभी बहुत दूर की कौड़ी है. मगर मौजूदा विधानसभा चुनाव में इस प्रस्ताव पर जनता का फैसला आना अभी बाकी है.
चार ध्रुवीय राजनीति
देश की राजनीति अभी एक ऐसे दौर में है जब कई चुनावों ने यह साबित किया है कि ऐंटी-इनकंबेंसी का प्रभाव घट रहा है. केंद्र के अलावा मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार, आंध्र प्रदेश और दिल्ली जैसे राज्यों में सत्ताधारियों की वापसी ने विपक्ष को कमजोर बनाकर एक ध्रुवीय राजनीति को मजबूती देने का काम किया है. ज्यादातर राज्य ऐसे हैं जहां राजनीति दो ध्रुवीय है. कहीं दो दलों के बीच तो कहीं दो गठबंधनों के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है. बिहार में सियासी त्रिकोण दिखता था लेकिन 2005 के पहले चुनाव में रामविलास पासवान द्वारा किसी पक्ष को समर्थन नहीं देने के बाद जब दूसरा चुनाव हुआ तो वहां भी त्रिकोण बिखर गया और दो ध्रुव ही बचे. 2010 ने तो बिहार में दूसरे ध्रुव को भी डिगा दिया. लेकिन बिहार से सटा उत्तर प्रदेश इस मामले में अपवाद है और अब भी यहां की राजनीति में चार ध्रुव बने हुए हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को बहुमत मिलने के अलावा सपा, भाजपा और कांग्रेस को भी इतनी सीटें मिली थीं कि उनका वजूद बचा रहे.
हालत यह है कि चुनाव में प्रत्याशियों की सूची जारी करते हुए हर पार्टी यह बताना नहीं भूलती कि इस सूची में किस जाति के कितने उम्मीदवार हैं
सबसे अधिक आबादी वाले इस राज्य की राजनीति की एक खासियत यह भी है कि यहां के चारों सियासी पक्षों ने कभी न कभी अपने बूते पंचम तल से प्रदेश पर राज किया है. 2007 में 206 सीटें बसपा को, 97 सपा को, 51 भाजपा को और 22 सीटें कांग्रेस को मिली थीं. इस चुनाव में भी ये चारों अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी जमीन को मजबूत करना भाजपा और कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी है ताकि उन्हें दिल्ली की सरकार बनाने में सहूलियत हो. सबसे ज्यादा सांसदों को चुनकर भेजने वाले इस राज्य के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की राह इधर से ही होकर गुजरती है. मायावती की पर्याय बसपा और मुलायम सिंह यादव की पर्याय सपा का अस्तित्व ही सूबे के जनादेश पर निर्भर करता है. इसलिए चुनावों में यहां हर सीट पर मारामारी दिखती है.
सूबे में अपना सांगठनिक ढांचा खो चुकी कांग्रेस को राहुल की संजीवनी का सहारा है. जब भी प्रदेश में कांग्रेसियों का हौसला टूटता है तो वे 2009 के लोकसभा चुनाव के नतीजों पर निगाह डालते हैं. कांग्रेस को इनमें 21 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. वैसे यह बात पार्टी के आला नेता भलीभांति जानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदान का पैटर्न बिल्कुल अलग होता है. कांग्रेस और भाजपा को सपा और बसपा के मुकाबले मजबूत उम्मीदवारों की कमी कई सीटों पर खल रही थी, लेकिन मायावती और मुलायम के बागियों के सहारे दोनों राष्ट्रीय पार्टियां चुनावी बैतरणी पार होने का सपना संजोए हुए हैं. इस चार ध्रुवीय लड़ाई में आम मतदाता इस बात को लेकर भ्रमित है कि वह किसके साथ खड़ा हो. क्योंकि कई सीटों पर सबका पलड़ा एकसमान दिखता है और नीतियों के स्तर पर भी चारों मोटे तौर पर समान दिख रहे हैं. वहीं सामाजिक और आर्थिक विविधता वाले इस प्रदेश के मतदाताओं ने भी अब तक राजनीतिक विविधता को बनाए रखने के पक्ष में ही जनादेश दिया है. यह सवाल बना हुआ है कि जब देश के दूसरे हिस्सों में राजनीतिक विविधता घट रही है तो क्या यह प्रदेश 2012 में भी उसी राह पर चलेगा या फिर चारों पक्षों को प्रदेश की राजनीति में जिंदा रखकर सूबे के राजनीतिक समीकरणों को उलझाए रखने का विकल्प ही चुनेगा.
मंदिर-मस्जिद विवाद
बाबरी ध्वंस के तकरीबन बीस साल बीत जाने के बावजूद आज भी उत्तर प्रदेश की लगभग हर राजनैतिक बहस में इस घटना का जिक्र आ ही जाता है. उत्तर प्रदेश से निकला मंदिर-मस्जिद विवाद उन कुछ राजनैतिक घटनाक्रमों में से है जो भारतीय राजनीति के एक पूरे दौर को रेखांकित करते हैं. भारत के किसी दूसरे राज्य में धर्मस्थल के मालिकाना हक की लड़ाई उस प्रदेश और समूचे देश की राजनीति पर इस तरह हावी नहीं रही. उत्तर प्रदेश की राजनीति आज जैसी दिखती है उसे वैसा बनाने में दैरो-हरम के झगड़े का बड़ा किरदार है. अजीबो-गरीब ढंग से इस मुद्दे ने शुरुआती दौर में भाजपा और सपा को दो कद्दावर राजनैतिक ध्रुवों में बदल दिया तो बाद के दौर में इसको लेकर निष्ठा-परिवर्तन उनके ढलान का कारण भी बना. मुलायम सिंह के पक्ष में यादवों के साथ मुसलमानों की गोलबंदी इस विवाद की ही देन है और दो दशकों से देश की राजनीति की अहम धुरी बनी बैठी भाजपा भी इसी के दम पर यहां विराजमान है.
इस मामले पर आए हाई कोर्ट के फैसले के बाद कायम रहा अमन यह बताता है कि जनता इस विवाद पर कुछ जरूरी सबक सीख चुकी है, लेकिन यह मुद्दा राज्य की राजनीति से कुछ इस तरह लिपटा है कि आने वाले कई दिनों तक इसके छूटने की उम्मीद नहीं है. भाजपा 2012 चुनावों के संदर्भ में अपनी महत्वाकांक्षी स्वाभिमान यात्रा की शुरुआत काशी और मथुरा से करती है तो समापन अयोध्या से. वहीं मुलायम कल्याण से दोस्ती के लिए मुसलमानों से माफी मांगते घूमते हैं साथ ही हाई कोर्ट के फैसले को मुसलमानों के साथ ठगी बताते हैं. ये वही कल्याण सिंह है जिनके दामन पर अयोध्या जमा हुआ है. और जिनके साथ की वजह से 2009 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह का एमवाई(मुस्लिम-यादव) किला लगभग दरक गया था. वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार कहते हैं, ‘बीते कुछ सालों में राजनैतिक हथियार के रूप में इसकी धार भले ही कुछ कम हो गई हो लेकिन लोगों के विचारों पर इसका असर अभी तक बना हुआ है. हिंदू और मुसलमान दोनों समाज इस मुद्दे से जुड़ाव रखते हैं. इसीलिए इस मुद्दे से हटने पर भाजपा को और कल्याण को लेने पर सपा को जनता सबक सिखा देती है.’
यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा की तरफ से चुनाव प्रचार का जिम्मा उमा भारती ने संभाला है और सपा की तरफ से आजम खां ने
भाजपा के सहयोगी संगठन आज भी अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराश रहे हैं. दूसरी पार्टियां भी अपने फायदे के लिए जख्मों की पपड़ी को उधेड़ती रहती हैं. मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड यूं तो शरई मामलों के लिए बना था लेकिन अपने सारे इजलासों में उसकी तरफ से भी इस विवाद को लेकर राजनैतिक बयानबाजी बार-बार की जाती रही है. अयोध्या पर हाई कोर्ट के फैसले की घड़ी एक नाज़ुक वक्त था लेकिन उसका भी सियासी लाभ लेने में उत्तर प्रदेश की राजनैतिक पार्टियों ने कोई कमी नहीं बरती. यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा की तरफ से चुनाव प्रचार का जिम्मा उमा भारती ने संभाला है और सपा की तरफ से आजम खां ने. पिछले कुछ सालों में यह मुद्दा एक ऐसे सामान की तरह हो गया है जिसे ऐन चुनाव से पहले बस्ते से निकाल कर झाड़ा-फूंका जाता है और जनता के सामने पेश कर दिया जाता है, इस उम्मीद के साथ कि क्या पता जनता इसे फिर से उठा ले.
अधिग्रहण और उपेक्षित किसान
राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते कॉरपोरेट दबदबे के बीच कभी मुलायम सिंह को तो कभी मायावती को साध कर कई औद्योगिक घराने उत्तर प्रदेश में जब अपने साम्राज्य विस्तार में लगे थे तो लगने लगा कि प्रदेश के सियासी फलक से किसान और जमीन जैसे मुद्दे गायब हो रहे हैं. उम्मीद तब जगी जब दादरी में अनिल अंबानी बिजली घर लगाने चले और उस वक्त भूतपूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने किसानों को एकजुट करके जबरिया जमीन अधिग्रहण का मुद्दा उठाया. लेकिन वे एक ऐसे मोड़ पर खड़े थे जहां उनके पास न तो सियासी समर्थन था और न ही कोई सांगठनिक ढांचा. फिर भी उनकी आवाज दूर-दूर तक पहुंची. वीपी सिंह किसानों के शोषण का मुद्दा उस वक्त उठा रहे थे जब खुद को ‘किसानों का नेता’ कहने वाले मुलायम सिंह यादव राज्य की सत्ता पर काबिज थे.
बाद में कांग्रेस को लगा कि वह जमीन और किसान के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस पा सकती है. कांग्रेस के इस अभियान की कमान ‘भविष्य के प्रधानमंत्री’ कहे जाने वाले राहुल गांधी ने संभाली. बुंदेलखंड के बदहाल किसानों के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करवाने से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से अधिग्रहण के नाम पर जबरन छीनी जा रही जमीन के खिलाफ हल्ला बोलने का काम राहुल ने किया. इसने सियासी दांव-पेंच में माहिर मायावती को भी इस बात के लिए मजबूर किया कि वे किसानों से संबंधित मसलों पर मुखर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कई सरकारी योजनाओं की घोषणा करें. भट्टा-पारसोल से किसान संदेश यात्रा लेकर बीते नौ जुलाई को अलीगढ़ पहुंचे राहुल गांधी ने अपनी उस रैली में कहा, ‘विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश में लाखों किसानों की जमीन ली जा रही है गोल्फ क्लब और रेसिंग क्लब बनाने के लिए. जमीन बिल्डरों को दी जा रही है. दिल्ली में जमीन ली जाती है तो बेचने वाले को उसके मन के हिसाब से पैसे मिलते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसी मांग करने वाले किसानों पर गोली चलाई जाती है. हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपको एक ऐसा कानून दें जिससे किसानों और मजदूरों को फायदा हो.’ संकेत साफ था, प्रदेश में कांग्रेस की डूबी सियासी नैया में उम्मीद का संचार करने के लिए जमीन अधिग्रहण का मसला टॉनिक का काम करने वाला है.
सिर्फ तीन दिन बाद गांधी परिवार के चहेते माने जाने वाले जयराम रमेश को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री बना दिया गया. रमेश ने भी सालों से लटक रहे जमीन अधिग्रहण कानून का मसौदा 55 दिन में तैयार करके संसद में पेश कर दिया.
बाद में कांग्रेस को लगा कि वह जमीन और किसान के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन को दुबारा पाने की हालत में आ सकती है
लेकिन सियासी अजूबों वाले इस सूबे की राजनीति ने एक बार फिर अपना रंग दिखाया. मसौदा जिस स्थायी संसदीय समिति के पास पहुंचा उसकी अगुवाई भाजपा की सुमित्रा महाजन कर रही हैं और इसमें मौजूद बसपा सांसदों ने भी विधेयक को लटकाए रखने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी. विधेयक पारित नहीं हो पाया. इसके कुछ ही हफ्ते पहले नई जमीन अधिग्रहण नीति की घोषणा करने वाली मायावती खुद की बजाय कांग्रेस को किसानों का हमदर्द कैसे बनने दे सकती थीं!
चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही जमीन और किसान के मुद्दे पर चोट खाई कांग्रेस चौधरी अजित सिंह के साथ गठबंधन करके एक बार फिर जाति और संप्रदाय की राजनीति के उसी मैदान में वापस आ गई है जिसके सबसे मजबूत खिलाड़ी के तौर पर बसपा और सपा को जाना जाता है. जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री और देश के सबसे बड़े किसान नेता रहे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के प्रदेश के किसान आज एक बार फिर से जहां से चले थे वहीं खड़े हैं.
दलित राजनीति की प्रयोगशाला
कभी दलित वोट बैंक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सबसे खास जनाधार माना जाता था. कांशीराम ने जब उत्तर प्रदेश में दलित वोट बैंक को अपने साथ लेने की मुहिम शुरू की तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह मुहिम एक दिन उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने तक भी जा पहुँचेगी. हालांकि महाराष्ट्र में दलित आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है और पंजाब सहित कई अन्य राज्यों की जनसंख्या में दलितों का हिस्सा उत्तर प्रदेश के 22 फीसदी के मुकाबले कहीं ज्यादा रहा है, लेकिन दलित आंदोलन की सफलता का सबसे बड़ा और चमकीला प्रतीक आज उत्तर प्रदेश ही है.
उत्तर प्रदेश में बसपा की सत्ता में भागीदारी के शुरुआती दौर ने सामाजिक ताने-बाने में काफी उथल पुथल पैदा की. यही कारण था कि उस दौर में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित ऐक्ट के मुकदमों की बाढ़-सी आ गई थी जो बसपा को सहयोग दे रहीं भाजपा और सपा जैसी पार्टियों की नाराजगी की एक बड़ी वजह रही. लेकिन मायावती ने कभी उनकी नाराजगी की परवाह नहीं की. 2007 के विधानसभा चुनाव में कुर्सी पाने और उसे बचाए रखने की मजबूरी में बीएसपी ने बहुजन की बजाय सर्वजन का नारा अपना लिया. इसका लाभ उसे अपने दम पर सरकार बनाने में तो मिल गया मगर यह सर्वजन की सरकार न बन कर कुछ कुनबों की बन कर रह गई जिसमें दलित कहीं पीछे रह गया. इसका असर लोकसभा चुनाव में बसपा की बुरी हालत के रूप में भी देखा गया.
बीएसपी सरकार ने अपने वर्तमान कार्यकाल में स्मारकों और पत्थरों का काम करके दलित स्वाभिमान के वाह्य स्वरूप को भले ही सहलाया हो, उसने भले ही सरकारी नौकरियों में आरक्षण का पूर्ण पालन और कई दलित अधिकारियों को प्रोत्साहन भी दिया हो मगर जिन महादलितों के घर राहुल गांधी दस्तक दे रहे हैं वहां तक खुशहाली पहुंचाने के लिए कोई ठोस काम नहीं किया. कभी मायावती के बेहद करीबी और अब केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर तैनात एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी कहते हैं, ‘हमने उनको निचले स्तर तक नवोदय विद्यालयों की तरह दलित बच्चों के लिए एक विशेष प्रकार के स्कूलों की श्रृंखला खोलने का सुझाव दिया था. इसके लिए धन की व्यवस्था भी बाहरी साधनों से हो रही थी. लेकिन अचानक इस प्रोजेक्ट को किनारे कर दिया गया. इस तरह की शिक्षा से ग्रामीण स्तर तक दलित बच्चों की प्रतिभा को निखारा जा सकता था, मगर ऐसा हो नहीं सका.’ इसका नतीजा यह हुआ कि इस बार भी चुनाव में हर दल दलित वोट बैंक की ओर हसरत भरी निगाहों से देख रहा है.
कांग्रेस महादलितों की बात कर इस जोड़ तोड़ में बहुत गंभीरता से जुटी है और भाजपा भी. भाजपा ने मायावती की जाटव बिरादरी के अलावा अन्य दलित जातियों के भरोसे सफलता हासिल करने की योजना के तहत राज्य की 60 से अधिक अन्य दलित जातियों के प्रतिनिधियों को टिकट दिए हैं.
दलित वोट बैंक का गणित दो तरह से काम करता है. एक तो राज्य की आरक्षित सीटों के जरिए और दूसरा सामान्य सीटों में अधिक बड़ी मतदाता संख्या के जरिए. राज्य की लगभग 58 सीटों पर दलित वोट निर्णायक है और मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय होने पर यह संख्या काफी बढ़ भी जाती है. आरक्षित सीटों का गणित तो अलग है ही. 2007 के चुनावों में मायावती ने 62 आरक्षित सीटें जीती थीं और भाजपा के हिस्से में महज 7 सीटें ही आई थीं. इस बार भी सभी प्रमुख पार्टियां सुरक्षित सीटों पर ज्यादा से ज्यादा कब्जा करने के प्रयास में हैं क्योंकि इन सीटों पर किसका कितना कब्जा होता है यह बात लोकसभा चुनावों में अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाएगी.
बाहुबल और वोट-कटवा पार्टियां
उत्तर प्रदेश की चुनावी शतरंज का एक खास पहलू है बाहुबल. दाग यहां राजनीति की खूबी माना जाता है और दागी होना सफलता की पहली शर्त. तभी तो उत्तर प्रदेश की विधान सभा में मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, राजा भैया, डीपी यादव आदि अनेक स्वनामधन्य जन प्रतिनिधि शान से विचरण करते दिखाई देते हैं. 2007 की उत्तर प्रदेश विधानसभा में दागियों की भरमार थी तो अनेक बार ऐसे मौके भी आए जब विधानसभा की बैठकों के लिए अनेक विधायक जेल से लाए गए.
हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने ज्यादातर बाहुबलियों को नकार दिया था मगर विधानसभा चुनावों में एक बार फिर इनकी धूम है. यूपी इलेक्शन वॉच की सूचना के मुताबिक उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए पहले दौर में घोषित कांग्रेस, भाजपा, सपा और लोकदल के कुल 617 उम्मीदवारों में से 248 आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं और इनमें से 15 फीसदी गंभीर आरोपों से घिरे हैं. राज्य की मौजूदा विधान सभा की कहानी भी कुछ खास अलग नहीं है. सूबे के कुल 403 विधायकों में से 143 के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. इनमें से 76 विधायकों पर गंभीर अपराधों के मुकदमे हैं.
आपराधिक राजनीति का उत्तर प्रदेश की छोटी सियासी पार्टियों से भी गहरा रिश्ता है. डीपी यादव खुद एक पार्टी, राष्ट्रीय परिवर्तन दल के मालिक हैं तो मुख्तार अंसारी अपने कौमी एकता दल के जरिए सियासत में हैं. अपना दल जैसे छोटे दल तो पहले से ही बाहुबलियों की शरणगाह बने हुए हैं. दल की महासचिव अनुप्रिया पटेल का नजरिया इस बारे में बहुत साफ है. वे कहती हैं, ‘हम राजनीति कर रहे हैं. कौन अपराधी है या कौन माफिया यह तय करना हमारा काम नहीं है. यह अदालतों का काम है.’ यही कारण है कि पांच लाख के इनामी और अब अहमदाबाद जेल में बंद बृजेश सिंह को चंदौली जिले की सैयदराजा सीट से प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का टिकट मिल गया है और एक दर्जन से अधिक हत्याओं के आरोपित मुन्ना बजरंगी को अपना दल से. ऐसे नामों की एक लंबी श्रंखला है.
पीस पार्टी, बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, जन क्रान्ति पार्टी, उलेमा काउंसिल सहित 100 से अधिक छोटी पार्टियां इस बार भी चुनावी मैदान में उतरी हैं
छोटे दलों की एक भूमिका वोट काटने वाली पार्टियों की भी होती है. पिछले विधानसभा चुनाव में 112 छोटे दलों ने भागीदारी की थी. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोर्चा ने सर्वाधिक 118 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. अपना दल को सीट तो एक भी नहीं मिल पाई मगर उसने कांग्रेस से अधिक लगभग 10 फीसदी वोट हासिल किए थे. डीपी यादव के राष्ट्रीय परिवर्तन दल ने 14 सीटों पर लड़ कर 6 फीसदी वोट पाए थे. उमा भारती की भारतीय जनशक्ति पार्टी ने भी 66 सीटों पर लड़कर 1.75 फीसदी मत हासिल किए थे और राज्य में भाजपा का गणित बिगाड़ने में खासी भूमिका निभाई थी. तब कुल 7 फीसदी से अधिक वोट ऐसे ही छोटे दलों के हिस्से में आए थे. हालांकि इनमें से महज छह विधायक ही विधानसभा में पहुंच सके मगर इन्होेेेंने लगभग 50 से ज्यादा उम्मीदवारों का चुनावी गणित गड़बड़ा दिया. 2007 में 28 सीटें ऐसी थीं जहां जीत का अंतर 1000 से भी कम था और 122 सीटों पर यह अंतर मात्र एक से 5000 मतों का था.
इस बार ये छोटे दल फिर से मैदान में हैं और अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस, भारतीय जनशक्ति पार्टी, जनमोर्चा, हाजी याकूब की यूपी यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट आदि के चुनाव में मौजूद न होने के बाद भी पीस पार्टी, बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, कल्याण सिंह की जन क्रांति पार्टी, उलेमा काउंसिल, राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी आदि 100 से अधिक छोटी पार्टियां मैदान में उतर चुकी हैं. पिछले चुनाव में उमा भारती और कल्याण सिंह जिस तरह भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे थे, समाजवादी पार्टी के खिलाफ वैसी ही कोशिश में अमर सिंह भी अबकी बार अपनी पार्टी के जरिए कूद पड़े हैं. एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, जदयू आदि, पार्टियां भी यूपी की चुनावी लड़ाई में हिस्सा लेने पहुँच गई हैं.
पहले चुनावी शतरंज के महारथी चुनाव खर्च के प्रबंध, विरोधी उम्मीदवारों का जातीय गणित बिगाड़ने, मिलते-जुलते नाम वाले उम्मीदवारों से मतदाता को संशय में डालने आदि कारणों से निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव लड़वाते थे. जानकार मानते हैं कि चुनाव आयोग की सख्ती के बाद अब यही काम छोटे दलों की मदद से किया जाता है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान बहुत तेजी से उभरने वाली पीस पार्टी के बारे में भी ऐसा ही कहा जाता है तो अनेक मुसलिम सियासी पार्टियों के बारे में भी. इन छोटे दलों के लिए प्रतिबद्धता या विश्वसनीयता कोई मुद्दा नहीं होता. पिछले विधानसभा चुनाव में जनमोर्चा ऐसे दलों की अगुवाई कर कहा था तो इस बार यह भूमिका इत्तहाद फ्रंट यानी एकता मंच निभा रहा है. इस फ्रंट में लगभग 20 छोटे दल शामिल हैं और बाहुबलियों को टिकट देने के लिए चर्चा में आ चुकी डॉक्टर अयूब की पीस पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद यह फ्रंट अब अधिक आत्मविश्वास की मुद्रा में आ गया है. इस मंच में बुंदेलखंड कांग्रेस, अपना दल, भारतीय समाज पार्टी, कौमी एकता दल, इत्तहाद मिल्लत कौंसिल, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी आदि शामिल हैं और इसके अध्यक्ष सलमान नदवी का दावा है कि पीस पार्टी से अलग होने के बाद अब यह फ्रंट उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया असर पैदा करेगा.
चार संभावित प्रधानमंत्री
उत्तर प्रदेश की राजनीति को खूबी यह भी है कि यह सपने दिखाती है, सपने बेचती है और सपने ही पालती है. फिलहाल जब तक यूपी अखंड है तब तक दिल्ली की सत्ता का रास्ता बिना उत्तर प्रदेश के मिल पाना मुमकिन नहीं. इसलिए यूपी तमाम नेताओं को प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना भी दिखाता है. अतीत इसका गवाह भी है. जवाहर लाल नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, चौधरी चरण सिंह, इंदिरा गांधी, राजीव, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी, इन सभी प्रधानमंत्रियों का संबंध उत्तर प्रदेश से रहा है. यही सुनहरा अतीत वर्तमान नेताओं के लिए भी उम्मीदें पैदा करता है.
वर्तमान में उत्तर प्रदेश में राजनीति कर रहे कम से कम चार चेहरे तो ऐसे हैं ही जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार कहे जा सकते हैं. इनमें पहला नाम सोनिया गांधी का लिया जा सकता है जिन्होंने कांग्रेस के नेताओं के मुताबिक खुद इस पद का त्याग कर भारतीय राजनीति में एक मिसाल कायम कर दी है. इसके बाद नंबर आता है उन्हीं के यशस्वी पुत्र राहुल गांधी का जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने की कवायद में इस समय दिन रात एक किए हुए हैं. अनेक बार राहुल गांधी के भाषणों और तेवरों से भी उनकी प्रधानमंत्री बनने से पहले वाली मनःस्थिति साफ झलकती है.
इसके बाद बारी आती है समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की. मुलायम एक बार तो प्रधानमंत्री बनते -बनते रह ही गए थे. तब अगर लालू प्रसाद यादव ने लंगड़ी न मारी होती तो मुलायम का नाम देश के प्रधानमंत्रियों की सूची में आ जाना तय हो गया था. लेकिन सपना अब भी बाकी है और 2012 के विधानसभा चुनावों से ही यह तय होगा कि इस सपने का क्या हश्र होने वाला है. एक दौर था जब मुलायम बार-बार इस बात को बताते थे कि इस तरह वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे. मगर इस समय वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं और उनकी समाजवादी पार्टी किसी भी तरह यूपी का किला तोड़ना चाहती है क्योंकि यहीं से उसकी आगे की राह तय होगी.
प्रधानमंत्री पद की चौथी दावेदार उत्तर प्रदेश की मौजूदा मुख्यमंत्री मायावती हैं. उन्होने प्रधानमंत्री बनने के लिए पिछले लोकसभा चुनावों में तीसरे मोर्चे के दम पर बहुत अधिक सपने भी देख डाले थे. समाज की नब्ज समझने वाले शायर खुशवीर सिंह शाद कहते हैं, ‘मायावती के पास बड़ा मौका था. अगर वे सिर्फ दो वर्ष तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में खुद को एक धननेता की बजाय जननेता के रूप में स्थापित कर लेतीं तो उत्तर प्रदेश से उनके कम से कम 60 सांसद दिल्ली पहुंचते और अगर ऐसा होता तो निश्चित रूप से दिल्ली का नक्शा आज कुछ और ही होता’. लेकिन बंद कमरे में चाटुकार अधिकारियों से घिरी मायावती शायद इतनी-सी बात को ढंग से समझ नहीं सकीं. प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की मायावती की संभावनाएं अभी बरकरार हैं और इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी दिन दिल्ली के खास इलाकों में भी उनकी प्रतिमाएं नजर आने लगें.
अब जिस प्रदेश में प्रधानमंत्रित्व की संभावनाओं से भरे इतने व्यक्तित्व होंगे वहां की राजनीति कैसी होगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.